अविकारी सत्ता / परिवर्तनशील संसार, - नाटक या खेल?
" The philosophy of dependent-emergence "
अर्थात् "आश्रितोद्भव दर्शन" शीर्षक से लिए गए एक प्रबुद्ध लेख में प्रोफ़ेसर दासगुप्ता कहते हैं :
"यह विश्वास कि 'वास्तविकता' / 'Reality' व्यक्त-जगत् के पीछे कहीं अवस्थित है, अनुभव के पीछे है और वस्तुओं के पारस्परिकतानिर्भर दृष्टिकोण से परे कहीं अन्यत्र है, मुझे दुराग्रहपूर्ण अंधश्रद्धा प्रतीत होता है ।"
यह वक्तव्य उन लोगों की आँखें खोलने के लिए पर्याप्त है जो यह तर्क देते हैं कि सत्य के प्रति वैराग्यपूर्ण निष्ठा और वास्तविकता की खोज के प्रति समर्पण-बुद्धि के माध्यम से हम किसी परम-विशुद्ध सत्ता की धारणा पर सिद्धान्ततः पहुँच सकते हैं, या उसके बारे में अन्तर्दृष्टि पा सकते हैं ।
यद्यपि शान्तायन एवं राधाकृष्णन् जैसे दर्शनशास्त्रियों के मध्य परस्पर अत्यन्त मतभेद हैं किन्तु फिर भी वे इस बारे में सहमत हैं कि जो लोग जगत्-अनुभव की सत्यता को स्वीकार करते हैं उन्हें यह बात अवश्य ही यह कठिन अनुभव होती होगी कि उन्हें न सिर्फ़ अपने मत को सुसंगत बनाए रखना होता है बल्कि जिस सिद्धान्त के पक्ष में वे उसका समर्थन कर रहे होते हैं, उसकी सुसंगति सिद्ध करते हुए कहीं वे यन्त्रचालित या विक्षिप्त जैसा आचरण न करने लगें यह भी याद रखना होता है । माया के सिद्धान्त पर यह आक्षेप वस्तुतः सत्य है कि इसे स्वीकार करनेवाले में वस्तुतः इस विचार की सत्यता की गहनता का अभाव होता है ।
अतः शान्तायन कहते हैं :
"हमसे यह अपेक्षा नहीं की जाती है कि हम एक स्वाभाविक संसार के विषय में अपनी अवधारणा को त्याग दें और न यह कि अपने नित्य-प्रति के जीवन में उस पर विश्वास न रखें; -हमें बस थोड़ा सा उत्तर-उत्तर-पश्चिम (नॉर्थ-नॉर्थ--वेस्ट / North-North--West; N-W-W) की ओर रुख करना होगा -- तात्पर्य यह है कि इस संसार की वास्तविकता से परे की वास्तविकता को भी स्मरण रखना होगा ... अर्थात् यदि हवा का रुख दक्षिण की ओर है तो हमें यथार्थवादी होना होगा .... जिन मतों पर मैं विश्वास नहीं करता, उनका सामना करते समय (यदि मैं उस समय सैद्धान्तिक चर्चा न कर रहा होऊँ) तो मुझे हिचक होना चाहिए ।
इसी प्रकार डॉक्टर राधाकृष्णन् भी अपनी बात कम दृढ़ता से नहीं रखते । वे भी बल देकर कहते हैं :
"अस्तित्व का रहस्य-- अविकारी वास्तविकता (immutable Reality) ’सद्वस्तु’ / ब्रह्म अपने स्वरूप में कोई परिवर्तन लाए बिना ही किस प्रकार स्वयं को परिवर्तनशील विश्व में अभिव्यक्त करती है, अपने स्वरूप को विस्मृत किए बिना ही इस प्रकार कैसे बदल जाती है, यह एक रहस्य है ऐसा कहना, एवं संपूर्ण परिवर्तनमय विश्व को मृग-मरीचिका कहकर निरस्त कर देना, ये दोनों बातें परस्पर नितांत भिन्न दो बातें हैं... । यदि हमें जीवन के खेल को खेलना है तो यह खेल नाटक-मात्र है और इसमें प्राप्त होनेवाले सारे पुरस्कार शून्यस्वरूप हैं, इस निष्ठा के साथ हम यह खेल नहीं खेल सकते । कोई भी दार्शनिक मत सुसंगतिपूर्वक इस सिद्धान्त को स्वीकार कर किसी ठोस निश्चय पर नहीं पहुँच सकता ।
--
... निरंतर ....
" The philosophy of dependent-emergence "
अर्थात् "आश्रितोद्भव दर्शन" शीर्षक से लिए गए एक प्रबुद्ध लेख में प्रोफ़ेसर दासगुप्ता कहते हैं :
"यह विश्वास कि 'वास्तविकता' / 'Reality' व्यक्त-जगत् के पीछे कहीं अवस्थित है, अनुभव के पीछे है और वस्तुओं के पारस्परिकतानिर्भर दृष्टिकोण से परे कहीं अन्यत्र है, मुझे दुराग्रहपूर्ण अंधश्रद्धा प्रतीत होता है ।"
यह वक्तव्य उन लोगों की आँखें खोलने के लिए पर्याप्त है जो यह तर्क देते हैं कि सत्य के प्रति वैराग्यपूर्ण निष्ठा और वास्तविकता की खोज के प्रति समर्पण-बुद्धि के माध्यम से हम किसी परम-विशुद्ध सत्ता की धारणा पर सिद्धान्ततः पहुँच सकते हैं, या उसके बारे में अन्तर्दृष्टि पा सकते हैं ।
यद्यपि शान्तायन एवं राधाकृष्णन् जैसे दर्शनशास्त्रियों के मध्य परस्पर अत्यन्त मतभेद हैं किन्तु फिर भी वे इस बारे में सहमत हैं कि जो लोग जगत्-अनुभव की सत्यता को स्वीकार करते हैं उन्हें यह बात अवश्य ही यह कठिन अनुभव होती होगी कि उन्हें न सिर्फ़ अपने मत को सुसंगत बनाए रखना होता है बल्कि जिस सिद्धान्त के पक्ष में वे उसका समर्थन कर रहे होते हैं, उसकी सुसंगति सिद्ध करते हुए कहीं वे यन्त्रचालित या विक्षिप्त जैसा आचरण न करने लगें यह भी याद रखना होता है । माया के सिद्धान्त पर यह आक्षेप वस्तुतः सत्य है कि इसे स्वीकार करनेवाले में वस्तुतः इस विचार की सत्यता की गहनता का अभाव होता है ।
अतः शान्तायन कहते हैं :
"हमसे यह अपेक्षा नहीं की जाती है कि हम एक स्वाभाविक संसार के विषय में अपनी अवधारणा को त्याग दें और न यह कि अपने नित्य-प्रति के जीवन में उस पर विश्वास न रखें; -हमें बस थोड़ा सा उत्तर-उत्तर-पश्चिम (नॉर्थ-नॉर्थ--वेस्ट / North-North--West; N-W-W) की ओर रुख करना होगा -- तात्पर्य यह है कि इस संसार की वास्तविकता से परे की वास्तविकता को भी स्मरण रखना होगा ... अर्थात् यदि हवा का रुख दक्षिण की ओर है तो हमें यथार्थवादी होना होगा .... जिन मतों पर मैं विश्वास नहीं करता, उनका सामना करते समय (यदि मैं उस समय सैद्धान्तिक चर्चा न कर रहा होऊँ) तो मुझे हिचक होना चाहिए ।
इसी प्रकार डॉक्टर राधाकृष्णन् भी अपनी बात कम दृढ़ता से नहीं रखते । वे भी बल देकर कहते हैं :
"अस्तित्व का रहस्य-- अविकारी वास्तविकता (immutable Reality) ’सद्वस्तु’ / ब्रह्म अपने स्वरूप में कोई परिवर्तन लाए बिना ही किस प्रकार स्वयं को परिवर्तनशील विश्व में अभिव्यक्त करती है, अपने स्वरूप को विस्मृत किए बिना ही इस प्रकार कैसे बदल जाती है, यह एक रहस्य है ऐसा कहना, एवं संपूर्ण परिवर्तनमय विश्व को मृग-मरीचिका कहकर निरस्त कर देना, ये दोनों बातें परस्पर नितांत भिन्न दो बातें हैं... । यदि हमें जीवन के खेल को खेलना है तो यह खेल नाटक-मात्र है और इसमें प्राप्त होनेवाले सारे पुरस्कार शून्यस्वरूप हैं, इस निष्ठा के साथ हम यह खेल नहीं खेल सकते । कोई भी दार्शनिक मत सुसंगतिपूर्वक इस सिद्धान्त को स्वीकार कर किसी ठोस निश्चय पर नहीं पहुँच सकता ।
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