ऐतरेय-7
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इतरा का यश
माँ ! मैं ग्रहण किए हुए व्रत को धारण करने की इच्छा रखकर यहाँ ब्रह्मचर्य का आचरण करता हूँ। इस ब्रह्मचर्य में ब्रह्म ही समिधा, ब्रह्म ही अग्नि तथा ब्रह्म ही कुशास्तरण हैं । जल भी ब्रह्म हैं और गुरु भी ब्रह्म ही हैं -- यही मेरा ब्रह्मचर्य है। विद्वान पुरुष इसी को सूक्ष्म ब्रह्मचर्य मानते हैं। अब मेरे गुरु का परिचय सुनो, जिन्होंने मुझे विद्या प्रदान की है। एक ही शिक्षक हैं, दूसरा कोई शिक्षक नहीं है। हृदय में विराजमान अन्तर्यामी पुरुष ही शिक्षक होकर शिक्षा देता है। उसी से प्रेरित होकर मैं झरने से बहकर जानेवाले जल की भाँति जहाँ जिस कार्य में नियुक्त होता हूँ, वहाँ वैसा ही करता हूँ। *एक ही गुरु हैं, उनके सिवा दूसरा कोई गुरु नहीं है। जो हृदय में विराजमान हैं, वे ही गुरु हैं, उनको मैं प्रणाम करता हूँ। उन्हीं गुरुस्वरूप भगवान मुकुन्द की अवहेलना करके सम्पूर्ण दानव पराभव को प्राप्त हुए हैं।
(*एको गुरुर्नास्ति ततो द्वितीयो यो हृद्गतस्तमहं वै नमामि।
पञ्चावमन्यैव गुरुं मुकुन्दं पराभूता दानवास्सर्व एव।।)
एक ही बन्धु है, उसके सिवा दूसरा बन्धु नहीं है। जो हृदय में विराजमान है, वह परमात्मा ही बन्धु है, मैं उसे नमस्कार करता हूँ। उसी से शिक्षा प्राप्त करके सात बन्धुमान् भाई सप्तर्षि आकाश में प्रकाशित हो रहे हैं। ऐसे ही ब्रह्मचर्य का भलीभाँति सेवन करना चाहिए। अब मेरा गार्हस्थ्य कैसा है, यह भी सुन लो ! माताजी ! प्रकृति ही मेरी पत्नी है, किन्तु मैं कभी उसका चिन्तन नहीं करता; वही सदा मेरा चिंतन किया करती है। वह मेरे सब प्रयोजनों को सिद्ध करनेवाली है। नासिका, जिह्वा, नेत्र, त्वचा, कान, मन तथा बुद्धि-- यह सात प्रकार की अग्नि सदा मेरी अग्निशाला में प्रज्वलित होती रहती हैं। ( तुलना : ऋग्वेद : सप्तयह्वी। ) गन्ध, रस, रूप, शब्द, स्पर्श, मन्तव्य और बोद्धव्य -- ये ही सात मेरी समिधाएँ हैं। होता (हवन करनेवाला) भी नारायण हैं और ध्यान से साक्षात् नारायण ही उपस्थित हो उस हविष्य का उपयोग भी करते हैं। ऐसे यज्ञ द्वारा मैं अपनी इस गृहस्थी में उन परमेश्वर विष्णु का यजन (आराधन) करता हूँ। किसी भी वस्तु की कामना नहीं रखता, तथापि मेरे सम्पूर्ण काम स्वतःसिद्ध हैं। मैं सांसारिक सम्पूर्ण दोषों से द्वेष नहीं करता, तथापि कोई भी दोष मुझमें प्रकट नहीं होता ! जैसे कमल के पत्ते पर जल की बूँद का लेप नहीं होता, उसी प्रकार मेरा स्वभाव राग-द्वेष आदि से लिप्त नहीं होता। मैं नित्य हूँ, बहुतों के स्वभावों का साक्षी हूँ, अनित्य भोग मुझ पर अपना प्रभाव नहीं डाल सकते। जैसे सूर्य की किरणें आकाश में लिप्त नहीं होतीं, वैसे ही मेरे भगवदर्थ किए गए निष्काम कर्मों में भोगसमूह नहीं लिप्त होते (मेरे कर्मों का फल भोग-सामग्री के रूप में नहीं उपस्थित होता, वे कर्म तो भगवत्प्राप्ति करानेवाले होते हैं), माता ! ऐसे मुझ पुत्र से तुम दुःखी न होओ । मैं तुम्हें उस पद पर पहुँचाऊँगा, जहाँ सैकड़ों यज्ञ करके भी पहुँचना असंभव है।'
अपने पुत्र की यह बात सुनकर इतरा को बड़ा विस्मय हुआ। वह सोचने लगी, अहो ! यदि मेरा पुत्र ऐसा दृढ़निष्ठावाला विद्वान् है, तब तो संसार में जब इसकी ख्याति होगी, उस समय मेरा भी महान यश फैलेगा। '
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क्रमशः ... ... ... ऐतरेय-8 .
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इतरा का यश
माँ ! मैं ग्रहण किए हुए व्रत को धारण करने की इच्छा रखकर यहाँ ब्रह्मचर्य का आचरण करता हूँ। इस ब्रह्मचर्य में ब्रह्म ही समिधा, ब्रह्म ही अग्नि तथा ब्रह्म ही कुशास्तरण हैं । जल भी ब्रह्म हैं और गुरु भी ब्रह्म ही हैं -- यही मेरा ब्रह्मचर्य है। विद्वान पुरुष इसी को सूक्ष्म ब्रह्मचर्य मानते हैं। अब मेरे गुरु का परिचय सुनो, जिन्होंने मुझे विद्या प्रदान की है। एक ही शिक्षक हैं, दूसरा कोई शिक्षक नहीं है। हृदय में विराजमान अन्तर्यामी पुरुष ही शिक्षक होकर शिक्षा देता है। उसी से प्रेरित होकर मैं झरने से बहकर जानेवाले जल की भाँति जहाँ जिस कार्य में नियुक्त होता हूँ, वहाँ वैसा ही करता हूँ। *एक ही गुरु हैं, उनके सिवा दूसरा कोई गुरु नहीं है। जो हृदय में विराजमान हैं, वे ही गुरु हैं, उनको मैं प्रणाम करता हूँ। उन्हीं गुरुस्वरूप भगवान मुकुन्द की अवहेलना करके सम्पूर्ण दानव पराभव को प्राप्त हुए हैं।
(*एको गुरुर्नास्ति ततो द्वितीयो यो हृद्गतस्तमहं वै नमामि।
पञ्चावमन्यैव गुरुं मुकुन्दं पराभूता दानवास्सर्व एव।।)
एक ही बन्धु है, उसके सिवा दूसरा बन्धु नहीं है। जो हृदय में विराजमान है, वह परमात्मा ही बन्धु है, मैं उसे नमस्कार करता हूँ। उसी से शिक्षा प्राप्त करके सात बन्धुमान् भाई सप्तर्षि आकाश में प्रकाशित हो रहे हैं। ऐसे ही ब्रह्मचर्य का भलीभाँति सेवन करना चाहिए। अब मेरा गार्हस्थ्य कैसा है, यह भी सुन लो ! माताजी ! प्रकृति ही मेरी पत्नी है, किन्तु मैं कभी उसका चिन्तन नहीं करता; वही सदा मेरा चिंतन किया करती है। वह मेरे सब प्रयोजनों को सिद्ध करनेवाली है। नासिका, जिह्वा, नेत्र, त्वचा, कान, मन तथा बुद्धि-- यह सात प्रकार की अग्नि सदा मेरी अग्निशाला में प्रज्वलित होती रहती हैं। ( तुलना : ऋग्वेद : सप्तयह्वी। ) गन्ध, रस, रूप, शब्द, स्पर्श, मन्तव्य और बोद्धव्य -- ये ही सात मेरी समिधाएँ हैं। होता (हवन करनेवाला) भी नारायण हैं और ध्यान से साक्षात् नारायण ही उपस्थित हो उस हविष्य का उपयोग भी करते हैं। ऐसे यज्ञ द्वारा मैं अपनी इस गृहस्थी में उन परमेश्वर विष्णु का यजन (आराधन) करता हूँ। किसी भी वस्तु की कामना नहीं रखता, तथापि मेरे सम्पूर्ण काम स्वतःसिद्ध हैं। मैं सांसारिक सम्पूर्ण दोषों से द्वेष नहीं करता, तथापि कोई भी दोष मुझमें प्रकट नहीं होता ! जैसे कमल के पत्ते पर जल की बूँद का लेप नहीं होता, उसी प्रकार मेरा स्वभाव राग-द्वेष आदि से लिप्त नहीं होता। मैं नित्य हूँ, बहुतों के स्वभावों का साक्षी हूँ, अनित्य भोग मुझ पर अपना प्रभाव नहीं डाल सकते। जैसे सूर्य की किरणें आकाश में लिप्त नहीं होतीं, वैसे ही मेरे भगवदर्थ किए गए निष्काम कर्मों में भोगसमूह नहीं लिप्त होते (मेरे कर्मों का फल भोग-सामग्री के रूप में नहीं उपस्थित होता, वे कर्म तो भगवत्प्राप्ति करानेवाले होते हैं), माता ! ऐसे मुझ पुत्र से तुम दुःखी न होओ । मैं तुम्हें उस पद पर पहुँचाऊँगा, जहाँ सैकड़ों यज्ञ करके भी पहुँचना असंभव है।'
अपने पुत्र की यह बात सुनकर इतरा को बड़ा विस्मय हुआ। वह सोचने लगी, अहो ! यदि मेरा पुत्र ऐसा दृढ़निष्ठावाला विद्वान् है, तब तो संसार में जब इसकी ख्याति होगी, उस समय मेरा भी महान यश फैलेगा। '
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क्रमशः ... ... ... ऐतरेय-8 .
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