ऐतरेय-4
बहता हुआ तिनका
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इस जीवन की समाप्ति होने पर मनुष्य अत्यन्त भयंकर मृत्यु को प्राप्त होता है। मृत्यु के बाद वह पुनः करोड़ों योनियों में जन्म ग्रहण करता है। कर्मों की गणना के अनुसार देह-भेद से जो जीव का एक शरीर से वियोग होता है, उसे 'मृत्यु' नाम दिया गया है, वास्तव में उससे जीव का विनाश नहीं होता। मृत्यु के समय महान मोह को प्राप्त हुए जीव के मर्म-स्थान जब विदीर्ण होने लगते हैं, उस दशा में उसे जो बड़ा भारी कष्ट भोगना पड़ता है, उसकी इस संसार में कहीं उपमा नहीं है। जैसे साँप मेंढक को निगल जाता है, उसी प्रकार मृत्यु जब मनुष्य को निगलने लगती है, उस समय वह हा तात ! हा मातः ! हा कान्ते ! इत्यादि रूप से पुकारता हुआ अत्यन्त दुःखी हो-होकर रोता है। भाई-बन्धुओं से साथ छूट रहा है, प्रेमीजन उसे चारों ओर से घेरकर खड़े हैं। वह सूखते हुए मुख से गरम-गरम लंबी साँस खींचता है। चारपाई पर चारों ओर बार-बार करवट बदलता है। पीड़ा से मोहित होकर बड़े वेग से इधर-उधर हाथ फेंकता है। खाट से भूमि पर और भूमि से खाट पर तथा फिर भूमि पर आना चाहता है। उसके वस्त्र खुल गए हैं, लज्जा छूट चुकी है, विष्ठा और मूत्र में सना हुआ है। कण्ठ , ओष्ठ और तालु सूख जाने के कारण बार-बार पानी माँगता है। अपने धन-वैभव के लिए इस बात की चिन्ता करता है कि मेरे मर जाने पर ये किसके हाथ पड़ेंगे। पुनः कालपाश से खींचे जाने पर उसका गला घुरघुराने लगता है और पार्श्ववर्ती लोगों के देखते-देखते मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। जैसे तृण-जलौका जल में बहते हुए तिनके के अन्त तक पहुँचकर जब दूसरा तिनका थाम लेती है, तब पहले को छोड़ देती है। उसी प्रकार जीव एक देह से दूसरी देह में क्रमशः प्रवेश करता है। भावी शरीर में अंशतः प्रवेश करके पूर्वशरीर का त्याग करता है।
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क्रमशः .. ... ... ऐतरेय-5
बहता हुआ तिनका
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इस जीवन की समाप्ति होने पर मनुष्य अत्यन्त भयंकर मृत्यु को प्राप्त होता है। मृत्यु के बाद वह पुनः करोड़ों योनियों में जन्म ग्रहण करता है। कर्मों की गणना के अनुसार देह-भेद से जो जीव का एक शरीर से वियोग होता है, उसे 'मृत्यु' नाम दिया गया है, वास्तव में उससे जीव का विनाश नहीं होता। मृत्यु के समय महान मोह को प्राप्त हुए जीव के मर्म-स्थान जब विदीर्ण होने लगते हैं, उस दशा में उसे जो बड़ा भारी कष्ट भोगना पड़ता है, उसकी इस संसार में कहीं उपमा नहीं है। जैसे साँप मेंढक को निगल जाता है, उसी प्रकार मृत्यु जब मनुष्य को निगलने लगती है, उस समय वह हा तात ! हा मातः ! हा कान्ते ! इत्यादि रूप से पुकारता हुआ अत्यन्त दुःखी हो-होकर रोता है। भाई-बन्धुओं से साथ छूट रहा है, प्रेमीजन उसे चारों ओर से घेरकर खड़े हैं। वह सूखते हुए मुख से गरम-गरम लंबी साँस खींचता है। चारपाई पर चारों ओर बार-बार करवट बदलता है। पीड़ा से मोहित होकर बड़े वेग से इधर-उधर हाथ फेंकता है। खाट से भूमि पर और भूमि से खाट पर तथा फिर भूमि पर आना चाहता है। उसके वस्त्र खुल गए हैं, लज्जा छूट चुकी है, विष्ठा और मूत्र में सना हुआ है। कण्ठ , ओष्ठ और तालु सूख जाने के कारण बार-बार पानी माँगता है। अपने धन-वैभव के लिए इस बात की चिन्ता करता है कि मेरे मर जाने पर ये किसके हाथ पड़ेंगे। पुनः कालपाश से खींचे जाने पर उसका गला घुरघुराने लगता है और पार्श्ववर्ती लोगों के देखते-देखते मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। जैसे तृण-जलौका जल में बहते हुए तिनके के अन्त तक पहुँचकर जब दूसरा तिनका थाम लेती है, तब पहले को छोड़ देती है। उसी प्रकार जीव एक देह से दूसरी देह में क्रमशः प्रवेश करता है। भावी शरीर में अंशतः प्रवेश करके पूर्वशरीर का त्याग करता है।
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