धर्मो रक्षति रक्षिते
धर्म, रक्षा किए जाने ही पर मनुष्य की रक्षा करता है।
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मनुष्य का धर्म, चाहे वह धर्म प्रचलित अर्थ में, -परंपरा, जाति, कुल, विश्वास, मत, मान्यता आदि के अनुसार उसे प्राप्त हुआ हो, या अपने विवेक से ही उसने प्राप्त किया हुआ हो; -या तो स्वाभाविक होता है, या सीखा हुआ होता है। ऐसा धर्म एक तलवार होता है जिसे मनुष्य अपनी आत्मरक्षा के लिए भी काम में ला सकता है, और दूसरों पर आक्रमण के लिए भी। लेकिन यदि उसे तलवार चलाना नहीं आता, न तलवार के बारे में ज्ञान और अनुभव है तो यह धर्म न सिर्फ दूसरों के लिए, बल्कि खुद उसके अपने लिए भी संकट बन जाता है।
गीता के अनुसार :
अध्याय 4, श्लोक 40,
अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति ।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ॥
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(अज्ञः च अश्रद्दधानः च संशयात्मा विनश्यति ।
न-अयम् लोको अस्ति न परः न सुखम् संशयात्मनः ॥)
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भावार्थ :
(विवेकजन्य) ज्ञान तथा श्रद्धा से रहित, संशययुक्त चित्त वाला मनुष्य विनष्ट हो जाता है, क्योंकि न तो यह लोक और न परलोक, और इसलिए न सुख ही, उसका होता है ।
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