संमोहन, आत्म-संमोहन और रहस्यदर्शी (तत्वज्ञ)
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इस प्रकार से रहस्यदर्शी ऋषि का आगम / आप्त-प्रमाण सर्वथा भिन्न प्रकार का होता है । विभिन्न मतवाद उसके लिए उन छोटे-छोटे दर्पणों जैसे होते हैं जिनमें उसके स्वानुभूति रूपी सूर्य के अनेक प्रतिबिंब झलकते हैं । रहस्यदर्शी, तत्वदर्शी ऋषि के बारे में हम तब तक किसी ठोस निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सकते, -तब तक उसे अंशतः भी समझ पाने की आशा तक नहीं कर सकते जब तक कि हम अपने-आपमें नयी और सूक्ष्मतर संवेदनगम्यता नहीं पैदा कर लेते । किंतु हम यह अवश्य कर सकते हैं कि रहस्यवाद से जुड़ी सारी जानकारियों की अपनी अल्प या अधिक क्षमतायुक्त तर्कनिष्पत्ति के माध्यम से परीक्षा करें और उनसे कोई सारतत्व निकालें, ताकि हममें आशा का संचार हो । क्योंकि यदि हम ऐसा नहीं करते, और यदि प्रतीतियों से परे कहीं कोई सत्य होता हो तो उस सत्य के खोज के मार्ग की ही इति हो जाएगी । नाभिकीय-भौतिकी (Nuclear Physics) के अन्तर्गत शोधकर्ता का सामना एक ऐसी दीवाल से होता है जो अज्ञेय है और उस अज्ञेय दीवाल से पार पदार्थ की वास्तविकता तक पहुँचने से उसे यह दीवाल रोकती है । क्योंकि निरीक्षण करने का कार्य ही, जिसका निरीक्षण किया जा रहा होता है, उस व्यवहार (निरीक्षण observation) की आधारभूत परम-इकाई को ही रूपान्तरित कर देता है, -क्योंकि यदि ऐसा न हो तो काल के अन्तर्गत होनेवाली कण (particle) की पहचान संभव ही न होगी । ठीक इसी प्रकार, विचार केवल पारस्परिक प्रक्रियाओं की जटिलता का रहस्य ही खोल सकता है, वह कभी परम सत्ता का रहस्य नहीं खोल सकता, उसे अनावरित नहीं कर सकता । क्योंकि विचार स्वयं भी उस परम सत्ता के अन्तर्गत ही अस्तित्वमान है, जिसके लिए समस्त प्रक्रियाएँ सापेक्ष / गौण महत्व की हैं ।
जिन्होंने मनःसृजित सुरक्षात्मकता की चिन्ता से ग्रस्त होने से अपने-आपमें संवेदनशून्यता पैदा कर रखी होती है, केवल उन्हीं के अतिरिक्त, प्रायः हर मनुष्य के लिए इस बारे में निर्भ्रान्त होने हेतु थोड़ा सा अध्ययन कर लेना ही पर्याप्त होगा कि किन्हीं भी ज्ञात वैज्ञानिक परिकल्पनाओं के सन्दर्भ का आधार लेकर उनकी सहायता से रहस्यवाद से संबंधित विषयों को व्याख्यायित किया जाना असंभव है । संमोहन hypnosis, आत्म-संमोहन self-hypnosis, परा-मनोविज्ञान Para-Psychology, अन्तःस्रावी ग्रन्थियों / endocrine glands से पैदा होनेवाले भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक प्रभावों तथा दोहरे (स्प्लिट-पर्सनैलिटी split personality, schizophrenic) आचरण आदि सभी के बारे में यह कहा जा सकता है कि वे परिकल्पनाएँ अभी भी किसी अंतिम निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सकी हैं, और अपरिपक्व तथा अपर्याप्त सिद्ध हो रही हैं । क्योंकि रहस्यवाद या तत्वदर्शन का विषय जहाँ एक ओर अनेक शताब्दियों के सुदीर्घ अंतराल के विस्तार में फैला हुआ है, वहीं इसके दूसरे आयाम में संपूर्ण जगत् का विस्तार भी समाया है । केवल किसी विक्षिप्त मानस वाले व्यक्ति के लिए ही नहीं बल्कि सर्वाधिक स्पष्टतायुक्त, विवेकशील और तर्कनिष्णात व्यक्तियों के लिए भी, (यदि वे सत्य की जड़ तक न गए हों) यह संभव नहीं कि ये विषय, रहस्यवाद के सत्य, अनुपम और बिरले अन्तःकरण के रूपान्तरण-सहित पुनः पुनः एक ही भाँति उनके जीवन में प्रकट होते रह सकें ।
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इस प्रकार से रहस्यदर्शी ऋषि का आगम / आप्त-प्रमाण सर्वथा भिन्न प्रकार का होता है । विभिन्न मतवाद उसके लिए उन छोटे-छोटे दर्पणों जैसे होते हैं जिनमें उसके स्वानुभूति रूपी सूर्य के अनेक प्रतिबिंब झलकते हैं । रहस्यदर्शी, तत्वदर्शी ऋषि के बारे में हम तब तक किसी ठोस निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सकते, -तब तक उसे अंशतः भी समझ पाने की आशा तक नहीं कर सकते जब तक कि हम अपने-आपमें नयी और सूक्ष्मतर संवेदनगम्यता नहीं पैदा कर लेते । किंतु हम यह अवश्य कर सकते हैं कि रहस्यवाद से जुड़ी सारी जानकारियों की अपनी अल्प या अधिक क्षमतायुक्त तर्कनिष्पत्ति के माध्यम से परीक्षा करें और उनसे कोई सारतत्व निकालें, ताकि हममें आशा का संचार हो । क्योंकि यदि हम ऐसा नहीं करते, और यदि प्रतीतियों से परे कहीं कोई सत्य होता हो तो उस सत्य के खोज के मार्ग की ही इति हो जाएगी । नाभिकीय-भौतिकी (Nuclear Physics) के अन्तर्गत शोधकर्ता का सामना एक ऐसी दीवाल से होता है जो अज्ञेय है और उस अज्ञेय दीवाल से पार पदार्थ की वास्तविकता तक पहुँचने से उसे यह दीवाल रोकती है । क्योंकि निरीक्षण करने का कार्य ही, जिसका निरीक्षण किया जा रहा होता है, उस व्यवहार (निरीक्षण observation) की आधारभूत परम-इकाई को ही रूपान्तरित कर देता है, -क्योंकि यदि ऐसा न हो तो काल के अन्तर्गत होनेवाली कण (particle) की पहचान संभव ही न होगी । ठीक इसी प्रकार, विचार केवल पारस्परिक प्रक्रियाओं की जटिलता का रहस्य ही खोल सकता है, वह कभी परम सत्ता का रहस्य नहीं खोल सकता, उसे अनावरित नहीं कर सकता । क्योंकि विचार स्वयं भी उस परम सत्ता के अन्तर्गत ही अस्तित्वमान है, जिसके लिए समस्त प्रक्रियाएँ सापेक्ष / गौण महत्व की हैं ।
जिन्होंने मनःसृजित सुरक्षात्मकता की चिन्ता से ग्रस्त होने से अपने-आपमें संवेदनशून्यता पैदा कर रखी होती है, केवल उन्हीं के अतिरिक्त, प्रायः हर मनुष्य के लिए इस बारे में निर्भ्रान्त होने हेतु थोड़ा सा अध्ययन कर लेना ही पर्याप्त होगा कि किन्हीं भी ज्ञात वैज्ञानिक परिकल्पनाओं के सन्दर्भ का आधार लेकर उनकी सहायता से रहस्यवाद से संबंधित विषयों को व्याख्यायित किया जाना असंभव है । संमोहन hypnosis, आत्म-संमोहन self-hypnosis, परा-मनोविज्ञान Para-Psychology, अन्तःस्रावी ग्रन्थियों / endocrine glands से पैदा होनेवाले भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक प्रभावों तथा दोहरे (स्प्लिट-पर्सनैलिटी split personality, schizophrenic) आचरण आदि सभी के बारे में यह कहा जा सकता है कि वे परिकल्पनाएँ अभी भी किसी अंतिम निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सकी हैं, और अपरिपक्व तथा अपर्याप्त सिद्ध हो रही हैं । क्योंकि रहस्यवाद या तत्वदर्शन का विषय जहाँ एक ओर अनेक शताब्दियों के सुदीर्घ अंतराल के विस्तार में फैला हुआ है, वहीं इसके दूसरे आयाम में संपूर्ण जगत् का विस्तार भी समाया है । केवल किसी विक्षिप्त मानस वाले व्यक्ति के लिए ही नहीं बल्कि सर्वाधिक स्पष्टतायुक्त, विवेकशील और तर्कनिष्णात व्यक्तियों के लिए भी, (यदि वे सत्य की जड़ तक न गए हों) यह संभव नहीं कि ये विषय, रहस्यवाद के सत्य, अनुपम और बिरले अन्तःकरण के रूपान्तरण-सहित पुनः पुनः एक ही भाँति उनके जीवन में प्रकट होते रह सकें ।
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.... निरंतर .....
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