ऐतरेय-9
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भगवान् वासुदेव बोले --
वत्स ! तुम तो संसारसागर से मुक्त ही हो | जो सदा इस अघनाशन-स्तोत्रं से इस गुप्त क्षेत्र में स्थित हुए मुझ वासुदेव का स्तवन करेगा, उसके सम्पूर्ण पापों का नाश हो जायगा। अतः यह 'अघनाशन' नाम से विख्यात होगा। जो एकादशी को उपवास करके मेरे आगे इस स्तोत्र का पाठ करेगा, वह शुद्धचित्त होकर मेरे परमधाम को प्राप्त होगा। जैसे सब क्षेत्रों में यह गुप्त क्षेत्र मुझे अधिक प्रिय है, उसी प्रकार सब स्तोत्रों में यह स्तोत्र मुझे विशेष प्रिय है। जिन प्राणियों के उद्देश्य से महात्मा पुरुष इस स्तोत्र का जप करते हैं, वे सब मेरी कृपा से शान्ति, ऐश्वर्य तथा उत्तम बुद्धि प्राप्त करेंगे , बेटा ! तुम श्रद्धापूर्वक वैदिक कर्मों का आचरण करो, उन्हें निष्काम भाव से मुझे समर्पित कर देने पर उनके द्वारा तुम्हें बन्धन नहीं प्राप्त होगा। पत्नी का पाणिग्रहण करके तुम यज्ञों द्वारा भगवान् की आराधना करो और अपनी माता की प्रसन्नता बढ़ाओ। मुझमें तीव्र ध्यान करने से निःसंदेह तुम मुझे ही प्राप्त होओगे। बुद्धि, मन, अहंकार, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और पाँच कर्मेन्द्रियाँ -- ये तेरह ग्रह हैं। बोद्धव्य, मन्तव्य, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, वचन, आदान, कर्म, गमन, मलोत्सर्ग और रतिजनित आनन्द -- ये तेरह महाग्रह हैं। बेटा ! अपने बुद्धि आदि शुद्ध (आसक्तिशून्य) ग्रहों के द्वारा मेरा ध्यान करते हुए पूर्वोक्त महाग्रहों को शुद्ध रूप में ग्रहण करो, भगवत्प्रसाद मानकर स्वीकार करो। ऐसा करने से तुम मोक्ष प्राप्त कर लोगे। वीर ! इस प्रकार भगवदर्पण बुद्धि से कर्म करने पर तुम नैष्कर्म्यभाव को प्राप्त होओगे। ठीक उसी तरह जैसे चतुर स्वर्णकार रससंसिद्ध ताँबे को सुवर्ण के रूप में उपलब्ध करता है। वर्णाश्रमोचित आचारवाला पुरुष भी यदि अपने सब कर्म मुझे समर्पित करके स्वयं मेरे ध्यान में संलग्न हो जाता है, तो उसे भी यहाँ मोक्ष दुर्लभ नहीं है। इसलिए मेरे बताये अनुसार बर्ताव करते हुए नियमपरायण होकर तुम आनन्दपूर्वक रहो। अपनी सात पीढ़ियों का उद्धार करके फिर मुझमें लीन हो जाओगे। यद्यपि वेदों का अध्ययन तुमने नहीं किया है, तो भी सम्पूर्ण वेद तुम्हारी बुद्धि में स्वयं प्रतिभासित होंगे। अब यहाँ से कोटितीर्थ में, जहाँ हरिमेधा का यज्ञ हो रहा है, जाओ। वहाँ तुम्हारी माता का सम्पूर्ण मनोरथ सफल होगा।
यों कहकर भगवान् विष्णु पुनः वासुदेव-विग्रह में ही प्रवेश कर गए। उस समय ऐतरेय की माता और ऐतरेय दोनों एकटक दृष्टि से भगवान् की ओर देख रहे थे। ततपश्चात् वासुदेव-विग्रह को नमस्कार करके विस्मय और आनन्द में निमग्न हुए ऐतरेय ने अपनी माता से कहा -- "माँ ! मैं पूर्वजन्म में शूद्र था, एक दिन सांसारिक दोषों से भयभीत हो एक धर्मनिष्ठ ब्राह्मण की शरण में गया। वे बड़े दयालु थे। उन्होंने मुझे द्वादशाक्षर मन्त्र का उपदेश दिया और कहा, 'सदा इस मन्त्र का जप किया कर।' उनकी इस आज्ञा के अनुसार मैं निरन्तर उस मन्त्र का जप करने लगा। उस जप के प्रभाव से तुम्हारे गर्भ से मेरा जन्म हुआ। मुझे पूर्वजन्म की स्मृति हुई, भगवान् विष्णु के प्रति मेरे मन में भक्ति का उदय हुआ और इस तीर्थ में सर्वदा निवास करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।" माता से ऐसा कहकर ऐतरेय यज्ञ में गए और वहाँ यह श्लोक बोले --
नमस्तस्मै भगवते विष्णवेऽकुण्ठमेधसे।
यन्मायामोहितधियो भ्रमामः कर्मसागरे।।
'जिनकी बुद्धि कहीं कुण्ठित नहीं होती तथा जिनकी माया से मोहितचित्त होकर हम लोग कर्मों के समुद्र में भटक रहे हैं, उन भगवान् विष्णु को नमस्कार है। '
इस श्लोक का आशय बहुत गंभीर है। हरिमेधा आदि ब्राह्मणों ने जब इसे सूना, तब आसन और पूजा आदि के द्वारा ऐतरेय का बहुत सत्कार किया। तत्पश्चात् ऐतरेय ने अपनी विद्या से उन वेदार्थनिपुण ब्राह्मणों को संतुष्ट किया। फिर सबने उन्हें दक्षिणा दी। हरिमेधा ने ऐतरेय को अपनी पुत्री भी दे दी। धन और पत्नी को ग्रहण करके ऐतरेय अपने घर आये। उन्होंने माता को आनन्दित किया और अनेकों निर्मल पुत्रों को जन्म दिया। ऐतरेय सदा द्वादशी व्रत का पालन करते रहे। वे अनेक यज्ञों द्वारा भगवान् का यजन करके निरन्तर वासुदेव का ध्यान किया करते थे। इससे देहत्याग के पश्चात् उन्होंने मोक्ष प्राप्त कर लिया। अर्जुन ! ऐसी महिमावाले भगवान् वासुदेव यहाँ स्वयं विराजमान हैं। जो इनकी पूजा, अर्चा और स्तुति करता है, उसका सब पुण्य अक्षय माना जाता है।
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(स्कंदपुराण, माहेश्वरखण्ड - कुमारिकाखण्ड से)
[संकेत : इतरा प्रकृति है, ऐतरेय जीव है, 'मैं' जीव भी है और परमेश्वर विष्णु भी जो कण-कण में प्रविष्ट है और कण-कण जिसमें। 'ग्रह' वह है जिसे जीव ने ग्रहण कर रखा है, जिनसे जीव का जीवन है। इसी प्रकार महाग्रह भी। जब मनुष्य इन्हें सुख-बुद्धि से नहीं बल्कि प्रसादबुद्धि से ग्रहण करता है, तब 'मैं' रूपी पुरुष / जीव 'मैं' रूपी पुरुषोत्तम को जान लेता है। ताँबे को रससंसिद्ध (शुद्ध किए गए पारद से संस्कारित ) किए जाने पर वह स्वर्ण बन जाता है। यह आधिभौतिक और आधिदैविक तथ्य है। इसे ही अल्केमी कहा जाता है। किंतु यहाँ पेंच यह है की जो बुद्धि लोभवश ताँबे को स्वर्ण बनाना चाहती है वह स्वयं ही अशुद्ध पारद है। वह बुद्धि जो लोभरहित होकर केवल प्राप्त हुए कर्म के अनुष्ठान की भावना से यही कार्य करती है वह शुद्ध पारद है। कोटितीर्थ कोटि-कोटि जीव रुपी तीर्थ हैं। 'द्वादशी' द्वादशाक्षर मन्त्र -- "ॐ नमो भगवते वासुदेवाय " का प्रयोग-काल है।
गुप्त-क्षेत्र 'हृदय' है, जैसा कि गीता में कहा गया है :
अध्याय 18, श्लोक 61,
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति ।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया ॥
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(ईश्वरः सर्वभूतानाम् हृद्देशे अर्जुन तिष्ठति ।
भ्रामयन् सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया ॥)
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भावार्थ :
हे अर्जुन! ईश्वर, देहरूपी यन्त्र में आरूढ हुए सम्पूर्ण प्राणियों के हृदय में अवस्थित होकर उन्हें अपनी माया के द्वारा परिचालित करता है ।
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अध्याय 6, श्लोक 29,
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ॥
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(सर्वभूतस्थम् आत्मानम् सर्वभूतानि च आत्मनि ।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ॥)
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भावार्थ :
जो सम्पूर्ण भूतों में एक ही आत्मा (अर्थात् अपने-आप) को तथा सम्पूर्ण भूतों को एक ही आत्मा (अर्थात् अपने-आप) में देखता है, इस प्रकार से योग में स्थित हुआ सर्वत्र विद्यमान और एक समान एक ही तत्व का दर्शन करता है ।
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हरिमेधा - ईश्वरविषयक बुद्धि है। हरिमेधा की पुत्री ईश्वरभक्ति है, जो ऐतरेय को प्राप्त हुई।
इस प्रकार स्कंदपुराण का यह प्रकरण प्रतीकात्मक रूप से, इतिहास तथा व्यावहारिक स्तर पर भी अनुष्ठेय कर्म का दिग्दर्शन है। ]
ऐतरेय, माण्डूकि और मुण्डक ऋषियों की परंपरा ही ऐतरेय, माण्डूक्य और मुण्डक उपनिषदों के रूप में ईश्वरीय नित्य-वाणी है।
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
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भगवान् वासुदेव बोले --
वत्स ! तुम तो संसारसागर से मुक्त ही हो | जो सदा इस अघनाशन-स्तोत्रं से इस गुप्त क्षेत्र में स्थित हुए मुझ वासुदेव का स्तवन करेगा, उसके सम्पूर्ण पापों का नाश हो जायगा। अतः यह 'अघनाशन' नाम से विख्यात होगा। जो एकादशी को उपवास करके मेरे आगे इस स्तोत्र का पाठ करेगा, वह शुद्धचित्त होकर मेरे परमधाम को प्राप्त होगा। जैसे सब क्षेत्रों में यह गुप्त क्षेत्र मुझे अधिक प्रिय है, उसी प्रकार सब स्तोत्रों में यह स्तोत्र मुझे विशेष प्रिय है। जिन प्राणियों के उद्देश्य से महात्मा पुरुष इस स्तोत्र का जप करते हैं, वे सब मेरी कृपा से शान्ति, ऐश्वर्य तथा उत्तम बुद्धि प्राप्त करेंगे , बेटा ! तुम श्रद्धापूर्वक वैदिक कर्मों का आचरण करो, उन्हें निष्काम भाव से मुझे समर्पित कर देने पर उनके द्वारा तुम्हें बन्धन नहीं प्राप्त होगा। पत्नी का पाणिग्रहण करके तुम यज्ञों द्वारा भगवान् की आराधना करो और अपनी माता की प्रसन्नता बढ़ाओ। मुझमें तीव्र ध्यान करने से निःसंदेह तुम मुझे ही प्राप्त होओगे। बुद्धि, मन, अहंकार, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और पाँच कर्मेन्द्रियाँ -- ये तेरह ग्रह हैं। बोद्धव्य, मन्तव्य, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, वचन, आदान, कर्म, गमन, मलोत्सर्ग और रतिजनित आनन्द -- ये तेरह महाग्रह हैं। बेटा ! अपने बुद्धि आदि शुद्ध (आसक्तिशून्य) ग्रहों के द्वारा मेरा ध्यान करते हुए पूर्वोक्त महाग्रहों को शुद्ध रूप में ग्रहण करो, भगवत्प्रसाद मानकर स्वीकार करो। ऐसा करने से तुम मोक्ष प्राप्त कर लोगे। वीर ! इस प्रकार भगवदर्पण बुद्धि से कर्म करने पर तुम नैष्कर्म्यभाव को प्राप्त होओगे। ठीक उसी तरह जैसे चतुर स्वर्णकार रससंसिद्ध ताँबे को सुवर्ण के रूप में उपलब्ध करता है। वर्णाश्रमोचित आचारवाला पुरुष भी यदि अपने सब कर्म मुझे समर्पित करके स्वयं मेरे ध्यान में संलग्न हो जाता है, तो उसे भी यहाँ मोक्ष दुर्लभ नहीं है। इसलिए मेरे बताये अनुसार बर्ताव करते हुए नियमपरायण होकर तुम आनन्दपूर्वक रहो। अपनी सात पीढ़ियों का उद्धार करके फिर मुझमें लीन हो जाओगे। यद्यपि वेदों का अध्ययन तुमने नहीं किया है, तो भी सम्पूर्ण वेद तुम्हारी बुद्धि में स्वयं प्रतिभासित होंगे। अब यहाँ से कोटितीर्थ में, जहाँ हरिमेधा का यज्ञ हो रहा है, जाओ। वहाँ तुम्हारी माता का सम्पूर्ण मनोरथ सफल होगा।
यों कहकर भगवान् विष्णु पुनः वासुदेव-विग्रह में ही प्रवेश कर गए। उस समय ऐतरेय की माता और ऐतरेय दोनों एकटक दृष्टि से भगवान् की ओर देख रहे थे। ततपश्चात् वासुदेव-विग्रह को नमस्कार करके विस्मय और आनन्द में निमग्न हुए ऐतरेय ने अपनी माता से कहा -- "माँ ! मैं पूर्वजन्म में शूद्र था, एक दिन सांसारिक दोषों से भयभीत हो एक धर्मनिष्ठ ब्राह्मण की शरण में गया। वे बड़े दयालु थे। उन्होंने मुझे द्वादशाक्षर मन्त्र का उपदेश दिया और कहा, 'सदा इस मन्त्र का जप किया कर।' उनकी इस आज्ञा के अनुसार मैं निरन्तर उस मन्त्र का जप करने लगा। उस जप के प्रभाव से तुम्हारे गर्भ से मेरा जन्म हुआ। मुझे पूर्वजन्म की स्मृति हुई, भगवान् विष्णु के प्रति मेरे मन में भक्ति का उदय हुआ और इस तीर्थ में सर्वदा निवास करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।" माता से ऐसा कहकर ऐतरेय यज्ञ में गए और वहाँ यह श्लोक बोले --
नमस्तस्मै भगवते विष्णवेऽकुण्ठमेधसे।
यन्मायामोहितधियो भ्रमामः कर्मसागरे।।
'जिनकी बुद्धि कहीं कुण्ठित नहीं होती तथा जिनकी माया से मोहितचित्त होकर हम लोग कर्मों के समुद्र में भटक रहे हैं, उन भगवान् विष्णु को नमस्कार है। '
इस श्लोक का आशय बहुत गंभीर है। हरिमेधा आदि ब्राह्मणों ने जब इसे सूना, तब आसन और पूजा आदि के द्वारा ऐतरेय का बहुत सत्कार किया। तत्पश्चात् ऐतरेय ने अपनी विद्या से उन वेदार्थनिपुण ब्राह्मणों को संतुष्ट किया। फिर सबने उन्हें दक्षिणा दी। हरिमेधा ने ऐतरेय को अपनी पुत्री भी दे दी। धन और पत्नी को ग्रहण करके ऐतरेय अपने घर आये। उन्होंने माता को आनन्दित किया और अनेकों निर्मल पुत्रों को जन्म दिया। ऐतरेय सदा द्वादशी व्रत का पालन करते रहे। वे अनेक यज्ञों द्वारा भगवान् का यजन करके निरन्तर वासुदेव का ध्यान किया करते थे। इससे देहत्याग के पश्चात् उन्होंने मोक्ष प्राप्त कर लिया। अर्जुन ! ऐसी महिमावाले भगवान् वासुदेव यहाँ स्वयं विराजमान हैं। जो इनकी पूजा, अर्चा और स्तुति करता है, उसका सब पुण्य अक्षय माना जाता है।
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(स्कंदपुराण, माहेश्वरखण्ड - कुमारिकाखण्ड से)
[संकेत : इतरा प्रकृति है, ऐतरेय जीव है, 'मैं' जीव भी है और परमेश्वर विष्णु भी जो कण-कण में प्रविष्ट है और कण-कण जिसमें। 'ग्रह' वह है जिसे जीव ने ग्रहण कर रखा है, जिनसे जीव का जीवन है। इसी प्रकार महाग्रह भी। जब मनुष्य इन्हें सुख-बुद्धि से नहीं बल्कि प्रसादबुद्धि से ग्रहण करता है, तब 'मैं' रूपी पुरुष / जीव 'मैं' रूपी पुरुषोत्तम को जान लेता है। ताँबे को रससंसिद्ध (शुद्ध किए गए पारद से संस्कारित ) किए जाने पर वह स्वर्ण बन जाता है। यह आधिभौतिक और आधिदैविक तथ्य है। इसे ही अल्केमी कहा जाता है। किंतु यहाँ पेंच यह है की जो बुद्धि लोभवश ताँबे को स्वर्ण बनाना चाहती है वह स्वयं ही अशुद्ध पारद है। वह बुद्धि जो लोभरहित होकर केवल प्राप्त हुए कर्म के अनुष्ठान की भावना से यही कार्य करती है वह शुद्ध पारद है। कोटितीर्थ कोटि-कोटि जीव रुपी तीर्थ हैं। 'द्वादशी' द्वादशाक्षर मन्त्र -- "ॐ नमो भगवते वासुदेवाय " का प्रयोग-काल है।
गुप्त-क्षेत्र 'हृदय' है, जैसा कि गीता में कहा गया है :
अध्याय 18, श्लोक 61,
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति ।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया ॥
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(ईश्वरः सर्वभूतानाम् हृद्देशे अर्जुन तिष्ठति ।
भ्रामयन् सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया ॥)
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भावार्थ :
हे अर्जुन! ईश्वर, देहरूपी यन्त्र में आरूढ हुए सम्पूर्ण प्राणियों के हृदय में अवस्थित होकर उन्हें अपनी माया के द्वारा परिचालित करता है ।
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अध्याय 6, श्लोक 29,
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ॥
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(सर्वभूतस्थम् आत्मानम् सर्वभूतानि च आत्मनि ।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ॥)
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भावार्थ :
जो सम्पूर्ण भूतों में एक ही आत्मा (अर्थात् अपने-आप) को तथा सम्पूर्ण भूतों को एक ही आत्मा (अर्थात् अपने-आप) में देखता है, इस प्रकार से योग में स्थित हुआ सर्वत्र विद्यमान और एक समान एक ही तत्व का दर्शन करता है ।
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हरिमेधा - ईश्वरविषयक बुद्धि है। हरिमेधा की पुत्री ईश्वरभक्ति है, जो ऐतरेय को प्राप्त हुई।
इस प्रकार स्कंदपुराण का यह प्रकरण प्रतीकात्मक रूप से, इतिहास तथा व्यावहारिक स्तर पर भी अनुष्ठेय कर्म का दिग्दर्शन है। ]
ऐतरेय, माण्डूकि और मुण्डक ऋषियों की परंपरा ही ऐतरेय, माण्डूक्य और मुण्डक उपनिषदों के रूप में ईश्वरीय नित्य-वाणी है।
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
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