ध्यान और अवधान
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दो उदाहरण :
१.जो कुछ दिखाई पड़ता है, अनुभव होता है, वह "क्यों है?";
-भौतिक विज्ञान (साइंस) इस प्रश्न का उत्तर खोजता है ।
जो भी ’है’ वह स्वरूपतः "क्या है?" अर्थात् जो कुछ दिखाई पड़ता है वह सतत परिवर्तनशील है और यह तो स्पष्ट है ही किंतु इस समस्त परिवर्तनशीलता की जो धुरी है वह अवश्य ही एक अपरिवर्तनशील वास्तविकता है । इस प्रकार वह अपरिवर्तनशीलता "क्या है?" अध्यात्म इस प्रश्न का उत्तर खोजता है । इन दोनों के बीच "धर्म" नामक तत्व है जो कुछ खोजता नहीं बल्कि जीवन की सतत परिवर्तनशीलता का तत्व है ।
विज्ञान कार्य-कारण की सीमा में ज्ञात से ज्ञात के भीतर "ऐसा क्यों है" -इस प्रकार प्रत्येक प्रतीति और अनुभव के कारण को खोजता है । अध्यात्म परिवर्तनशीलता के इस तथ्य में "अपरिवर्तनशील क्या है?" इसे जानने का यत्न है ।
यह खोजना "धर्म" है चाहे भौतिक वस्तुओं या पदार्थों, तत्वों का, या सजीव चेतन प्राणियों का, या चेतन प्राणियों में वह जो खोजता है, स्वयं उसकी वास्तविकता या स्वरूप का ।
इस प्रकार प्रश्न जो मूलतः ’विचार’ है या तो "क्यों है ?" के संदर्भ और विषय में होने वाला विचार है । यह विज्ञान है ।
इसी प्रकार दूसरा प्रश्न "क्या है?" इस संदर्भ और विषय में होने वाला विचार है । यह अध्यात्म है ।
इसी प्रकार तीसरा प्रश्न विचारकर्ता की वास्तविकता और स्वरूप "क्या है?" इस संदर्भ में होनेवाली खोज है, न कि विचार ।
इस खोज का संदर्भ और विषय स्वयं विचारकर्ता "कौन / क्या है?" अध्यात्म का ही एक और प्रकार है ।
स्पष्ट है कि "बौद्धिक विचार" किसी चेतन बुद्धिमान अस्तित्व के अन्तर्गत ही हो सकता है ।
२. "मैं क्यों सोचता हूँ ?" -एक प्रश्न यह होता है ।
"मैं क्या सोचता हूँ ?" - एक प्रश्न इस रूप में उठता है ।
"मन क्यों सोचता है ?" -एक प्रश्न इस रूप में उठता है ।
"सोचना बंद क्यों नहीं होता ?" -एक प्रश्न इस रूप में उठता है ।
इस प्रकार के समस्त प्रश्न शाब्दिक गतिविधि हैं और उनके भीतर प्रयास करते हुए उनसे परे जाना असंभव है ।
किंतु "सोचना / विचार क्या है?" इस बारे में खोज करने पर (जो वैचारिक / बौद्धिक गतिविधि मात्र न होकर उससे कुछ भिन्न प्रकार की उत्कंठा होती है) इस ओर ध्यान जा सकता है कि विचार सदा किसी न किसी विषय तथा संदर्भ से जुड़ा होता है । विचार का उद्भव तथा कार्य ध्यान (अटेंशन) के किसी विषय से जुड़ने के बाद ही होता है । इस प्रकार विचार वृत्तिगत और भाषागत इन दो रूपों से कार्य करता है । जिस जीव में अभी भाषा का विकास ही नहीं हुआ है, वह केवल वृत्ति से परिचालित होता है । किसी विषय पर उसका ध्यान जाने पर उस विषय के अनुभव के बाद उस अनुभव की स्मृति उस विषय के प्रति एक भावना और फिर स्मृति के बनने से एक प्रतिक्रिया जगाती है । इस प्रकार स्मृतियों के संग्रह से अनेक प्रकार की सरल वृत्तियाँ, फिर ’भावना’ और फिर ’प्रतिक्रिया’ पैदा होती है । यह सब क्षणमात्र में होता है या कहें साथ-साथ होने से एक ही वस्तु जान पड़ता है । किंतु ’अनुभव’ को ध्वनि-विशेष से जोड़ने पर शाब्दिक भाषा का, और ऐसे शब्दों को ’अर्थ-विशेष’ से जोड़ने पर उन अनेक भाषाओं का निर्माण होता है जो मनुष्य की ही विशेषता है ।
इस प्रकार भाषा के आविष्कार के बाद ही विचार एक समस्या बनता है । तब विचार वह चक्रव्यूह होता है जिसमें मनुष्य प्रवेश तो ध्यानपूर्वक और अभ्यास तथा पुनरावृत्ति से कर लेता है, लेकिन जिसे तोड़ना कैसे, इस बारे में वह सोच भी नहीं सकता । क्योंकि सोचना ही विचार का सातत्य है । किसी दूसरे विषय और संदर्भ पर ध्यान देने से विचार स्वयं ही विलीन हो जाता है और किसी दूसरे विषय और संदर्भ में रुचि न होने पर मन उस स्थिति को अनुभव करता है जिसे ’ऊबना’ या ’बोरडम" कहा जाता है । तब मनुष्य सो जाता है या सो जाना चाहता है और कई बार चाहकर भी उसकी नींद उड़ जाती है क्योंकि ’विचार’ को रोकना उसके वश में नहीं होता ।
इस प्रकार ’विचार’ करने से रुक पाना, या ’विचार’ की गतिविधि ’सोचने’ को रोक पाना वह भूल ही जाता है, जबकि भाषा सीखने से पहले यह उसके लिए स्वाभाविक सा था ।
ये दोनों उदाहरण स्पष्ट करते हैं कि प्रश्न पूछना केवल बौद्धिक जिज्ञासा भर भी हो सकता है, या गहरी उत्कंठा भी हो सकता है और यदि प्रश्न संदर्भ और विषय से जुड़ा हो तो ही उसका संतोषप्रद उत्तर / समाधान हो सकता है ।
सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य है ध्यान (अटेंशन) जो स्वयं भी ’अचेतन’ / अभ्यासगत तथा ’सचेतन’ / जागरूकतायुक्त इन दो प्रकारों का होता है ।
प्रथम को ध्यान / अटेंशन कहा जाता है जो मन की स्वाभाविक स्थिति है । दूसरा तब अस्तित्व में आता है जब कोई उत्कंठा, जीवन-मरण का प्रश्न सामने उपस्थित होता है ।
मनुष्य का मन भी और जीवों की तरह तंद्रा में कार्य करते रहने का आदी हो जाता है । और मनुष्य का ’विचार’ भी इसी प्रकार निद्रालु की तरह अपने-आप कार्य करता है । शारीरिक और सामाजिक जीवन के विषय और संदर्भ में इसका अपना उपयोग भी है, लेकिन विवेक अर्थात् अवधानयुक्त ’विचार’ तब जागृत होता है जब अपने अस्तित्व पर ही संकट उठ खड़ा होता है । तब मनुष्य किसी वैचारिक, बौद्धिक, स्मृतिगत सिद्धान्त या आदर्श या किसी ग्रंथ के वाक्य का सहारा लेने की स्थिति में नहीं होता और न उसे ऐसा सहारा कोई सहायता दे पाता है । भले ही अत्यंत असहाय होने से वह उसमें ही तसल्ली मान लेता हो ।
विचार ध्यान से पैदा होता है और ध्यान जिस 'विषय पर होता है उस विषय से तद्रूप / एकाकार हो जाता है।
किंतु ध्यान किस विषय पर है इसकी जागरूकता 'अवधान' है।
इस प्रकार के 'अवधान' में नित्य अवस्थित ही अवधूत होता है।
कुर्ववधानं महदवधानं ...
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दो उदाहरण :
१.जो कुछ दिखाई पड़ता है, अनुभव होता है, वह "क्यों है?";
-भौतिक विज्ञान (साइंस) इस प्रश्न का उत्तर खोजता है ।
जो भी ’है’ वह स्वरूपतः "क्या है?" अर्थात् जो कुछ दिखाई पड़ता है वह सतत परिवर्तनशील है और यह तो स्पष्ट है ही किंतु इस समस्त परिवर्तनशीलता की जो धुरी है वह अवश्य ही एक अपरिवर्तनशील वास्तविकता है । इस प्रकार वह अपरिवर्तनशीलता "क्या है?" अध्यात्म इस प्रश्न का उत्तर खोजता है । इन दोनों के बीच "धर्म" नामक तत्व है जो कुछ खोजता नहीं बल्कि जीवन की सतत परिवर्तनशीलता का तत्व है ।
विज्ञान कार्य-कारण की सीमा में ज्ञात से ज्ञात के भीतर "ऐसा क्यों है" -इस प्रकार प्रत्येक प्रतीति और अनुभव के कारण को खोजता है । अध्यात्म परिवर्तनशीलता के इस तथ्य में "अपरिवर्तनशील क्या है?" इसे जानने का यत्न है ।
यह खोजना "धर्म" है चाहे भौतिक वस्तुओं या पदार्थों, तत्वों का, या सजीव चेतन प्राणियों का, या चेतन प्राणियों में वह जो खोजता है, स्वयं उसकी वास्तविकता या स्वरूप का ।
इस प्रकार प्रश्न जो मूलतः ’विचार’ है या तो "क्यों है ?" के संदर्भ और विषय में होने वाला विचार है । यह विज्ञान है ।
इसी प्रकार दूसरा प्रश्न "क्या है?" इस संदर्भ और विषय में होने वाला विचार है । यह अध्यात्म है ।
इसी प्रकार तीसरा प्रश्न विचारकर्ता की वास्तविकता और स्वरूप "क्या है?" इस संदर्भ में होनेवाली खोज है, न कि विचार ।
इस खोज का संदर्भ और विषय स्वयं विचारकर्ता "कौन / क्या है?" अध्यात्म का ही एक और प्रकार है ।
स्पष्ट है कि "बौद्धिक विचार" किसी चेतन बुद्धिमान अस्तित्व के अन्तर्गत ही हो सकता है ।
२. "मैं क्यों सोचता हूँ ?" -एक प्रश्न यह होता है ।
"मैं क्या सोचता हूँ ?" - एक प्रश्न इस रूप में उठता है ।
"मन क्यों सोचता है ?" -एक प्रश्न इस रूप में उठता है ।
"सोचना बंद क्यों नहीं होता ?" -एक प्रश्न इस रूप में उठता है ।
इस प्रकार के समस्त प्रश्न शाब्दिक गतिविधि हैं और उनके भीतर प्रयास करते हुए उनसे परे जाना असंभव है ।
किंतु "सोचना / विचार क्या है?" इस बारे में खोज करने पर (जो वैचारिक / बौद्धिक गतिविधि मात्र न होकर उससे कुछ भिन्न प्रकार की उत्कंठा होती है) इस ओर ध्यान जा सकता है कि विचार सदा किसी न किसी विषय तथा संदर्भ से जुड़ा होता है । विचार का उद्भव तथा कार्य ध्यान (अटेंशन) के किसी विषय से जुड़ने के बाद ही होता है । इस प्रकार विचार वृत्तिगत और भाषागत इन दो रूपों से कार्य करता है । जिस जीव में अभी भाषा का विकास ही नहीं हुआ है, वह केवल वृत्ति से परिचालित होता है । किसी विषय पर उसका ध्यान जाने पर उस विषय के अनुभव के बाद उस अनुभव की स्मृति उस विषय के प्रति एक भावना और फिर स्मृति के बनने से एक प्रतिक्रिया जगाती है । इस प्रकार स्मृतियों के संग्रह से अनेक प्रकार की सरल वृत्तियाँ, फिर ’भावना’ और फिर ’प्रतिक्रिया’ पैदा होती है । यह सब क्षणमात्र में होता है या कहें साथ-साथ होने से एक ही वस्तु जान पड़ता है । किंतु ’अनुभव’ को ध्वनि-विशेष से जोड़ने पर शाब्दिक भाषा का, और ऐसे शब्दों को ’अर्थ-विशेष’ से जोड़ने पर उन अनेक भाषाओं का निर्माण होता है जो मनुष्य की ही विशेषता है ।
इस प्रकार भाषा के आविष्कार के बाद ही विचार एक समस्या बनता है । तब विचार वह चक्रव्यूह होता है जिसमें मनुष्य प्रवेश तो ध्यानपूर्वक और अभ्यास तथा पुनरावृत्ति से कर लेता है, लेकिन जिसे तोड़ना कैसे, इस बारे में वह सोच भी नहीं सकता । क्योंकि सोचना ही विचार का सातत्य है । किसी दूसरे विषय और संदर्भ पर ध्यान देने से विचार स्वयं ही विलीन हो जाता है और किसी दूसरे विषय और संदर्भ में रुचि न होने पर मन उस स्थिति को अनुभव करता है जिसे ’ऊबना’ या ’बोरडम" कहा जाता है । तब मनुष्य सो जाता है या सो जाना चाहता है और कई बार चाहकर भी उसकी नींद उड़ जाती है क्योंकि ’विचार’ को रोकना उसके वश में नहीं होता ।
इस प्रकार ’विचार’ करने से रुक पाना, या ’विचार’ की गतिविधि ’सोचने’ को रोक पाना वह भूल ही जाता है, जबकि भाषा सीखने से पहले यह उसके लिए स्वाभाविक सा था ।
ये दोनों उदाहरण स्पष्ट करते हैं कि प्रश्न पूछना केवल बौद्धिक जिज्ञासा भर भी हो सकता है, या गहरी उत्कंठा भी हो सकता है और यदि प्रश्न संदर्भ और विषय से जुड़ा हो तो ही उसका संतोषप्रद उत्तर / समाधान हो सकता है ।
सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य है ध्यान (अटेंशन) जो स्वयं भी ’अचेतन’ / अभ्यासगत तथा ’सचेतन’ / जागरूकतायुक्त इन दो प्रकारों का होता है ।
प्रथम को ध्यान / अटेंशन कहा जाता है जो मन की स्वाभाविक स्थिति है । दूसरा तब अस्तित्व में आता है जब कोई उत्कंठा, जीवन-मरण का प्रश्न सामने उपस्थित होता है ।
मनुष्य का मन भी और जीवों की तरह तंद्रा में कार्य करते रहने का आदी हो जाता है । और मनुष्य का ’विचार’ भी इसी प्रकार निद्रालु की तरह अपने-आप कार्य करता है । शारीरिक और सामाजिक जीवन के विषय और संदर्भ में इसका अपना उपयोग भी है, लेकिन विवेक अर्थात् अवधानयुक्त ’विचार’ तब जागृत होता है जब अपने अस्तित्व पर ही संकट उठ खड़ा होता है । तब मनुष्य किसी वैचारिक, बौद्धिक, स्मृतिगत सिद्धान्त या आदर्श या किसी ग्रंथ के वाक्य का सहारा लेने की स्थिति में नहीं होता और न उसे ऐसा सहारा कोई सहायता दे पाता है । भले ही अत्यंत असहाय होने से वह उसमें ही तसल्ली मान लेता हो ।
विचार ध्यान से पैदा होता है और ध्यान जिस 'विषय पर होता है उस विषय से तद्रूप / एकाकार हो जाता है।
किंतु ध्यान किस विषय पर है इसकी जागरूकता 'अवधान' है।
इस प्रकार के 'अवधान' में नित्य अवस्थित ही अवधूत होता है।
कुर्ववधानं महदवधानं ...
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