स्मृति और संस्कार
Location of the memory in the body:
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Introduction - In the beginning, this post was written in Hindi as is given below.
Let me summarize the same in English here :
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When 'Perception' happens the consciousness is bifurcated into the two as :
Ego / संस्कृत : एको ; and Id संस्कृत : इदं or
simply into 'I' and 'this'.
I am not going in details how this day Psychology explains this.
This 'Phenomenon' creates two poles in which lies the field of perception.
the animal mind learns through experience and an apparent pattern is worked out because repeated experiences of the similar kinds are grouped together. This is how the brain 'maps' the memory in the first instance.
In the case of animals, as they don't seem to have evolved 'thought' and 'language' that is so developed in humans, the animals learn through repeated experiences. They do create a pattern of memory also. It is only with man that he gradually learns the language of spoken words and certain meanings attached to them. Thought in us exists (really; -'takes place') in words and thought and language are interdependent. Existence of one depends on the other.
So there exists a certain mapping network in brain either associated with a corresponding mapping depending upon thought in case of man.
Animals have a limited need for learning the skills that are required to maintain their life.
Man has however a great opportunity in terms of 'knowledge' that he acquires during the life-time.
Animals, again 'learn' through play as is seen in their babies. The young-ones of mouse, cat, dog, apes, and many birds take joy in playing in their own way. Gaming too is a skill and to dodge the enemy and protect / save oneself from them too is learned by them. Even certain birds also 'learn' this way. The body 'learns' by practice and the learning is so well-synchronized with the behavior that it becomes the 'second nature'. In Sanskrit this is perhaps what is called 'संस्कार' / 'samskAra'.
Humans, in comparison have far more a broader perspective because there is a 'thought'-focused verbal memory also.
This 'संस्कार' / 'samskAra', or the acquired tendency of behaving has its use and is enough to support the life-system of a living-being.
But 'man' has the faculty of 'mind' which deals with 'thought' and so 'language' too.
This 'mind' that is essentially a psychosomatic activity naturally affects the brain-cells and also the other cells and the 'information' inducted in them can mutate them in many ways. The most of the genetic disorders may be because of this.
Summarily, a mental clinical condition and a corresponding physical / bodily clinical condition are closely inter-related and unless both are attended to together we cannot hope to recover from them.
Thought is limited to verbal form only, while emotion and feeling function through a non-verbal mode that causes and is caused by cell-chemicals and the experienced as such.
This 'medium' constantly undergoes change and alters the 'experience'.
Though there is no a censor that could govern these psychological activities, thought through imposing a sense of continuity assumes the form of such a center that is again perceived as 'me' / Ego and holds supremacy as 'thinker' separate and different from the 'thought' itself.
This division in consciousness is the root cause of conflict.
This conflict too is annihilated when attention is given to the 'fact' of 'what Is'.
Obviously, there is no-one who can undertake this task, as all deliberation is but continuity of the thought-thinker notion.
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प्रतीति से अपने (अहं) और अपने से अन्य (इदं) का साक्षात्कार होता है।
यह प्रतीति पुनरावर्ती होने पर स्मृति बनती है और यद्यपि अपने (अहं) और अपने इस अहं के बोध में कोई भेद नहीं जान पड़ता, अपने से अन्य (इदं) निरंतर परिवर्तन से गुज़रता अनुभव होता है।
इस आभासी परिवर्तनशीलता में एक क्रम (pattern) की खोज 'अनुभव' को निरंतर पुनर्परिभाषित करने लगती है। इस प्रकार मस्तिष्क तथा मस्तिष्क के माध्यम से शरीर का जैव-तंत्र निरंतर 'सीखता' है। कुछ नितांत स्थूल भौतिक प्रक्रियाएँ यांत्रिक ढंग से बार बार सटीक रीति से दुहराई जा सकती हैं जबकि जीवन की कुछ अन्य प्रक्रियाएँ सतत नई चुनौतियाँ सामने रखती हैं। सामान्यतः प्रायः सभी जैव-प्रणालियाँ शरीर की इस सीखने की क्षमता की एक सीमा तक जाकर और अधिक कुछ सीखने की आवश्यकता और संभावना से मुक्त हो जाती हैं, लेकिन मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जो 'भाषा' को 'सीखने' के साथ अधिक जटिल रीति से 'विचाऱ' के माध्यम से विभिन्न चुनौतियों का सामना करने में समर्थ होता है, और विचार के विस्तार और विकास के साथ-साथ उसका जीवन अधिक बहुआयामी, विविध संभावनाओं भरी नई चुनौतियों से रूबरू होता है।
यदि भाषा समृद्ध और विकसित न हुई हो तो 'विचार' नई चुनौतियों को न तो देख पाता है, न समझ पाता है, तो उनका सामना करना तो और दूर की बात है।
खेल की भावना मनुष्येतर प्राणियों में मनुष्य से अधिक न भी हो, तो भी भिन्न रीति से अधिक जटिल रूप में हुआ करती है। यदि आप पक्षियों, चूहे, बिल्ली, बंदर या कुत्ते के बच्चों को देखें तो प्रायः बहुत से प्राणी खेल-खेल में शिकार करना और शिकार होने से बचना सीख लेते हैं। पूरी एक रणनीति होती है हर प्राणी की जिसे वह सीख कर 'संस्कार' के रूप में स्मृति का हिस्सा बना लेता है। सामान्य परिस्थितियों में इस कौशल की एक सीमा होती है, जिस तक पहुँचने के बाद प्राणिमात्र बस उसे दुहराता रहता है। चूँकि वैचारिक भाषा अन्य प्राणियों में इतनी विकसित नहीं होती जितनी की मनुष्य में होती है, और मनुष्य समाज में रहकर धीरे-धीरे मातृभाषा और कई भाषाएँ सीख लेता है और सरल 'विचार' के क्रम से क्रमशः अधिक कठिन और दुरूह विचार-प्रणालियों की ओर बढ़ता है इसलिए उसके सामने सीखने के अनेक या असंख्य विकल्प होते हैं। वह निरंतर सीखता रह सकता है और यह 'सीखना' या तो केवल दोहराव हो सकता है, या नया आविष्कार भी हो सकता है। इस प्रकार मनुष्य 'ज्ञान' का एक ऐसा विशाल तंत्र निर्मित और विकसित कर लेता है जिसे वह 'ज्ञात' शब्द तक सीमित होने की तरह देख सकता है। इस ज्ञान में जो भी 'नया' सीखा जा सकता है वह वस्तुतः जान / सीख लिए जाने पर नया नहीं रह जाता जबकि जीवन सदा भविष्योन्मुख होने से 'अज्ञात' ही होता है। इस 'भविष्य' की असंख्य कल्पनाएँ हर मनुष्य अपने ढंग से कर सकता है लेकिन कुछ स्थूल भौतिक घटनाओं के अलावा उनमें से एक को भी वह न तो ठीक से अनुमानित या कल्पित कर सकता है और न ही वे जिस प्रकार से घटित होंगीं, इस बारे में निश्चयपूर्वक कुछ कह या देख सकता है। फिर भी बुद्धिमान से भी भी बुद्धिमान मनुष्य भी अपना 'भविष्य' 'जानने' के लिए उत्सुक होता है। शायद ही कोई ऐसा हो जो न मानता हो कि कोई आपका भविष्य न तो देख सकता है, न जान सकता है, बस किसी हद तक एक संभावना भर की तरह बता सकता है जो कभी सही तो अकसर गलत ही सिद्ध होती है। और यदि कोई आपका भविष्य जस का तस बता भी देता है तो उसे एक चमत्कार ही समझा जाता है। हाँ, अगर कोई निरंतर सत्य भविष्यवाणियाँ करने लगे, तो उसे ईश्वरतुल्य मान लिया जाता है, और तब उससे अपेक्षाएँ की जाती हैं कि वह उस भविष्य के अवाँछित को किस प्रकार बदला जा सकेगा इसका उपाय भी बतलाये। चलिए मान लिया जाए कि वह ऐसा कोई उपाय बतला भी सकता है, तो क्या इससे वह उसके द्वारा बतलाये गए 'भविष्य' को बदल सकता है? इसका जवाब, अगर 'नहीं' में है, तो उससे उपाय पूछने का कोई मतलब नहीं और अगर इसका जवाब 'हाँ' है, तो ज़ाहिर है कि उसने जो भविष्य बतलाया था वह असत्य कथन था। क्योंकि अगर वह भविष्य को 'बदल' सकता है, तो 'भविष्य' एक ऐसा अनिश्चित तत्व होगा जिसके बारे में पहले से कोई भविष्यवाणी संभव नहीं ....!
इसके और भी पहलू हैं लेकिन अभी हम मनोग्रन्थि क्या है इस पर विचार करें.
मनुष्येतर प्राणियों में जो स्मृति 'बनती' है वह तात्कालिक प्रतिक्रियाओं से व्यक्त होकर ग्रंथिरूप नहीं ले पाती, किंतु मनुष्य में किसी भी व्यावहारिक क्रिया (आचरण / बर्ताव) का मूल्यांकन होता है और तात्कालिक प्रतिक्रया संभव न होने पर 'सीखने' के रूप में 'मन' में संचित रहता है।
इसा 'सीख़ने' को शरीर जैवकोशीय रूप में मनोशारीरिक / psychosomatic रूप में जैव-कोशों में सुरक्षित कर लेता है। इस प्रकार जैव-कोश (body-cells) अनायास इस 'जानकारी' से प्रभावित होकर उत्परिवर्तित होने लगते हैं।
मनुष्य के साथ यह दुर्भाग्य है कि इस प्रकार 'सीखे' हुए व्यवहार का रूपांतरण जैव-कोशों तक जाकर मनोग्रंथि बन जाता है। मनुष्य के स्वतंत्र व्यवहार और सामाजिक-नैतिक-धार्मिक मान्यताओं के दबाव में अनेक भिन्न-भिन्न मनोग्रंथियाँ मनुष्य में बन जाती हैं और मनुष्य उनसे मुक्त नहीं हो पाता। इतना ही नहीं, यहाँ तक कि एक मनोग्रंथि को दबाने के लिए किसी अन्य नई रीति से व्यवहार करने की एक और मनोग्रंथि पैदा हो जाती है। उदाहरण के लिए भय (fear), शर्म (hesitation), बेचैनी (anxiety) का सामना करने के बजाये किसी कृत्रिम और तात्कालिक उपाय से उन्हें दबा दिया जाता है।
expression-oppression-suppression-repression -
ये चारों साथ-साथ कार्य करते हैं।
केवल मानसिक ही नहीं, मनोग्रंथिपरक याददाश्त / psychosomatic memory मूलतः कोशीय रचना को भी उत्परिवर्तित (mutate) कर सकती है इस बारे में सोचना अनुसंधान और शोध का विषय हो सकता है ।
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Location of the memory in the body:
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Introduction - In the beginning, this post was written in Hindi as is given below.
Let me summarize the same in English here :
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When 'Perception' happens the consciousness is bifurcated into the two as :
Ego / संस्कृत : एको ; and Id संस्कृत : इदं or
simply into 'I' and 'this'.
I am not going in details how this day Psychology explains this.
This 'Phenomenon' creates two poles in which lies the field of perception.
the animal mind learns through experience and an apparent pattern is worked out because repeated experiences of the similar kinds are grouped together. This is how the brain 'maps' the memory in the first instance.
In the case of animals, as they don't seem to have evolved 'thought' and 'language' that is so developed in humans, the animals learn through repeated experiences. They do create a pattern of memory also. It is only with man that he gradually learns the language of spoken words and certain meanings attached to them. Thought in us exists (really; -'takes place') in words and thought and language are interdependent. Existence of one depends on the other.
So there exists a certain mapping network in brain either associated with a corresponding mapping depending upon thought in case of man.
Animals have a limited need for learning the skills that are required to maintain their life.
Man has however a great opportunity in terms of 'knowledge' that he acquires during the life-time.
Animals, again 'learn' through play as is seen in their babies. The young-ones of mouse, cat, dog, apes, and many birds take joy in playing in their own way. Gaming too is a skill and to dodge the enemy and protect / save oneself from them too is learned by them. Even certain birds also 'learn' this way. The body 'learns' by practice and the learning is so well-synchronized with the behavior that it becomes the 'second nature'. In Sanskrit this is perhaps what is called 'संस्कार' / 'samskAra'.
Humans, in comparison have far more a broader perspective because there is a 'thought'-focused verbal memory also.
This 'संस्कार' / 'samskAra', or the acquired tendency of behaving has its use and is enough to support the life-system of a living-being.
But 'man' has the faculty of 'mind' which deals with 'thought' and so 'language' too.
This 'mind' that is essentially a psychosomatic activity naturally affects the brain-cells and also the other cells and the 'information' inducted in them can mutate them in many ways. The most of the genetic disorders may be because of this.
Summarily, a mental clinical condition and a corresponding physical / bodily clinical condition are closely inter-related and unless both are attended to together we cannot hope to recover from them.
Thought is limited to verbal form only, while emotion and feeling function through a non-verbal mode that causes and is caused by cell-chemicals and the experienced as such.
This 'medium' constantly undergoes change and alters the 'experience'.
Though there is no a censor that could govern these psychological activities, thought through imposing a sense of continuity assumes the form of such a center that is again perceived as 'me' / Ego and holds supremacy as 'thinker' separate and different from the 'thought' itself.
This division in consciousness is the root cause of conflict.
This conflict too is annihilated when attention is given to the 'fact' of 'what Is'.
Obviously, there is no-one who can undertake this task, as all deliberation is but continuity of the thought-thinker notion.
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प्रतीति से अपने (अहं) और अपने से अन्य (इदं) का साक्षात्कार होता है।
यह प्रतीति पुनरावर्ती होने पर स्मृति बनती है और यद्यपि अपने (अहं) और अपने इस अहं के बोध में कोई भेद नहीं जान पड़ता, अपने से अन्य (इदं) निरंतर परिवर्तन से गुज़रता अनुभव होता है।
इस आभासी परिवर्तनशीलता में एक क्रम (pattern) की खोज 'अनुभव' को निरंतर पुनर्परिभाषित करने लगती है। इस प्रकार मस्तिष्क तथा मस्तिष्क के माध्यम से शरीर का जैव-तंत्र निरंतर 'सीखता' है। कुछ नितांत स्थूल भौतिक प्रक्रियाएँ यांत्रिक ढंग से बार बार सटीक रीति से दुहराई जा सकती हैं जबकि जीवन की कुछ अन्य प्रक्रियाएँ सतत नई चुनौतियाँ सामने रखती हैं। सामान्यतः प्रायः सभी जैव-प्रणालियाँ शरीर की इस सीखने की क्षमता की एक सीमा तक जाकर और अधिक कुछ सीखने की आवश्यकता और संभावना से मुक्त हो जाती हैं, लेकिन मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जो 'भाषा' को 'सीखने' के साथ अधिक जटिल रीति से 'विचाऱ' के माध्यम से विभिन्न चुनौतियों का सामना करने में समर्थ होता है, और विचार के विस्तार और विकास के साथ-साथ उसका जीवन अधिक बहुआयामी, विविध संभावनाओं भरी नई चुनौतियों से रूबरू होता है।
यदि भाषा समृद्ध और विकसित न हुई हो तो 'विचार' नई चुनौतियों को न तो देख पाता है, न समझ पाता है, तो उनका सामना करना तो और दूर की बात है।
खेल की भावना मनुष्येतर प्राणियों में मनुष्य से अधिक न भी हो, तो भी भिन्न रीति से अधिक जटिल रूप में हुआ करती है। यदि आप पक्षियों, चूहे, बिल्ली, बंदर या कुत्ते के बच्चों को देखें तो प्रायः बहुत से प्राणी खेल-खेल में शिकार करना और शिकार होने से बचना सीख लेते हैं। पूरी एक रणनीति होती है हर प्राणी की जिसे वह सीख कर 'संस्कार' के रूप में स्मृति का हिस्सा बना लेता है। सामान्य परिस्थितियों में इस कौशल की एक सीमा होती है, जिस तक पहुँचने के बाद प्राणिमात्र बस उसे दुहराता रहता है। चूँकि वैचारिक भाषा अन्य प्राणियों में इतनी विकसित नहीं होती जितनी की मनुष्य में होती है, और मनुष्य समाज में रहकर धीरे-धीरे मातृभाषा और कई भाषाएँ सीख लेता है और सरल 'विचार' के क्रम से क्रमशः अधिक कठिन और दुरूह विचार-प्रणालियों की ओर बढ़ता है इसलिए उसके सामने सीखने के अनेक या असंख्य विकल्प होते हैं। वह निरंतर सीखता रह सकता है और यह 'सीखना' या तो केवल दोहराव हो सकता है, या नया आविष्कार भी हो सकता है। इस प्रकार मनुष्य 'ज्ञान' का एक ऐसा विशाल तंत्र निर्मित और विकसित कर लेता है जिसे वह 'ज्ञात' शब्द तक सीमित होने की तरह देख सकता है। इस ज्ञान में जो भी 'नया' सीखा जा सकता है वह वस्तुतः जान / सीख लिए जाने पर नया नहीं रह जाता जबकि जीवन सदा भविष्योन्मुख होने से 'अज्ञात' ही होता है। इस 'भविष्य' की असंख्य कल्पनाएँ हर मनुष्य अपने ढंग से कर सकता है लेकिन कुछ स्थूल भौतिक घटनाओं के अलावा उनमें से एक को भी वह न तो ठीक से अनुमानित या कल्पित कर सकता है और न ही वे जिस प्रकार से घटित होंगीं, इस बारे में निश्चयपूर्वक कुछ कह या देख सकता है। फिर भी बुद्धिमान से भी भी बुद्धिमान मनुष्य भी अपना 'भविष्य' 'जानने' के लिए उत्सुक होता है। शायद ही कोई ऐसा हो जो न मानता हो कि कोई आपका भविष्य न तो देख सकता है, न जान सकता है, बस किसी हद तक एक संभावना भर की तरह बता सकता है जो कभी सही तो अकसर गलत ही सिद्ध होती है। और यदि कोई आपका भविष्य जस का तस बता भी देता है तो उसे एक चमत्कार ही समझा जाता है। हाँ, अगर कोई निरंतर सत्य भविष्यवाणियाँ करने लगे, तो उसे ईश्वरतुल्य मान लिया जाता है, और तब उससे अपेक्षाएँ की जाती हैं कि वह उस भविष्य के अवाँछित को किस प्रकार बदला जा सकेगा इसका उपाय भी बतलाये। चलिए मान लिया जाए कि वह ऐसा कोई उपाय बतला भी सकता है, तो क्या इससे वह उसके द्वारा बतलाये गए 'भविष्य' को बदल सकता है? इसका जवाब, अगर 'नहीं' में है, तो उससे उपाय पूछने का कोई मतलब नहीं और अगर इसका जवाब 'हाँ' है, तो ज़ाहिर है कि उसने जो भविष्य बतलाया था वह असत्य कथन था। क्योंकि अगर वह भविष्य को 'बदल' सकता है, तो 'भविष्य' एक ऐसा अनिश्चित तत्व होगा जिसके बारे में पहले से कोई भविष्यवाणी संभव नहीं ....!
इसके और भी पहलू हैं लेकिन अभी हम मनोग्रन्थि क्या है इस पर विचार करें.
मनुष्येतर प्राणियों में जो स्मृति 'बनती' है वह तात्कालिक प्रतिक्रियाओं से व्यक्त होकर ग्रंथिरूप नहीं ले पाती, किंतु मनुष्य में किसी भी व्यावहारिक क्रिया (आचरण / बर्ताव) का मूल्यांकन होता है और तात्कालिक प्रतिक्रया संभव न होने पर 'सीखने' के रूप में 'मन' में संचित रहता है।
इसा 'सीख़ने' को शरीर जैवकोशीय रूप में मनोशारीरिक / psychosomatic रूप में जैव-कोशों में सुरक्षित कर लेता है। इस प्रकार जैव-कोश (body-cells) अनायास इस 'जानकारी' से प्रभावित होकर उत्परिवर्तित होने लगते हैं।
मनुष्य के साथ यह दुर्भाग्य है कि इस प्रकार 'सीखे' हुए व्यवहार का रूपांतरण जैव-कोशों तक जाकर मनोग्रंथि बन जाता है। मनुष्य के स्वतंत्र व्यवहार और सामाजिक-नैतिक-धार्मिक मान्यताओं के दबाव में अनेक भिन्न-भिन्न मनोग्रंथियाँ मनुष्य में बन जाती हैं और मनुष्य उनसे मुक्त नहीं हो पाता। इतना ही नहीं, यहाँ तक कि एक मनोग्रंथि को दबाने के लिए किसी अन्य नई रीति से व्यवहार करने की एक और मनोग्रंथि पैदा हो जाती है। उदाहरण के लिए भय (fear), शर्म (hesitation), बेचैनी (anxiety) का सामना करने के बजाये किसी कृत्रिम और तात्कालिक उपाय से उन्हें दबा दिया जाता है।
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ये चारों साथ-साथ कार्य करते हैं।
केवल मानसिक ही नहीं, मनोग्रंथिपरक याददाश्त / psychosomatic memory मूलतः कोशीय रचना को भी उत्परिवर्तित (mutate) कर सकती है इस बारे में सोचना अनुसंधान और शोध का विषय हो सकता है ।
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