पथहीन भूमि,
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किंतु फिर भी यदि हमें सत्य का उद्घाटन करना ही है तो हमें प्रतीतियों को भेदकर उनसे परे जाना होगा । मनुष्य-मात्र के जीवन में एक-न-एक समय ऐसा आता है, जब वह मन के धरातल की समृद्धियों से अघा चुका होता है । मन की यह क्षमता है कि वह निरन्तर विश्वासों, मत-मतान्तरों और पूर्वानुमानों की सृष्टि करता रह सकता है । मन किन्हीं देवताओं को, यहाँ तक कि ईश्वर को भी गढ़ सकता है किंतु यह वास्तविकता के ऊपर का आवरण नहीं हटा सकता । किसी बिरले अर्थ के सिवा आस्था प्रायः मन की ही एक भावदशा मात्र हुआ करती है । परन्तु ऐसी भावदशा में नया कुछ आविष्कृत नहीं हो पाताक्योंकि मन उस अवस्था में भी विश्वास और आशा-अपेक्षएँ प्रक्षेपित करता रहता है । किसी अस्तित्वहीन वस्तु पर विश्वास कर पाना संभव ही नहीं है । किंतु आपकी आस्था जिस किसी भी वस्तु पर होती हो, मूलतः वह भी मन का ही कार्य हुआ करता है । मन यद्यपि कुछ रच तो सकता है पर वह सब केवल धूल और राख आदि होता है ।
इसलिए मत-मतान्तर, आस्था या कर्मकांड की ही भाँति, धर्म भी हमें सन्तुष्ट नहीं कर पाता । जिसे हम गुरु कहकर एक व्यक्ति के रूप में स्वीकार कर लेते हैं और जिससे अपने को जोड़ लेते हैं वह भी इसी प्रकार से प्रवंचना ही सिद्ध होता है । अर्थहीनता की इस नकारात्मक दशा में, -ऐसी मनःस्थिति में, हमें वेस्टलैंड (द वेस्टलैंड, -टी.एस.इलियट) ही विरासत में प्राप्त होता है । केवल एक अनुर्वर बंजर भूमि ही हमारे चारों तरफ फैली हुई होती है । "द वेस्टलैंड" नामक यह कविता केवल किसी विशिष्ट काल-खंड की, किसी खास दौर या युग की ही नहीं, बल्कि उस निर्विण्णता की, उस व्यर्थताबोध की भी प्रतिनिधि-कविता है, जो कि आत्मा (के उद्घाटन) की विकास-यात्रा का एक पड़ाव होती है । यहाँ चुनाव करने की अनेक संभावनाएँ हमारे समक्ष आ खड़ी होती हैं । हम अस्वीकृति के बहाने से, मानवतावाद या अज्ञेयवाद के नाम से पलायन कर सकते हैं । और हम लौटकर पुनः उन संकीर्ण पगडंडियों पर पहुँच सकते हैं जो चट्टानों के बीच से गुजरती हैं, -जो उन चट्टानों के बीच मार्ग का आभास देती हैं, -जिन पर मनुष्य के भिन्न-भिन्न मतानुयायियों ने अपने-अपने मठ स्थापित कर रखे हैं -- अथवा यह भी हो सकता है कि हम इस रिक्तता का अविचल रहकर दृढ़ता से सामना करें, उस पर विजय पा लें, स्वयं ही नकारत्मकता की गहराई को भेदकर उसे मिटाने की चेष्टा करें ।
प्रस्तुत ग्रन्थ (उपदेश सार / द् क्विन्टेसेन्स ऑफ़ विज़्डम) उन लोगों के लिए संभवतः पठनीय और उपयोगी है जो आत्मा की उस अंधकार भरी रात्रि (प्रोवर्बिअल डार्क नाइट ऑफ़ द सोल) की मनःस्थिति में हैं जहाँ आत्मा का विकास अवरुद्ध हो गया है, ऐसा अनुभव होता है । जो लोग अभी भी किन्हीं मत-मतान्तरों से बँधे हैं या किन्हीं नये मतों से जुड़ने जा रहे हैं उनकी अपेक्षा आत्म-विकास के अवरुद्ध हो जाने की प्रतीति की दशा अधिक श्रेष्ठतर / उन्नत है या हीनतर / निम्नतर है, इस बारे में कोई चर्चा करना मुझे यहाँ अनावश्यक जान पड़ता है । हिन्दू आध्यात्मिक ग्रन्थ, आधिकारिक प्रमाण के रूप में ग्रहण किए जानेवाले एक ग्रन्थ ’अष्टावक्र-गीता’ के अनुसार जिन्होंने सत्य का साक्षात्कार कर लिया है उनके द्वारा इसके लिए अपनाए जानेवाले रास्ते उन मार्गों की तरह होते हैं जिन पर उड़ान भरकर पक्षी अपने गंतव्य तक पहुँचा करते हैं । असत् और सत् के दो ध्रुवों के बीच के मार्ग पर आत्मा की यात्रा के पथ को भला कौन रेखांकित कर सकेगा?
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'सम्राट के नए वस्त्र'
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किंतु फिर भी यदि हमें सत्य का उद्घाटन करना ही है तो हमें प्रतीतियों को भेदकर उनसे परे जाना होगा । मनुष्य-मात्र के जीवन में एक-न-एक समय ऐसा आता है, जब वह मन के धरातल की समृद्धियों से अघा चुका होता है । मन की यह क्षमता है कि वह निरन्तर विश्वासों, मत-मतान्तरों और पूर्वानुमानों की सृष्टि करता रह सकता है । मन किन्हीं देवताओं को, यहाँ तक कि ईश्वर को भी गढ़ सकता है किंतु यह वास्तविकता के ऊपर का आवरण नहीं हटा सकता । किसी बिरले अर्थ के सिवा आस्था प्रायः मन की ही एक भावदशा मात्र हुआ करती है । परन्तु ऐसी भावदशा में नया कुछ आविष्कृत नहीं हो पाताक्योंकि मन उस अवस्था में भी विश्वास और आशा-अपेक्षएँ प्रक्षेपित करता रहता है । किसी अस्तित्वहीन वस्तु पर विश्वास कर पाना संभव ही नहीं है । किंतु आपकी आस्था जिस किसी भी वस्तु पर होती हो, मूलतः वह भी मन का ही कार्य हुआ करता है । मन यद्यपि कुछ रच तो सकता है पर वह सब केवल धूल और राख आदि होता है ।
इसलिए मत-मतान्तर, आस्था या कर्मकांड की ही भाँति, धर्म भी हमें सन्तुष्ट नहीं कर पाता । जिसे हम गुरु कहकर एक व्यक्ति के रूप में स्वीकार कर लेते हैं और जिससे अपने को जोड़ लेते हैं वह भी इसी प्रकार से प्रवंचना ही सिद्ध होता है । अर्थहीनता की इस नकारात्मक दशा में, -ऐसी मनःस्थिति में, हमें वेस्टलैंड (द वेस्टलैंड, -टी.एस.इलियट) ही विरासत में प्राप्त होता है । केवल एक अनुर्वर बंजर भूमि ही हमारे चारों तरफ फैली हुई होती है । "द वेस्टलैंड" नामक यह कविता केवल किसी विशिष्ट काल-खंड की, किसी खास दौर या युग की ही नहीं, बल्कि उस निर्विण्णता की, उस व्यर्थताबोध की भी प्रतिनिधि-कविता है, जो कि आत्मा (के उद्घाटन) की विकास-यात्रा का एक पड़ाव होती है । यहाँ चुनाव करने की अनेक संभावनाएँ हमारे समक्ष आ खड़ी होती हैं । हम अस्वीकृति के बहाने से, मानवतावाद या अज्ञेयवाद के नाम से पलायन कर सकते हैं । और हम लौटकर पुनः उन संकीर्ण पगडंडियों पर पहुँच सकते हैं जो चट्टानों के बीच से गुजरती हैं, -जो उन चट्टानों के बीच मार्ग का आभास देती हैं, -जिन पर मनुष्य के भिन्न-भिन्न मतानुयायियों ने अपने-अपने मठ स्थापित कर रखे हैं -- अथवा यह भी हो सकता है कि हम इस रिक्तता का अविचल रहकर दृढ़ता से सामना करें, उस पर विजय पा लें, स्वयं ही नकारत्मकता की गहराई को भेदकर उसे मिटाने की चेष्टा करें ।
प्रस्तुत ग्रन्थ (उपदेश सार / द् क्विन्टेसेन्स ऑफ़ विज़्डम) उन लोगों के लिए संभवतः पठनीय और उपयोगी है जो आत्मा की उस अंधकार भरी रात्रि (प्रोवर्बिअल डार्क नाइट ऑफ़ द सोल) की मनःस्थिति में हैं जहाँ आत्मा का विकास अवरुद्ध हो गया है, ऐसा अनुभव होता है । जो लोग अभी भी किन्हीं मत-मतान्तरों से बँधे हैं या किन्हीं नये मतों से जुड़ने जा रहे हैं उनकी अपेक्षा आत्म-विकास के अवरुद्ध हो जाने की प्रतीति की दशा अधिक श्रेष्ठतर / उन्नत है या हीनतर / निम्नतर है, इस बारे में कोई चर्चा करना मुझे यहाँ अनावश्यक जान पड़ता है । हिन्दू आध्यात्मिक ग्रन्थ, आधिकारिक प्रमाण के रूप में ग्रहण किए जानेवाले एक ग्रन्थ ’अष्टावक्र-गीता’ के अनुसार जिन्होंने सत्य का साक्षात्कार कर लिया है उनके द्वारा इसके लिए अपनाए जानेवाले रास्ते उन मार्गों की तरह होते हैं जिन पर उड़ान भरकर पक्षी अपने गंतव्य तक पहुँचा करते हैं । असत् और सत् के दो ध्रुवों के बीच के मार्ग पर आत्मा की यात्रा के पथ को भला कौन रेखांकित कर सकेगा?
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'सम्राट के नए वस्त्र'
..... निरंतर ....
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