Monday, 29 October 2018

Herbert Spencer, Emmanuel Kant, Spinoza

२.
मैं अनुभव करता हूँ कि यद्यपि रहस्यवाद अब भी विलुप्त होती जा रही मनुष्य जाति के लिए एकमात्र आशा है, फिर भी पाश्चात्य मन-मस्तिष्क रहस्यवाद से संबंधित ज्ञान के संग्रह को किसी अमूल्य रत्न की भाँति सुरक्षित रखते हुए उसकी ओर अधिक से अधिक आकर्षित होते रहेंगे, क्योंकि रहस्यवादियों और विभिन्न काल-खंडों में विभिन्न रहस्यदर्शियों-तत्वविदों ने भिन्न-भिन्न परंपराओं, आनुवांशिक और सांस्कृतिक भिन्नताओं के बावज़ूद जो अनुभूतियाँ उपलब्ध की थीं, वे अवश्य ही अत्यन्त मूल्यवान हैं । रहस्यदर्शियों के इस तर्क से परे के सर्वथा युक्तिसंगत अनुभव में जो तत्व है उसे हमारी आकलनपरक बुद्धि के द्वारा सिखाए जा सकनेवाले ज्ञान के माध्यम से, -उस बुद्धि के प्रयोग द्वारा खोज करते हुए हम कभी नहीं पा सकते, --बल्कि इस प्रकार से हम बस अपनी अहंवादिता की ही परिधि में घूमते रह जाते हैं । नाभिकीय-भौतिकी (Nuclear Physics) की ही भाँति दर्शन-शास्त्र में भी हमारा सामना अज्ञात unknown से नहीं, बल्कि अज्ञेय unknowable से है ।
कर्मकांडों की जटिलताएँ उस द्वार को नहीं खोल पातीं जो हमारी परम आंतरिक सत्ता के स्वरूप बन्द कर रखता है, -जो संसाररूपी अनुभव के माध्यम से हमें हमारी वास्तविकता से विच्छिन्न किए हुए है ।
हर्बर्ट स्पेन्सर (Herbert Spencer) द्वारा भौतिकवाद materialism पर दिए गए विसंगत प्रतीत होनेवाले वक्तव्यों पर हमें हँसी आती रही है । यद्यपि समय का उलटफेर उस व्यक्ति को पुनः महिमामंडित कर सकता है जिस पर कभी विद्वत्समुदाय हँसता था (क्या इस दृष्टिकोण से वह एक नटखट अधीर और अपरिपक्व मनुष्य ही नहीं था?) और हमें पुनः कभी एक बार फिर ऐसा महसूस हो सकता है कि उसके द्वारा प्रतिपादित ’फ़र्स्ट-प्रिन्सिपल्स’ 'First Principles' को भेदकर उससे परे जाने की आशा हम नहीं कर सकते जिसके अनुसार; "चूँकि विचार करने का अर्थ है -संबंधित-होना, इसलिए कोई भी विचार किसी अन्य बात को व्यक्त नहीं कर सकता ... ...  बुद्धि चूँकि व्यक्त जगत् की ही उत्पत्ति है और उस व्यक्त जगत् के ही परिप्रेक्ष्य में होती है, अतएव जब हम व्यक्त जगत् से परे की किसी सत्ता के बारे में इसका प्रयोग करते हैं तो (अन्ततः) यह हमें केवल अर्थहीनता में ही संलग्न करती है ।
(First Principles, New York, 1910, p. 56 फ़र्स्ट-प्रिन्सिपल्स, न्यूयॉर्क, १९१०, -पृष्ठ ५६)
’पूर्व’ में अर्थात् प्राच्य में, जिसका प्रयोग मैं भौगोलिक नहीं बल्कि विशिष्ट जीवनचर्या के; ज्ञाता और ज्ञात के संबंध में पाई जानेवाली आत्यन्तिक समस्याओं के प्रति -उस विशिष्ट प्रवृत्ति के अर्थ में, -उस विशेष दृष्टिकोण के अर्थ में कर रहा हूँ जिसे ’पूर्व’ East कहा जाता है, उस सन्दर्भ में यह सरलता से समझा जा सकता है कि कर्मकांड के पक्ष में दिया जानेवाला सर्वाधिक अकाट्य सिद्धान्त व्यक्त जगत् की स्वतन्त्र सत्ता की सत्यता (के सिद्धान्त) को खंडित करता है और विशुद्ध परम सत्ता की एक अवस्था की ओर संकेत करता है, जो कि व्यक्त-जगत् की सत्ता का आधार और अधिष्ठान है, -उसी तात्पर्य में; जिसके अनुसार स्पिनोज़ा Spinoza ने उसे दृश्य-घटनात्मक आवर्त कहा है । किंतु वस्तुतः ऐसा है नहीं । हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि एमानुएल कान्ट Emmanuel Kant ने यद्यपि अव्यक्त (Noumenon) के अस्तित्व पर न तो कभी संदेह उठाया, और न उससे इनकार किया और उसकी स्व-आश्रित सत्ता को यद्यपि मान्य तो किया किंतु साथ ही यह भी कहा कि इसके संबंध में हमें होनेवाला अनुभव सदैव मानसिक ही हुआ करता है । माया के सिद्धान्त में भी अनेक दुरूह कठिनाइयाँ हैं और उनमें से यह कठिनाई भी एक है कि इस सिद्धान्त में समग्रता का अभाव है, -यह परिपूर्ण नहीं है, इसका कोई ऐसा मौलिक आधार नहीं है जिसका निर्वाह सतत किया जा सके और इसलिए अपने व्यावहारिक क्रियाकलापों में निरंतर इसका उल्लंघन करना पड़ता है और इसे अस्वीकार करते रहना पड़ता है, ... -वैसी ही एक बड़ी कठिनाई है ।  और फलस्वरूप हम अपने-आपमें विखंडित हो जाते हैं, अन्तःकरण के तल पर, अन्तर्द्वन्द्व / दुविधा / असमञ्जस में पड़े रहते हैं । भौतिकवादी नहीं, बल्कि एक परिपक्व दार्शनिक ही हमें हमारे मार्ग में आनेवाली चट्टानों के प्रति सावधान करता है ।
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..... निरंतर .... 

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