ऐतरेय-6
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अविद्या-वन
माँ ! जैसे कौओं के अपवित्र स्थान में विशुद्ध राजहंस नहीं रह सकता, उसी प्रकार ऐसे दुःखमय संसार में मैं तो कभी नहीं रम सकता। मैया ! जहाँ रहकर मैं बिना किसी विघ्न-बाधा के आनंदपूर्वक रह सकता हूँ, वह स्थान भी बताता हूँ, सुनो। अविद्यारूपी वन तो बड़ा भयंकर है। उसमें नाना प्रकार के बड़े-बड़े वृक्ष खड़े हैं। वहाँ संकल्पों के डाँस और मच्छर बहुत हैं। शोक और हर्ष ही वहाँ की सर्दी और धूप हैं। उस वन में मोह का घना अन्धकार छाया रहता है। वहाँ लोभरूपी साँप और बिच्छू रहते हैं। काम और क्रोधरूपी बधिक तथा लुटेरे उसमें सदा डेरा डाले रहते हैं। उस महादुःखमय विशाल वन को लाँघकर अब मैं एक ऐसे महान विपिन में प्रवेश कर चुका हूँ, जहाँ पहुँचकर उसके तत्त्व को जाननेवाले ज्ञानी पुरुष न शोक करते हैं, न हर्ष। वहाँ किसी से भय नहीं है। उस विद्यारूपी वन में सात बड़े भारी वृक्ष हैं। सात ही ह्रद (कुण्ड) हैं और सात ही नदियाँ हैं, जो सदा ब्रह्मरूप जल बहाया करती हैं। तेज, अभयदान, अद्रोह, कौशल (दक्षता), अचपलता, अक्रोध और प्रिय वचन बोलना-- ये ही सात पर्वत उस विद्यावन में स्थित हैं। दृढ-निश्चय, सबके साथ समता, मन और इन्द्रियों का संयम, गुणसंचय, ममता का अभाव, तपस्या तथा सन्तोष-- ये सात ह्रद हैं। भगवान् के गुणों का विशेष ज्ञान होने से जो उनके प्रति भक्ति होती है, वह विद्या-वन की पहली नदी है। वैराग्य दूसरी, ममता का त्याग तीसरी, भगवदाराधन चौथी, भगवदर्पण पाँचवीं, ब्रह्मैकत्वबोध छठी तथा सिद्धि सातवीं नदी है। ये ही सात नदियाँ वहाँ स्थित बतायी गयी हैं। वैकुण्ठधाम के निकट इन सातों नदियों का संगम होता है। जो आत्मतृप्त, शान्त तथा जितेन्द्रिय होते हैं, वे ही महात्मा उस मार्ग से परात्पर ब्रह्म को प्राप्त होते हैं। कोई श्रेष्ठ ज्ञानीजन उन वृक्षों को प्राप्त करते हैं, कोई पर्वतों को, कोई ह्रदों को तथा कोई उन सात सरिताओं को ही प्राप्त होते हैं।
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क्रमशः ... ... ... ऐतरेय-7
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अविद्या-वन
माँ ! जैसे कौओं के अपवित्र स्थान में विशुद्ध राजहंस नहीं रह सकता, उसी प्रकार ऐसे दुःखमय संसार में मैं तो कभी नहीं रम सकता। मैया ! जहाँ रहकर मैं बिना किसी विघ्न-बाधा के आनंदपूर्वक रह सकता हूँ, वह स्थान भी बताता हूँ, सुनो। अविद्यारूपी वन तो बड़ा भयंकर है। उसमें नाना प्रकार के बड़े-बड़े वृक्ष खड़े हैं। वहाँ संकल्पों के डाँस और मच्छर बहुत हैं। शोक और हर्ष ही वहाँ की सर्दी और धूप हैं। उस वन में मोह का घना अन्धकार छाया रहता है। वहाँ लोभरूपी साँप और बिच्छू रहते हैं। काम और क्रोधरूपी बधिक तथा लुटेरे उसमें सदा डेरा डाले रहते हैं। उस महादुःखमय विशाल वन को लाँघकर अब मैं एक ऐसे महान विपिन में प्रवेश कर चुका हूँ, जहाँ पहुँचकर उसके तत्त्व को जाननेवाले ज्ञानी पुरुष न शोक करते हैं, न हर्ष। वहाँ किसी से भय नहीं है। उस विद्यारूपी वन में सात बड़े भारी वृक्ष हैं। सात ही ह्रद (कुण्ड) हैं और सात ही नदियाँ हैं, जो सदा ब्रह्मरूप जल बहाया करती हैं। तेज, अभयदान, अद्रोह, कौशल (दक्षता), अचपलता, अक्रोध और प्रिय वचन बोलना-- ये ही सात पर्वत उस विद्यावन में स्थित हैं। दृढ-निश्चय, सबके साथ समता, मन और इन्द्रियों का संयम, गुणसंचय, ममता का अभाव, तपस्या तथा सन्तोष-- ये सात ह्रद हैं। भगवान् के गुणों का विशेष ज्ञान होने से जो उनके प्रति भक्ति होती है, वह विद्या-वन की पहली नदी है। वैराग्य दूसरी, ममता का त्याग तीसरी, भगवदाराधन चौथी, भगवदर्पण पाँचवीं, ब्रह्मैकत्वबोध छठी तथा सिद्धि सातवीं नदी है। ये ही सात नदियाँ वहाँ स्थित बतायी गयी हैं। वैकुण्ठधाम के निकट इन सातों नदियों का संगम होता है। जो आत्मतृप्त, शान्त तथा जितेन्द्रिय होते हैं, वे ही महात्मा उस मार्ग से परात्पर ब्रह्म को प्राप्त होते हैं। कोई श्रेष्ठ ज्ञानीजन उन वृक्षों को प्राप्त करते हैं, कोई पर्वतों को, कोई ह्रदों को तथा कोई उन सात सरिताओं को ही प्राप्त होते हैं।
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क्रमशः ... ... ... ऐतरेय-7
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