ऐतरेय -3
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मनुष्य का जीवन
युवावस्था का शरीर एक दिन जरा अवस्था से जर्जर कर दिया जाने पर सम्पूर्ण कार्यों के लिए असमर्थ हो जाता है। उसके बदन में झुर्रियाँ पड़ जाती हैं, सिर के बाल सफ़ेद हो जाते हैं और शरीर बहुत ढीलाढाला हो जाता है। स्त्री और पुरुष का वही रूप, जो जवानी के दिनों में एक-दूसरे का आधार था, जराग्रस्त हो जाने से दोनों में से किसी को भी प्रिय नहीं लगता। बुढ़ापे से दबा हुआ पुरुष असमर्थ होने के कारण पत्नी-पुत्र आदि बन्धु-बांधवों तथा दुराचारी सेवकों द्वारा भी अपमानित होता है। वृद्धावस्था में रोगातुर पुरुष धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का साधन करने में असमर्थ हो जाता है; इसलिए युवावस्था में ही धर्म का आचरण कर लेना चाहिए।
वात, पित्त और कफ की विषमता ही व्याधि कहलाती है। इस शरीर को वात आदि का समूह बताया गया है। इसलिए अपना यह शरीर व्याधिमय है; ऐसा जानना चाहिए। इस शरीर में अनेक प्रकार के रोगों के द्वारा बहुतेरे दुःख प्रवेश कर जाते हैं। उनका पता अपने-आपको भी नहीं लगता फिर दूसरों को तो लग ही कैसे सकता है ? इस देह में एक सौ एक व्याधियाँ स्थित हैं। इनमें से एक व्याधि तो काल के साथ रहती है और शेष आगंतुक बतायी गयी हैं। जो आगंतुक बताई गयी हैं, वे तो दवा करने से तथा जप, होम और दान से शान्त हो जाती हैं; परन्तु मृत्युरूपी व्याधि कभी शान्त नहीं होती। नाना प्रकार की व्याधियाँ, सर्प आदि प्राणी, विष और अभिचार (पुरश्चरण) -- ये सब देहधारियों की मृत्यु के द्वार बताए गए हैं। यदि जीव का काल आ पहुँचा है, तो सर्प और रोग आदि से पीड़ित होने पर धन्वन्तरि भी जीवित नहीं रख सकते। काल से पीड़ित मनुष्य को औषध, तपस्या, दान, मित्र तथा बन्धु-बान्धव -- कोई भी नहीं बचा सकते। रसायन, तपस्या, जप, योग, सिद्ध-महात्मा तथा पंडित -- ये सब मिलकर भी कालजनित मृत्यु को नहीं टाल सकते। समस्त प्राणियों के लिए मृत्यु के समान कोई दुःख नहीं है, मृत्यु के समान कोई भय नहीं है, तथा मृत्यु के समान कोई त्रास नहीं है। सती भार्या, उत्तम पुत्र, श्रेष्ठ मित्र, राज्य, ऐश्वर्य और सुख -- ये सभी स्नेहपाश में बँधे हुए हैं। मृत्यु इन सबका उच्छेद कर डालती है। माँ ! क्या तुम नहीं देखती कि हजारों मनुष्यों में से पाँच भी शायद ही ऐसे होंगे, जो पूरे सौ वर्षों तक जीनेवाले हों। कोई-कोई ही अस्सी और सत्तर वर्ष की अवस्था में मरते हैं। प्रायः साठ वर्ष ही लोगों की परमायु हो गयी है; किंतु वह भी सब के लिए निश्चित नहीं है। जिस देहधारी को अपने पूर्वकर्मानुसार जितनी आयु प्राप्त होती है, उसका आधा भाग तो मृत्युरूपिणी रात्रि हर लेती है। बाल्यावस्था, अबोधावस्था तथा वृद्धावस्था द्वारा बीस वर्ष और व्यतीत हो जाते हैं-- जो धर्म, अर्थ और काम -- किसी के भी उपयोग में नहीं आते। शेष आयु का आधा भाग मनुष्य पर आनेवाले बहुत से भय तथा अनेक प्रकार के रोग और शोक आदि हर लेते हैं। इन सबसे जो शेष रह जाता है, वही मनुष्य का जीवन है।
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क्रमशः ... ... ... ऐतरेय-4
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मनुष्य का जीवन
युवावस्था का शरीर एक दिन जरा अवस्था से जर्जर कर दिया जाने पर सम्पूर्ण कार्यों के लिए असमर्थ हो जाता है। उसके बदन में झुर्रियाँ पड़ जाती हैं, सिर के बाल सफ़ेद हो जाते हैं और शरीर बहुत ढीलाढाला हो जाता है। स्त्री और पुरुष का वही रूप, जो जवानी के दिनों में एक-दूसरे का आधार था, जराग्रस्त हो जाने से दोनों में से किसी को भी प्रिय नहीं लगता। बुढ़ापे से दबा हुआ पुरुष असमर्थ होने के कारण पत्नी-पुत्र आदि बन्धु-बांधवों तथा दुराचारी सेवकों द्वारा भी अपमानित होता है। वृद्धावस्था में रोगातुर पुरुष धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का साधन करने में असमर्थ हो जाता है; इसलिए युवावस्था में ही धर्म का आचरण कर लेना चाहिए।
वात, पित्त और कफ की विषमता ही व्याधि कहलाती है। इस शरीर को वात आदि का समूह बताया गया है। इसलिए अपना यह शरीर व्याधिमय है; ऐसा जानना चाहिए। इस शरीर में अनेक प्रकार के रोगों के द्वारा बहुतेरे दुःख प्रवेश कर जाते हैं। उनका पता अपने-आपको भी नहीं लगता फिर दूसरों को तो लग ही कैसे सकता है ? इस देह में एक सौ एक व्याधियाँ स्थित हैं। इनमें से एक व्याधि तो काल के साथ रहती है और शेष आगंतुक बतायी गयी हैं। जो आगंतुक बताई गयी हैं, वे तो दवा करने से तथा जप, होम और दान से शान्त हो जाती हैं; परन्तु मृत्युरूपी व्याधि कभी शान्त नहीं होती। नाना प्रकार की व्याधियाँ, सर्प आदि प्राणी, विष और अभिचार (पुरश्चरण) -- ये सब देहधारियों की मृत्यु के द्वार बताए गए हैं। यदि जीव का काल आ पहुँचा है, तो सर्प और रोग आदि से पीड़ित होने पर धन्वन्तरि भी जीवित नहीं रख सकते। काल से पीड़ित मनुष्य को औषध, तपस्या, दान, मित्र तथा बन्धु-बान्धव -- कोई भी नहीं बचा सकते। रसायन, तपस्या, जप, योग, सिद्ध-महात्मा तथा पंडित -- ये सब मिलकर भी कालजनित मृत्यु को नहीं टाल सकते। समस्त प्राणियों के लिए मृत्यु के समान कोई दुःख नहीं है, मृत्यु के समान कोई भय नहीं है, तथा मृत्यु के समान कोई त्रास नहीं है। सती भार्या, उत्तम पुत्र, श्रेष्ठ मित्र, राज्य, ऐश्वर्य और सुख -- ये सभी स्नेहपाश में बँधे हुए हैं। मृत्यु इन सबका उच्छेद कर डालती है। माँ ! क्या तुम नहीं देखती कि हजारों मनुष्यों में से पाँच भी शायद ही ऐसे होंगे, जो पूरे सौ वर्षों तक जीनेवाले हों। कोई-कोई ही अस्सी और सत्तर वर्ष की अवस्था में मरते हैं। प्रायः साठ वर्ष ही लोगों की परमायु हो गयी है; किंतु वह भी सब के लिए निश्चित नहीं है। जिस देहधारी को अपने पूर्वकर्मानुसार जितनी आयु प्राप्त होती है, उसका आधा भाग तो मृत्युरूपिणी रात्रि हर लेती है। बाल्यावस्था, अबोधावस्था तथा वृद्धावस्था द्वारा बीस वर्ष और व्यतीत हो जाते हैं-- जो धर्म, अर्थ और काम -- किसी के भी उपयोग में नहीं आते। शेष आयु का आधा भाग मनुष्य पर आनेवाले बहुत से भय तथा अनेक प्रकार के रोग और शोक आदि हर लेते हैं। इन सबसे जो शेष रह जाता है, वही मनुष्य का जीवन है।
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क्रमशः ... ... ... ऐतरेय-4
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