ऐतरेय -5
उद्वेग से वैराग्य ... ... ...
तदा गन्तासि निर्वेदं :
विवेकी पुरुष के लिए माँगना मृत्यु से भी अधिक दुःखदायी होता है। मृत्यु का दुःख तो क्षण भर में समाप्त हो जाता है, परंतु याचनाजनित दुःख का कभी अन्त नहीं होता। मैंने तो इस समय यह अनुभव किया है कि मृत मनुष्य जीवित रहकर याचना करनेवाले की अपेक्षा श्रेष्ठ है; क्योंकि अब वह फिर दूसरे किसी के सामने हाथ नहीं फैला सकता। तृष्णा ही लघुता का कारण है। आदि में दुःख है, मध्य में दुःख है तथा अन्त में भी दारुण दुःख प्राप्त होता है। दुःखों की यह परम्परा समस्त प्राणियों को स्वभावतः प्राप्त होती है। क्षुधा को सब रोगों से महान रोग माना गया है। वह अन्नरूपी ओषधि का लेप करने से कुछ क्षणों के लिए शान्त हो जाती है। क्षुधारूपी व्याधि की तीव्र वेदना सम्पूर्ण बल का उच्छेद करनेवाली है। जैसे अन्य रोगों से लोग मरते हैं, उसी प्रकार क्षुधा से पीड़ित होने पर भी मनुष्य की मृत्यु हो जाती है। (यदि कहें कि धन-धान्यसम्पन्न राजा सुखी होंगे तो यह भी ठीक नहीं।) राजा को केवल यह अभिमान ही होता है कि मेरे घर में इतना वैभव शोभा पा रहा है। वास्तव में तो उनका सारा आभरण भाररूप है, समस्त आलेपन-द्रव्य मलमात्र है, सम्पूर्ण संगीत-राग प्रलापमात्र है तथा नृत्य आदि भी पागलों की सी चेष्टा है। विचार-दृष्टि से देखने पर इन राज्यभोगों के द्वारा राजाओं को सुख कहाँ मिलता है? क्योंकि वे लोग तो एक-दूसरे को जीतने के लिए ही सदा चिन्तित रहते हैं। प्रायः राज्यलक्ष्मी के मद से उन्मत्त होने के कारण नहुष आदि महाराज स्वर्ग का साम्राज्य पाकर भी वहाँ से नीचे गिर गए हैं। राज्यलक्ष्मी अथवा धन-ऐश्वर्य से भला कौन सुख पाता है ? मनुष्य स्वर्गलोक में जो पुण्यफल भोगते हैं, वह अपने मूलधन को गँवाकर ही भोगते हैं; क्योंकि वहाँ वे दूसरा नवीन कर्म नहीं कर सकते। यही स्वर्ग में अत्यन्त भयंकर दोष है। जैसे वृक्ष की जड़ काट देने पर वह विवश होकर पृथ्वी पर गिर पड़ता है, उसी प्रकार पुण्यरूपी मूल का क्षय हो जाने पर स्वर्गवासी जीव पुनः पृथ्वी पर गिर पड़ते हैं। इस तरह विचारपूर्वक देखा जाय तो स्वर्ग में भी देवताओं को कोई सुख नहीं है। नरक में गए हुए पापी जीवों का दुःख तो प्रसिद्ध ही है -- उनका क्या वर्णन किया जाय। स्थावर-योनि में पड़े हुए जीवों को भी बहुत दुःख भोगने पड़ते हैं। दावानल से जलना, पाला पड़ने से गलना, धूप और हवा से सूखना, कुल्हाड़ी से काटा जाना, उनके वल्कलों (छिलकों) -का उतारा जाना, प्रचंड आँधी के वेग से पत्तों, डालियों और फलों का गिराया जाना तथा हाथियों और अन्य जंगली जन्तुओं द्वारा कुचला जाना आदि उनके लिए महान दुःख हैं।
सर्पों और बिच्छुओं को प्यास और भूख का कष्ट रहता है, उन्हें क्रोध का भी दारुण दुःख सहन करना पड़ता है। संसार में प्रायः दुष्ट साँप-बिच्छुओं को मारा जाता है, उन्हें जाल में फँसाकर बंद रखा जाता है। माताजी ! इस प्रकार उस योनि के जीवों को बारंबार कष्ट उठाना पड़ता है। कीड़े आदि का अकस्मात् जन्म होता है और अचानक ही उनकी मौत भी हो जाती है; अतः उनका दुःख भी कम नहीं है। मृगों और पक्षियों को वर्षा, सर्दी और धूप का महान कष्ट तो है ही, भूख-प्यास के भारी दुःख से भी मृग सदा संत्रस्त रहते हैं। पशु-समूह के जो दुःख हैं, उन्हें भी सुन लो। भूख-प्यास तथा सर्दी-गर्मी आदि का कष्ट सहना, मारा जाना, बन्धन में डाला जाना और डंडे आदि से पीटा जाना, नाक का छेदा जाना, चाबुक और अंकुश की मार पड़ना, आदि उनके महान क्लेश हैं। इनके अतिरिक्त बोझ ढोने का भी उन्हें बड़ा भारी कष्ट है। कार्य की शिक्षा देते समय भी उन्हें मारा पीटा जाता है, फिर युद्ध आदि की पीड़ा भी सहनी पड़ती है। अपने झुण्ड से जो उनका वियोग होता है और वे वन से जो अन्यत्र ले जाए जाते हैं -- यह सब कष्ट अलग हैं।
दुर्भिक्ष, दुर्भाग्य का प्रकोप, मूर्खता, दरिद्रता, नीच-ऊँच का भाव, मृत्यु, राष्ट्रविप्लव (एक राज्य का नाश करके दूसरे राज्य की स्थापना), पारस्परिक अपमान का दुःख, आपस में एक-दूसरे से धन-वैभव या मान-प्रतिष्ठा में बढ़ जाने का कष्ट, अपनी प्रभुता का सदा स्थिर न रहना, ऊँचे चढ़े हुए लोगों का नीचे गिराया जाना इत्यादि महान दुःखों से यह सम्पूर्ण चराचर जगत व्याप्त है। जैसे इस कंधे का भार उस कंधे पर कर देने को मनुष्य विश्राम समझता है, उसी प्रकार इस लोक में एक दुःख दूसरे दुःख से ही शान्त होता है। अतः एक-दूसरे से ऊँची स्थिति में स्थित हुए इस सम्पूर्ण जगत को दुःखों से भरा हुआ जानकर उसकी ओर से अत्यन्त उद्विग्न हो जाना चाहिए। उद्वेग से वैराग्य होता है, वैराग्य से ज्ञान प्रकट होता है तथा ज्ञान से परमात्मा विष्णु को जानकर मनुष्य मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
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टिप्पणी :
तदा गन्तासि निर्वेदं
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क्रमशः ... ... ... ऐतरेय-6
उद्वेग से वैराग्य ... ... ...
तदा गन्तासि निर्वेदं :
विवेकी पुरुष के लिए माँगना मृत्यु से भी अधिक दुःखदायी होता है। मृत्यु का दुःख तो क्षण भर में समाप्त हो जाता है, परंतु याचनाजनित दुःख का कभी अन्त नहीं होता। मैंने तो इस समय यह अनुभव किया है कि मृत मनुष्य जीवित रहकर याचना करनेवाले की अपेक्षा श्रेष्ठ है; क्योंकि अब वह फिर दूसरे किसी के सामने हाथ नहीं फैला सकता। तृष्णा ही लघुता का कारण है। आदि में दुःख है, मध्य में दुःख है तथा अन्त में भी दारुण दुःख प्राप्त होता है। दुःखों की यह परम्परा समस्त प्राणियों को स्वभावतः प्राप्त होती है। क्षुधा को सब रोगों से महान रोग माना गया है। वह अन्नरूपी ओषधि का लेप करने से कुछ क्षणों के लिए शान्त हो जाती है। क्षुधारूपी व्याधि की तीव्र वेदना सम्पूर्ण बल का उच्छेद करनेवाली है। जैसे अन्य रोगों से लोग मरते हैं, उसी प्रकार क्षुधा से पीड़ित होने पर भी मनुष्य की मृत्यु हो जाती है। (यदि कहें कि धन-धान्यसम्पन्न राजा सुखी होंगे तो यह भी ठीक नहीं।) राजा को केवल यह अभिमान ही होता है कि मेरे घर में इतना वैभव शोभा पा रहा है। वास्तव में तो उनका सारा आभरण भाररूप है, समस्त आलेपन-द्रव्य मलमात्र है, सम्पूर्ण संगीत-राग प्रलापमात्र है तथा नृत्य आदि भी पागलों की सी चेष्टा है। विचार-दृष्टि से देखने पर इन राज्यभोगों के द्वारा राजाओं को सुख कहाँ मिलता है? क्योंकि वे लोग तो एक-दूसरे को जीतने के लिए ही सदा चिन्तित रहते हैं। प्रायः राज्यलक्ष्मी के मद से उन्मत्त होने के कारण नहुष आदि महाराज स्वर्ग का साम्राज्य पाकर भी वहाँ से नीचे गिर गए हैं। राज्यलक्ष्मी अथवा धन-ऐश्वर्य से भला कौन सुख पाता है ? मनुष्य स्वर्गलोक में जो पुण्यफल भोगते हैं, वह अपने मूलधन को गँवाकर ही भोगते हैं; क्योंकि वहाँ वे दूसरा नवीन कर्म नहीं कर सकते। यही स्वर्ग में अत्यन्त भयंकर दोष है। जैसे वृक्ष की जड़ काट देने पर वह विवश होकर पृथ्वी पर गिर पड़ता है, उसी प्रकार पुण्यरूपी मूल का क्षय हो जाने पर स्वर्गवासी जीव पुनः पृथ्वी पर गिर पड़ते हैं। इस तरह विचारपूर्वक देखा जाय तो स्वर्ग में भी देवताओं को कोई सुख नहीं है। नरक में गए हुए पापी जीवों का दुःख तो प्रसिद्ध ही है -- उनका क्या वर्णन किया जाय। स्थावर-योनि में पड़े हुए जीवों को भी बहुत दुःख भोगने पड़ते हैं। दावानल से जलना, पाला पड़ने से गलना, धूप और हवा से सूखना, कुल्हाड़ी से काटा जाना, उनके वल्कलों (छिलकों) -का उतारा जाना, प्रचंड आँधी के वेग से पत्तों, डालियों और फलों का गिराया जाना तथा हाथियों और अन्य जंगली जन्तुओं द्वारा कुचला जाना आदि उनके लिए महान दुःख हैं।
सर्पों और बिच्छुओं को प्यास और भूख का कष्ट रहता है, उन्हें क्रोध का भी दारुण दुःख सहन करना पड़ता है। संसार में प्रायः दुष्ट साँप-बिच्छुओं को मारा जाता है, उन्हें जाल में फँसाकर बंद रखा जाता है। माताजी ! इस प्रकार उस योनि के जीवों को बारंबार कष्ट उठाना पड़ता है। कीड़े आदि का अकस्मात् जन्म होता है और अचानक ही उनकी मौत भी हो जाती है; अतः उनका दुःख भी कम नहीं है। मृगों और पक्षियों को वर्षा, सर्दी और धूप का महान कष्ट तो है ही, भूख-प्यास के भारी दुःख से भी मृग सदा संत्रस्त रहते हैं। पशु-समूह के जो दुःख हैं, उन्हें भी सुन लो। भूख-प्यास तथा सर्दी-गर्मी आदि का कष्ट सहना, मारा जाना, बन्धन में डाला जाना और डंडे आदि से पीटा जाना, नाक का छेदा जाना, चाबुक और अंकुश की मार पड़ना, आदि उनके महान क्लेश हैं। इनके अतिरिक्त बोझ ढोने का भी उन्हें बड़ा भारी कष्ट है। कार्य की शिक्षा देते समय भी उन्हें मारा पीटा जाता है, फिर युद्ध आदि की पीड़ा भी सहनी पड़ती है। अपने झुण्ड से जो उनका वियोग होता है और वे वन से जो अन्यत्र ले जाए जाते हैं -- यह सब कष्ट अलग हैं।
दुर्भिक्ष, दुर्भाग्य का प्रकोप, मूर्खता, दरिद्रता, नीच-ऊँच का भाव, मृत्यु, राष्ट्रविप्लव (एक राज्य का नाश करके दूसरे राज्य की स्थापना), पारस्परिक अपमान का दुःख, आपस में एक-दूसरे से धन-वैभव या मान-प्रतिष्ठा में बढ़ जाने का कष्ट, अपनी प्रभुता का सदा स्थिर न रहना, ऊँचे चढ़े हुए लोगों का नीचे गिराया जाना इत्यादि महान दुःखों से यह सम्पूर्ण चराचर जगत व्याप्त है। जैसे इस कंधे का भार उस कंधे पर कर देने को मनुष्य विश्राम समझता है, उसी प्रकार इस लोक में एक दुःख दूसरे दुःख से ही शान्त होता है। अतः एक-दूसरे से ऊँची स्थिति में स्थित हुए इस सम्पूर्ण जगत को दुःखों से भरा हुआ जानकर उसकी ओर से अत्यन्त उद्विग्न हो जाना चाहिए। उद्वेग से वैराग्य होता है, वैराग्य से ज्ञान प्रकट होता है तथा ज्ञान से परमात्मा विष्णु को जानकर मनुष्य मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
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तदा गन्तासि निर्वेदं
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क्रमशः ... ... ... ऐतरेय-6
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