Saturday, 20 October 2018

सत्ता प्रकाश सुख / sattā prakāśa sukha

सारगीता
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सच्चिदानंद-पद-त्रय-विवरण
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सत्ता प्रकाश सुख । या तिहीं उणे लेख
जैसें विखपणेंचि विख । विखा नाहीं ॥
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(अमृतानुभव / प्रकरण ५, ओवी १ )
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saccidānandapadatrayavivaraṇa
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sattā prakāśa sukha | yā tihīṃ uṇe lekha |
jaiseṃ vikhapaṇeṃci vikha | vikhā nāhīṃ ||
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(amṛtānubhava, prakaraṇa 5, ovī 1)
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सत्ता प्रकाश सुख । इन तीनों से परे वर्णन ॥
जैसे विषाक्तता का विष, विष को नहीं विषप्रद  ॥
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भूमिका :
अमृतानुभव के अनुवाद का यत्न कुछ वर्षों पहले शुरू किया था। 
चार प्रकरण पूर्ण होने पर पांचवां प्रारम्भ किया तो प्रथम 'ओवी' का संतोषप्रद अनुवाद नहीं कर पा रहा था। इसलिए वह उपक्रम वहीं रुक गया।  इस बीते समय में अनेक बार इस 'ओवी' पर  चिंतन अनायास होता रहा।
शायद आज इसे ठीक ढंग से संतोषपूर्वक समझकर यथासंभव जैसा समझा लगभग वैसा ही व्यक्त कर पा रहा हूँ।
इसी का आधारभूत तुलनात्मक स्वरूप गीता के निम्न श्लोक में प्रतीत हुआ :
अध्याय 2, श्लोक 59,

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ॥
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(विषयाः विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।
रसवर्जम् रसः अपि अस्य परम् दृष्ट्वा निवर्तते ।)
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भावार्थ :
जो मनुष्य इन्द्रियों से विषयों का सेवन नहीं करता, उसकी विषयों से तो निवृत्ति हो जाती है (किन्तु विषयों से आसक्ति, अर्थात् उनमें सुख है ऐसी बुद्धि निवृत्त नहीं हो पाती) किन्तु जिसने परमात्मा का दर्शन कर लिया है, उसकी ऐसी सुख-बुद्धि अर्थात् लालसा (रसवर्जना) और आसक्ति भी उस दर्शन से सर्वथा निवृत्त हो जाती है ।
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टिप्पणी :
लालसा को रसवर्ज इसलिए कहते हैं, क्योंकि लालसा सुख के अभाव का ही द्योतक होती है ।  जब तक लालसा होती है, सुख नहीं होता । और लालसा तृप्त हो जाने पर भी  सुख नहीं रहता । केवल उसके पूर्ण होने की प्रतीति के समय में कभी कभी सुख का आभास होता है, और वह आभास भी बाद में शेष नहीं रहता ।
विकल्प से, यदि हम ’रसवर्जम्’ को कर्म अर्थात् द्वितीया विभक्ति के अर्थ में ग्रहण करें तो वह ’परम्’ के तुल्य होकर ’ब्रह्म’ का पर्याय है, चूँकि ’ब्रह्म’ स्वयं ही रसस्वरूप अद्वैत तत्व है जिसका आनन्द लेनेवाला उससे अन्य नहीं है, इसलिए उसमें इस दृष्टि से रस का भी अत्यन्त अभाव है ।
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Chapter 2, śloka 59,

viṣayā vinivartante
nirāhārasya dehinaḥ |
rasavarjaṃ raso:'pyasya
paraṃ dṛṣṭvā nivartate ||
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(viṣayāḥ vinivartante
nirāhārasya dehinaḥ |
rasavarjam rasaḥ api asya
param dṛṣṭvā nivartate |)
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Meaning :
One who abstains from objects (of the senses) is of course free from them, but his craving for the pleasures (and aversion to the pains) that seem to come from those (gross and subtle) objects ceases not. However, One who has realized the Supreme (Brahman that is Bliss), attains freedom from the cravings also.
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पिछली एक पोस्ट में वृत्ति के बारे में लिखा था कि किस प्रकार 'वृत्ति' में ध्यान की दिशा (बहिर्मुखता या अंतर्मुखता) के साथ चित्त का प्रमाद / अप्रमाद और बुद्धि की चंचलता (या एकाग्रता) का युग्म संबद्ध होता है। 
इस प्रकार इन्द्रियाँ और इन्द्रियों से वृत्ति के माध्यम से जुड़ा 'मन' ही विभिन्न विषयों से संपर्क में होता है। 
अष्टावक्र-गीता के प्रथम  श्लोक का उल्लेख यहाँ न किया जाए तो यह पूरा प्रसंग अधूरा ही होगा। 
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अष्टावक्र-गीता 
प्रथमोऽध्यायः 
अष्टावक्र उवाच :
मुक्तिमेच्छसि चेत्तात विषयान्विषवत्त्यज ।
क्षमार्जवदयातोष सत्यं पीयूषवद्भज ॥१
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aṣṭāvakra-gītā 
prathamo:'dhyāyaḥ 
aṣṭāvakra uvāca :
muktimecchasi cettāta viṣayānviṣavattyaja |
kṣamārjavadayātoṣa satyaṃ pīyūṣavadbhaja ||1
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इन्द्रियोंसहित मन की त्रिविध दशा / दिशा:
मन इस प्रकार जो स्वरूपतः 'वृत्ति' है तीन दशाओं / अवस्थाओं में हो सकता है :
बहिर्मुख, अन्तर्मुख और पराङ्गमुख।
विषयों से सम्बद्ध होने पर यह या तो बहिर्मुख या अन्तर्मुख होने पर भी विषयाभिमुख ही होता है।
किंतु पराङ्गमुख होने पर यह पर-तत्व से एकीभूत (identified) होता है।
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क्रमशः :
  पराङ्गमुखता 
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