मण्डूक-दर्शन के आचार्य माण्डुकि और मुण्डक-दर्शन के आचार्य मुण्डक छोटे बड़े भाई थे ।
माण्डुकि कूटस्थ-सत्य को जानते हुए सर्वदा उसमें निमग्न रहते थे और उनका सांसारिक व्यवहार उनकी दोनों पत्नियों अपरा और इतरा की इच्छा और वृत्ति से प्रेरित और संचालित होता था ।
आचार्य मुण्डक की प्रकृति और प्रवृत्ति बुद्धि को शुद्ध कर इंद्रिय-मनोगम्य बुद्धि से परे के सत्य के दिग्दर्शन में संलग्न रहती थी ।
क्योंकि उन्हें लगता था कि स्वभाव से ही प्राणिमात्र की बुद्धि बहिर्मुख होने से जब तक वह अन्तर्मुख नहीं होती तब तक सत्य के लिए जिज्ञासा ही उसमें जागृत नहीं होती, इसलिए उस काल तक बुद्धि के प्रयोग से विवेक को जागृत करना ही उसके लिए उचित कार्य हो सकता है ।
मुण्डक ऋषि के असंख्य, जबकि माण्डुकि के इने-गिने ही शिष्य थे ।
माण्डुकि की पत्नी अपरा और इतरा भी परस्पर बहनें थीं ।
परा और मुण्डक की अनेक संतानें थी जो उन दोनों की ही तरह वैराग्य और परा-ज्ञानसंपन्न थीं और संसार में सुखपूर्वक गृहस्थ धर्म का आचरण कर रही थीं । उनके जीवन में सुख-दुःख आदि आते-जाते रहते थे किंतु इससे उनके मन में कभी क्लेश उत्पन्न नहीं होता था ।
वैसे तो माण्डुकि ऋषि की पत्नियों के बीच भी द्वेष या विग्रह का कोई कारण नहीं था किंतु उनकी संतानें संसार में सुख-प्राप्ति के लिए कर्म को एकमात्र साधन मानकर वेदविहित कर्म के अनुष्ठान के माध्यम से इहलोक और परलोक के सुखों के साधन में तत्पर रहती थीं । किसी परम सत्य अथवा ब्रह्मन् का विचार तक उन्हें अरुचिप्रद जान पड़ता था ।
धर्म-साधन के क्रमशः इन दो प्रकारों में ऋषि मुण्डक तथा ऋषि माण्डूकि की संतानें जीवन व्यतीत कर रही थीं ।
किंतु इन सबसे भिन्न प्रकृति थी इतरा के पुत्र ऐतरेय की जिसकी रुचि किसी विषय में प्रवृत्त ही नहीं होती थी ।
उसके पिता और पितृव्य जानते थे कि वह जटास्वामी होने से उसकी वृत्ति जटिल है, किंतु कुटिल नहीं है । और वे उसके आचरण पर कभी आक्षेप नहीं करते थे ।
जटास्वामी कभी कभी मूढवत्, और बालवत् आचरण करता दिखाई देता था किंतु उसने कभी पिशाचवत् आचरण नहीं किया इसलिए भी उसके पिता तथा पितृव्य अनुभव करते थे कि केवल प्रारब्ध-क्षय के लिए ही उसने यह जन्म लिया है ।
ऐतरेय के व्यवहार को न समझ पाने से उसकी माता प्रायः चिन्तित रहती थी कि क्या वह पूरे जीवन भर ऐसा ही अविकसित मन-बुद्धि से जीता रहेगा? क्या वह मोक्ष तो ठीक, धर्म, अर्थ और काम नामक शेष तीन पुरुषार्थों की प्राप्ति का भी प्रयास नहीं करेगा?
संकेत :
१.’इडा’ और ’इतरा’, तथा ’पिंगा’ ’पिङ्गला’ का साम्य दृष्टव्य है ।
२.’सुषुम्ना’ और ’परा’ का अर्थ-साम्य दृष्टव्य है ।
(कल्पित)
--
स्कन्द-पुराण -- माहेश्वरखण्ड-कुमारिकाखण्ड
(अध्याय ३४ से उद्धृत)
... ... ...
अर्जुन ने पूछा : मुने ! ऐतरेय किसके पुत्र थे? उनका निवास-स्थान कहाँ था? परम बुद्धिमान् ऐतरेय ने किस प्रकार भगवान् वासुदेव के प्रसाद से सिद्धि प्राप्त की?
नारदजी ने कहा : कुन्तीनन्दन ! यहीं मेरे द्वारा स्थापित स्थान में जो हारीत मुनि रहते थे, उन्हीं के वंश में एक श्रेष्ठ ब्राह्मण उत्पन्न हुए, जो माण्डूकि नाम से विख्यात थे । उनके ’इतरा’ नामवाली पत्नी थी, जो नारी के समस्त सद्गुणों से सुशोभित थी । उसके गर्भ से जो पुत्र हुआ, उसी का नाम ’ऐतरेय’ था । ऐतरेय बाल्यावस्था से ही निरन्तर द्वादशाक्षर मन्त्र (ॐ नमो भगवते वासुदेवाय) - का जप करता था, उसे पूर्व-जन्म में ही इस मन्त्र की शिक्षा मिली थी । वह न तो किसी की बात सुनता था, न स्वयं कुछ बोलता था और न अध्ययन ही करता था । इससे सबको यह निश्चय हो गया कि यह बालक गूँगा है । पिता ने अनेक उपायों से उसको समझाया--बोध कराया, परंतु उसने लौकिक व्यवहार में कभी मन नहीं लगाया । यह देख पिता ने भी यही निश्चय कर लिया कि यह सर्वथा जड है । तब उन्होंने पिंगा नामवाली दूसरी स्त्री से विवाह किया और उससे चार पुत्र उत्पन्न किए जो वेद-वेदाङ्गों के विद्वान् हुए ।
ऐतरेय भी प्रतिदिन तीनों समय भगवान् वासुदेव के मन्दिर में जाकर उस उत्तम मन्त्र का जाप करने लगे । वे दूसरे किसी कार्य में परिश्रम नहीं करते थे ।
एक दिन उनकी माता इतरा अपनी सौत के पुत्रों की योग्यता देखकर सन्तप्त चित्त हो अपने पुत्र से बोली
- अरे ! तू तो मुझे क्लेश देने के लिए ही पैदा हुआ ! मेरे जन्म और जीवन को धिक्कार है ! संसार में उस नारी का जन्म निश्चय ही व्यर्थ है, जो पति के द्वारा तिरस्कृत हो और जिसका पुत्र गुणवान् न हो । वत्स ! मैं बड़ी खोटे भाग्यवाली हूँ, अतः महीसागरसंगम में डूब मरूँगी । मेरा मर जाना ही अच्छा है । जीवित रहने में मुझे क्या लाभ है? मेरे मर जाने पर तू भी भगवान् का महामौनी भक्त होकर दीर्घकाल तक आनन्द भोगना ।
नारदजी कहते हैं -- माता की यह बात सुनकर ऐतरेय ठठाकर हँस पड़े । वे बड़े धर्मज्ञ थे । उन्होंने दो घड़ी भगवान् का ध्यान करके माता के चरणों में प्रणाम किया और कहा -- ’माँ ! तुम झूठे मोह में पड़ी हुई हो । अज्ञान को ही ज्ञान मान बैठी हो । शुभे ! जो शोचनीय नहीं है, उसी के लिये तुम शोक करती हो और जो वास्तव में शोचनीय है उसके लिये तुम्हारे मन में तनिक भी शोक नहीं होता । यह संसार मिथ्या है । इसमें तुम इस शरीर के लिए क्यों चिन्तित एवं मोहित हो रही हो ? यह तो मूर्खों का काम है ! तुम - जैसी विदुषी स्त्रियों को यह शोभा नहीं देता ! संसार में सारतत्त्व तो कुछ और ही है, किंतु अज्ञान से मोहित मनुष्य किसी और ही असार वस्तु को सार समझते हैं । तुम इस मानव-शरीर को यदि सार मानती हो तो लो, इसकी भी असारता सुनो ! यह जो मानव-शरीर है, यह गर्भ से लेकर मृत्युपर्यन्त सदा अत्यन्त कष्टप्रद है । यह शरीर एक प्रकार का घर है । हड्डियों का समूह ही इसके भार को सँभालनेवाला खम्भा है । नाडीजालरूपी रस्सियों से ही इसे बाँधा गया है ।रक्त और माँसरूपी मिट्टी से इसको लीपा गया है । विष्ठा और मूत्ररूपी द्रव्यों के संग्रह का यह पात्र है । केश और रोमरूपी तृण से इसको छाया गया है । सुन्दर रंग की त्वचा से इसके ऊपर रंग किया गया है । मुख ही इसका प्रधान द्वार है । दो आँख, दो कान और दो नासाछिद्र --ये ही इसके छः खिड़कियाँ हैं । दोनों ओष्ठ ही इसके द्वार को ढकनेवाले किंवाड हैं । दाँत ही अर्गला (किंवाड को बंद करनेवाली साँकल) हैं । नाडी और पसीने ही नाली और जलप्रवाह हैं । यह सदा काल की मुखाग्नि में स्थित है । ऐसे इस देहरूपी गेह (गृह) में जीव निवास करता है । इस घर में त्रिगुणमयी प्रकृति ही उसकी पत्नी है तथा क्रोध, अहंकार, काम, ईर्ष्या और लोभ आदि ही उक्त गृहस्थ की संतानें हैं । हाय ! कितने कष्ट की बात है कि जीव इस देह-गेह की मोहमाया से मूढ होकर तदनुकूल बर्ताव करता है । उसका जिस-जिस विषय में जैसे मोह होता है, वह सब बताता हूँ, सुनो । जैसे पर्वत से झरने गिरते रहते हैं, उसी प्रकार शरीर से भी कफ और मूत्र आदि बहते रहते है, उसी देह के लिए जीव मोहित होता है । विष्ठा और मूत्र से भरे हुए चर्मपात्र की भाँति यह शरीर समस्त अपवित्र वस्तुओं का भण्डार है और इसका एक प्रदेश (एक अंश) भी पवित्र नहीं है । अपने शरीर से निकले हुए मल-मूत्र आदि के जो प्रवाह हैं, उनका स्पर्श हो जाने पर मिट्टी और जल से हाथ शुद्ध किया जाता है; तथापि उन्हीं अपवित्र वस्तुओं के भण्डाररूप इस देह से न जाने क्यों मनुष्य को वैराग्य नहीं होता ? सुगन्धित तेल और जल आदि के द्वारा यत्नपूर्वक भलीभाँति संस्कार (सफाई) करने पर भी यह शरीर अपनी स्वाभाविक अपवित्रता को नहीं छोड़ता है; ठीक उसी तरह, जैसे कुत्ते की टेढ़ी पूँछ को कितना ही सीधा किया जाय, वह अपना टेढ़ापन नहीं छोड़ पाती । अपनी देह की अपवित्र गन्ध से जो मनुष्य विरक्त नहीं होता, उसे वैराग्य के लिए अन्य किस साधन का उपदेश दिया जाय ? दुर्गन्ध तथा मल-मूत्र के लेप को दूर करने के लिए ही शारीरिक शुद्धि का विधान किया गया है । इन दोनों (गन्ध और लेप) -का निवारण हो जाने के पश्चात् आन्तरिक भाव की शुद्धि होने से मनुष्य शुद्ध होता है । भाव-शुद्धि ही सबसे बढ़कर पवित्रता है । वही सब कर्मों में प्रमाणभूत है । आलिंगन पत्नी का भी किया जाता है और पुत्री का भी, परंतु दोनों में भाव का महान् अन्तर है । । प्यारी पत्नी का आलिंगन किसी और भाव से किया जाता है एवं पुत्री का दूसरे भाव से । एक ही स्त्री के स्तनों को पुत्र दूसरे भाव से स्मरण करता है और पति दूसरे भाव से । अतः अपने चित्त को ही शुद्ध करना चाहिए । बाह्य-शुद्धि के दूसरे-दूसरे साधनों से क्या लेना है ? भाव-दृष्टि से जिसका अन्तःकरण अत्यन्त शुद्ध है, वह स्वर्ग और मोक्ष को भी प्राप्त कर लेता है ।
ज्ञानरूपी निर्मल जल तथा वैराग्यरूपी मृत्तिका से ही पुरुष के अविद्या एव रागमय मल-मूत्र के लेप और दुर्गन्ध का शोधन होता है । इस प्रकार इस शरीर को स्वभावतः अशुद्ध माना गया है । जैसे केले के वृक्ष में केवल वल्कल (छाल / छल) ही सार है, उसी प्रकार इस देह में केवल त्वचामात्र सार है, वास्तव में तो यह सर्वथा निःसार है । जो बुद्धिमान् अपने शरीर को इस प्रकार दोषयुक्त जानकर उदासीन हो जाता है-- उसकी ओर से अनुराग शिथिल कर लेता है-- वही इस संसार-बन्धन से छूटकर निकल पाता है । किंतु जो दृढतापूर्वक इस शरीर को पकड़े हुए रहता है-- इसका मोह नहीं छोड़ता, वह संसार में ही पड़ा रह जाता है । इस प्रकार यह मानव-जन्म लोगों के अज्ञानदोष से तथा नाना कर्मवशात् दुःखस्वरूप और महान् कष्टप्रद बताया गया है । जैसे बड़े भारी पर्वत से दबा हुआ कोई प्राणी बड़े कष्ट से पीडित रहता है, उसी प्रकार गर्भ की झिल्ली में बँधा हुआ मनुष्य महान् कष्ट से वहाँ ठहर पाता है । जैसे समुद्र में गिरा हुआ कोई मनुष्य अत्यन्त व्याकुल होकर बड़े भारी दुःख से घिर जाता है, उसी प्रकार गर्भगत जल से भीगे हुए अंगोंवाला गर्भस्थ शिशु अत्यन्त व्याकुल रहता है । जैसे किसी को लोहे के घड़े में रखकर आग से पकाया जाता है, वैसे ही गर्भरूपी घट में डाला हुआ जीव जठरानल की आँच से पकता रहता है । यदि आग के समान दहकती हुई सुइयों से किसी को निरंतर छेदा जाय तो उसे जितनी पीड़ा हो सकती है, उससे आठ गुनी पीड़ा गर्भ में भोगनी पड़ती है । इस प्रकार स्थावर-जंगम (अचर - वनस्पति आदि / चर - शेष जीव) सभी प्राणियों को अपने-अपने गर्भ के अनुरूप यह महान् गर्भ-दुःख प्राप्त होता है; ऐसा कहा गया है ।
गर्भ में स्थित होने पर सभी को अपने-अपने पूर्वजन्मों का स्मरण हो आता है । उस समय जीव इस प्रकार सोचता है-- ’अहो ! मैं मरकर पुनः उत्पन्न हुआ और उत्पन्न होकर पुनः मृत्यु को प्राप्त हुआ । जन्म ले-लेकर मैंने सहस्रों योनियों का दर्शन किया है । इस समय जन्म धारण करते ही मेरे पूर्वसंस्कार जाग उठे हैं; अतः अब मैं ऐसे कल्याणकारी साधन का अनुष्ठान करूँग, जिससे पुनः मेरा गर्भवास न हो । संसार-बन्धन को दूर करनेवाले भगवदीय तत्त्वज्ञान का मैं चिन्तन करूँगा । '
क्रमशः ......... ऐतरेय -2
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माण्डुकि कूटस्थ-सत्य को जानते हुए सर्वदा उसमें निमग्न रहते थे और उनका सांसारिक व्यवहार उनकी दोनों पत्नियों अपरा और इतरा की इच्छा और वृत्ति से प्रेरित और संचालित होता था ।
आचार्य मुण्डक की प्रकृति और प्रवृत्ति बुद्धि को शुद्ध कर इंद्रिय-मनोगम्य बुद्धि से परे के सत्य के दिग्दर्शन में संलग्न रहती थी ।
क्योंकि उन्हें लगता था कि स्वभाव से ही प्राणिमात्र की बुद्धि बहिर्मुख होने से जब तक वह अन्तर्मुख नहीं होती तब तक सत्य के लिए जिज्ञासा ही उसमें जागृत नहीं होती, इसलिए उस काल तक बुद्धि के प्रयोग से विवेक को जागृत करना ही उसके लिए उचित कार्य हो सकता है ।
मुण्डक ऋषि के असंख्य, जबकि माण्डुकि के इने-गिने ही शिष्य थे ।
माण्डुकि की पत्नी अपरा और इतरा भी परस्पर बहनें थीं ।
परा और मुण्डक की अनेक संतानें थी जो उन दोनों की ही तरह वैराग्य और परा-ज्ञानसंपन्न थीं और संसार में सुखपूर्वक गृहस्थ धर्म का आचरण कर रही थीं । उनके जीवन में सुख-दुःख आदि आते-जाते रहते थे किंतु इससे उनके मन में कभी क्लेश उत्पन्न नहीं होता था ।
वैसे तो माण्डुकि ऋषि की पत्नियों के बीच भी द्वेष या विग्रह का कोई कारण नहीं था किंतु उनकी संतानें संसार में सुख-प्राप्ति के लिए कर्म को एकमात्र साधन मानकर वेदविहित कर्म के अनुष्ठान के माध्यम से इहलोक और परलोक के सुखों के साधन में तत्पर रहती थीं । किसी परम सत्य अथवा ब्रह्मन् का विचार तक उन्हें अरुचिप्रद जान पड़ता था ।
धर्म-साधन के क्रमशः इन दो प्रकारों में ऋषि मुण्डक तथा ऋषि माण्डूकि की संतानें जीवन व्यतीत कर रही थीं ।
किंतु इन सबसे भिन्न प्रकृति थी इतरा के पुत्र ऐतरेय की जिसकी रुचि किसी विषय में प्रवृत्त ही नहीं होती थी ।
उसके पिता और पितृव्य जानते थे कि वह जटास्वामी होने से उसकी वृत्ति जटिल है, किंतु कुटिल नहीं है । और वे उसके आचरण पर कभी आक्षेप नहीं करते थे ।
जटास्वामी कभी कभी मूढवत्, और बालवत् आचरण करता दिखाई देता था किंतु उसने कभी पिशाचवत् आचरण नहीं किया इसलिए भी उसके पिता तथा पितृव्य अनुभव करते थे कि केवल प्रारब्ध-क्षय के लिए ही उसने यह जन्म लिया है ।
ऐतरेय के व्यवहार को न समझ पाने से उसकी माता प्रायः चिन्तित रहती थी कि क्या वह पूरे जीवन भर ऐसा ही अविकसित मन-बुद्धि से जीता रहेगा? क्या वह मोक्ष तो ठीक, धर्म, अर्थ और काम नामक शेष तीन पुरुषार्थों की प्राप्ति का भी प्रयास नहीं करेगा?
संकेत :
१.’इडा’ और ’इतरा’, तथा ’पिंगा’ ’पिङ्गला’ का साम्य दृष्टव्य है ।
२.’सुषुम्ना’ और ’परा’ का अर्थ-साम्य दृष्टव्य है ।
(कल्पित)
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स्कन्द-पुराण -- माहेश्वरखण्ड-कुमारिकाखण्ड
(अध्याय ३४ से उद्धृत)
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अर्जुन ने पूछा : मुने ! ऐतरेय किसके पुत्र थे? उनका निवास-स्थान कहाँ था? परम बुद्धिमान् ऐतरेय ने किस प्रकार भगवान् वासुदेव के प्रसाद से सिद्धि प्राप्त की?
नारदजी ने कहा : कुन्तीनन्दन ! यहीं मेरे द्वारा स्थापित स्थान में जो हारीत मुनि रहते थे, उन्हीं के वंश में एक श्रेष्ठ ब्राह्मण उत्पन्न हुए, जो माण्डूकि नाम से विख्यात थे । उनके ’इतरा’ नामवाली पत्नी थी, जो नारी के समस्त सद्गुणों से सुशोभित थी । उसके गर्भ से जो पुत्र हुआ, उसी का नाम ’ऐतरेय’ था । ऐतरेय बाल्यावस्था से ही निरन्तर द्वादशाक्षर मन्त्र (ॐ नमो भगवते वासुदेवाय) - का जप करता था, उसे पूर्व-जन्म में ही इस मन्त्र की शिक्षा मिली थी । वह न तो किसी की बात सुनता था, न स्वयं कुछ बोलता था और न अध्ययन ही करता था । इससे सबको यह निश्चय हो गया कि यह बालक गूँगा है । पिता ने अनेक उपायों से उसको समझाया--बोध कराया, परंतु उसने लौकिक व्यवहार में कभी मन नहीं लगाया । यह देख पिता ने भी यही निश्चय कर लिया कि यह सर्वथा जड है । तब उन्होंने पिंगा नामवाली दूसरी स्त्री से विवाह किया और उससे चार पुत्र उत्पन्न किए जो वेद-वेदाङ्गों के विद्वान् हुए ।
ऐतरेय भी प्रतिदिन तीनों समय भगवान् वासुदेव के मन्दिर में जाकर उस उत्तम मन्त्र का जाप करने लगे । वे दूसरे किसी कार्य में परिश्रम नहीं करते थे ।
एक दिन उनकी माता इतरा अपनी सौत के पुत्रों की योग्यता देखकर सन्तप्त चित्त हो अपने पुत्र से बोली
- अरे ! तू तो मुझे क्लेश देने के लिए ही पैदा हुआ ! मेरे जन्म और जीवन को धिक्कार है ! संसार में उस नारी का जन्म निश्चय ही व्यर्थ है, जो पति के द्वारा तिरस्कृत हो और जिसका पुत्र गुणवान् न हो । वत्स ! मैं बड़ी खोटे भाग्यवाली हूँ, अतः महीसागरसंगम में डूब मरूँगी । मेरा मर जाना ही अच्छा है । जीवित रहने में मुझे क्या लाभ है? मेरे मर जाने पर तू भी भगवान् का महामौनी भक्त होकर दीर्घकाल तक आनन्द भोगना ।
नारदजी कहते हैं -- माता की यह बात सुनकर ऐतरेय ठठाकर हँस पड़े । वे बड़े धर्मज्ञ थे । उन्होंने दो घड़ी भगवान् का ध्यान करके माता के चरणों में प्रणाम किया और कहा -- ’माँ ! तुम झूठे मोह में पड़ी हुई हो । अज्ञान को ही ज्ञान मान बैठी हो । शुभे ! जो शोचनीय नहीं है, उसी के लिये तुम शोक करती हो और जो वास्तव में शोचनीय है उसके लिये तुम्हारे मन में तनिक भी शोक नहीं होता । यह संसार मिथ्या है । इसमें तुम इस शरीर के लिए क्यों चिन्तित एवं मोहित हो रही हो ? यह तो मूर्खों का काम है ! तुम - जैसी विदुषी स्त्रियों को यह शोभा नहीं देता ! संसार में सारतत्त्व तो कुछ और ही है, किंतु अज्ञान से मोहित मनुष्य किसी और ही असार वस्तु को सार समझते हैं । तुम इस मानव-शरीर को यदि सार मानती हो तो लो, इसकी भी असारता सुनो ! यह जो मानव-शरीर है, यह गर्भ से लेकर मृत्युपर्यन्त सदा अत्यन्त कष्टप्रद है । यह शरीर एक प्रकार का घर है । हड्डियों का समूह ही इसके भार को सँभालनेवाला खम्भा है । नाडीजालरूपी रस्सियों से ही इसे बाँधा गया है ।रक्त और माँसरूपी मिट्टी से इसको लीपा गया है । विष्ठा और मूत्ररूपी द्रव्यों के संग्रह का यह पात्र है । केश और रोमरूपी तृण से इसको छाया गया है । सुन्दर रंग की त्वचा से इसके ऊपर रंग किया गया है । मुख ही इसका प्रधान द्वार है । दो आँख, दो कान और दो नासाछिद्र --ये ही इसके छः खिड़कियाँ हैं । दोनों ओष्ठ ही इसके द्वार को ढकनेवाले किंवाड हैं । दाँत ही अर्गला (किंवाड को बंद करनेवाली साँकल) हैं । नाडी और पसीने ही नाली और जलप्रवाह हैं । यह सदा काल की मुखाग्नि में स्थित है । ऐसे इस देहरूपी गेह (गृह) में जीव निवास करता है । इस घर में त्रिगुणमयी प्रकृति ही उसकी पत्नी है तथा क्रोध, अहंकार, काम, ईर्ष्या और लोभ आदि ही उक्त गृहस्थ की संतानें हैं । हाय ! कितने कष्ट की बात है कि जीव इस देह-गेह की मोहमाया से मूढ होकर तदनुकूल बर्ताव करता है । उसका जिस-जिस विषय में जैसे मोह होता है, वह सब बताता हूँ, सुनो । जैसे पर्वत से झरने गिरते रहते हैं, उसी प्रकार शरीर से भी कफ और मूत्र आदि बहते रहते है, उसी देह के लिए जीव मोहित होता है । विष्ठा और मूत्र से भरे हुए चर्मपात्र की भाँति यह शरीर समस्त अपवित्र वस्तुओं का भण्डार है और इसका एक प्रदेश (एक अंश) भी पवित्र नहीं है । अपने शरीर से निकले हुए मल-मूत्र आदि के जो प्रवाह हैं, उनका स्पर्श हो जाने पर मिट्टी और जल से हाथ शुद्ध किया जाता है; तथापि उन्हीं अपवित्र वस्तुओं के भण्डाररूप इस देह से न जाने क्यों मनुष्य को वैराग्य नहीं होता ? सुगन्धित तेल और जल आदि के द्वारा यत्नपूर्वक भलीभाँति संस्कार (सफाई) करने पर भी यह शरीर अपनी स्वाभाविक अपवित्रता को नहीं छोड़ता है; ठीक उसी तरह, जैसे कुत्ते की टेढ़ी पूँछ को कितना ही सीधा किया जाय, वह अपना टेढ़ापन नहीं छोड़ पाती । अपनी देह की अपवित्र गन्ध से जो मनुष्य विरक्त नहीं होता, उसे वैराग्य के लिए अन्य किस साधन का उपदेश दिया जाय ? दुर्गन्ध तथा मल-मूत्र के लेप को दूर करने के लिए ही शारीरिक शुद्धि का विधान किया गया है । इन दोनों (गन्ध और लेप) -का निवारण हो जाने के पश्चात् आन्तरिक भाव की शुद्धि होने से मनुष्य शुद्ध होता है । भाव-शुद्धि ही सबसे बढ़कर पवित्रता है । वही सब कर्मों में प्रमाणभूत है । आलिंगन पत्नी का भी किया जाता है और पुत्री का भी, परंतु दोनों में भाव का महान् अन्तर है । । प्यारी पत्नी का आलिंगन किसी और भाव से किया जाता है एवं पुत्री का दूसरे भाव से । एक ही स्त्री के स्तनों को पुत्र दूसरे भाव से स्मरण करता है और पति दूसरे भाव से । अतः अपने चित्त को ही शुद्ध करना चाहिए । बाह्य-शुद्धि के दूसरे-दूसरे साधनों से क्या लेना है ? भाव-दृष्टि से जिसका अन्तःकरण अत्यन्त शुद्ध है, वह स्वर्ग और मोक्ष को भी प्राप्त कर लेता है ।
ज्ञानरूपी निर्मल जल तथा वैराग्यरूपी मृत्तिका से ही पुरुष के अविद्या एव रागमय मल-मूत्र के लेप और दुर्गन्ध का शोधन होता है । इस प्रकार इस शरीर को स्वभावतः अशुद्ध माना गया है । जैसे केले के वृक्ष में केवल वल्कल (छाल / छल) ही सार है, उसी प्रकार इस देह में केवल त्वचामात्र सार है, वास्तव में तो यह सर्वथा निःसार है । जो बुद्धिमान् अपने शरीर को इस प्रकार दोषयुक्त जानकर उदासीन हो जाता है-- उसकी ओर से अनुराग शिथिल कर लेता है-- वही इस संसार-बन्धन से छूटकर निकल पाता है । किंतु जो दृढतापूर्वक इस शरीर को पकड़े हुए रहता है-- इसका मोह नहीं छोड़ता, वह संसार में ही पड़ा रह जाता है । इस प्रकार यह मानव-जन्म लोगों के अज्ञानदोष से तथा नाना कर्मवशात् दुःखस्वरूप और महान् कष्टप्रद बताया गया है । जैसे बड़े भारी पर्वत से दबा हुआ कोई प्राणी बड़े कष्ट से पीडित रहता है, उसी प्रकार गर्भ की झिल्ली में बँधा हुआ मनुष्य महान् कष्ट से वहाँ ठहर पाता है । जैसे समुद्र में गिरा हुआ कोई मनुष्य अत्यन्त व्याकुल होकर बड़े भारी दुःख से घिर जाता है, उसी प्रकार गर्भगत जल से भीगे हुए अंगोंवाला गर्भस्थ शिशु अत्यन्त व्याकुल रहता है । जैसे किसी को लोहे के घड़े में रखकर आग से पकाया जाता है, वैसे ही गर्भरूपी घट में डाला हुआ जीव जठरानल की आँच से पकता रहता है । यदि आग के समान दहकती हुई सुइयों से किसी को निरंतर छेदा जाय तो उसे जितनी पीड़ा हो सकती है, उससे आठ गुनी पीड़ा गर्भ में भोगनी पड़ती है । इस प्रकार स्थावर-जंगम (अचर - वनस्पति आदि / चर - शेष जीव) सभी प्राणियों को अपने-अपने गर्भ के अनुरूप यह महान् गर्भ-दुःख प्राप्त होता है; ऐसा कहा गया है ।
गर्भ में स्थित होने पर सभी को अपने-अपने पूर्वजन्मों का स्मरण हो आता है । उस समय जीव इस प्रकार सोचता है-- ’अहो ! मैं मरकर पुनः उत्पन्न हुआ और उत्पन्न होकर पुनः मृत्यु को प्राप्त हुआ । जन्म ले-लेकर मैंने सहस्रों योनियों का दर्शन किया है । इस समय जन्म धारण करते ही मेरे पूर्वसंस्कार जाग उठे हैं; अतः अब मैं ऐसे कल्याणकारी साधन का अनुष्ठान करूँग, जिससे पुनः मेरा गर्भवास न हो । संसार-बन्धन को दूर करनेवाले भगवदीय तत्त्वज्ञान का मैं चिन्तन करूँगा । '
क्रमशः ......... ऐतरेय -2
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