श्रीमद्भग्वद्गीता १०/२२,
श्रीमद्भग्वद्गीता १३/६
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सर्वत्व का सिद्धान्त और सिद्धान्त का सर्वत्व
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ऐतरेय ने कहा :
".... नारायण 'नृषु' अर्थात् समस्त भूतों में प्रविष्ट होने से ’विष्णु’ हैं ।
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अध्याय 10, श्लोक 22,
वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः ।
इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना ॥
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(वेदानाम् सामवेदः अस्मि देवानाम् अस्मि वासवः ।
इन्द्रियाणाम् मनः च अस्मि भूतानाम् अस्मि चेतना ॥)
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भावार्थ :
वेदों में सामवेद हूँ, देवताओं में वासव / इन्द्र हूँ, इन्द्रियों में मन हूँ, तथा भूतमात्र में चेतना हूँ ।
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टिप्पणी : ( ... सदावसन्तम् हृदयारविन्दे, ....)
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’वासवः’ / ’vāsavaḥ’ - Indra, the king of celestial divine beings,
Chapter 10, śloka 22,
vedānāṃ sāmavedo:'smi
devānāmasmi vāsavaḥ |
indriyāṇāṃ manaścāsmi
bhūtānāmasmi cetanā ||
--
(vedānām sāmavedaḥ asmi
devānām asmi vāsavaḥ |
indriyāṇām manaḥ ca asmi
bhūtānām asmi cetanā ||)
--
Meaning :
Among the veda-s, -I AM the sāmaveda. Among the celestial divine beings -I AM vāsava vAsava (Indra, the king of celestial divine beings). Among the senses, -I am the mind. And in all the beings, I AM present as consciousness.
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अध्याय 13, श्लोक 6,
इच्छाद्वेषः सुखं दुःखं सङ्घातश्चेतना धृतिः ।
एतत्क्षेत्रंसमासेन सविकारमुदाहृतम् ।
--
(इच्छा द्वेषः सुखम् दुःखम् सङ्घातः चेतना धृतिः ।
एतत् क्षेत्रम् समासेन सविकारम्-उदाहृतम् ॥)
--
भावार्थ :
इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, पञ्चतत्त्वों के सङ्घात (संयुक्त होने) से निर्मित देह, चेतना, तथा धृति, इन सब को सम्मिलित रूप से, इन विकारों सहित संक्षेपतः ’क्षेत्र’ कहा जाता है ।
टिप्पणी : साँख्य-दर्शन के अनुसार, पुरुष ही एकमात्र चेतन, अविकारी तत्व है, जबकि प्रकृति नित्य विकारशील, नाम-रूप के साथ परिवर्तन से युक्त जड तत्व है ।
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Chapter 13, śloka 6,
icchādveṣaḥ sukhaṃ duḥkhaṃ
saṅghātaścetanā dhṛtiḥ |
etatkṣetraṃsamāsena
savikāramudāhṛtam |
--
(icchā dveṣaḥ sukham duḥkham
saṅghātaḥ cetanā dhṛtiḥ |
etat kṣetram samāsena
savikāram-udāhṛtam ||)
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Meaning :
Desire, repulsion, joy, sorrow, the gross body as the composite of 5 elements, consciousness, and just or unjust conviction, In brief, these all together are named 'kṣetra' / the field (where-in all activities take place).
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Note :
According to sāṅkhya, the puruṣa is the only conscious (cetana), immutable underlying principle (Subjective Reality, Brahman) of the Whole Existence. In comparison prakṛti is the insentient objective Reality that keeps undergoing change all the time. So prakṛti is said to be vikārī, vikāraśīla, -subject to mutation, while puruṣa is ever avikārī principle, - ever unaffected by change.
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१०/२२,
वे ही इन्द्र के रूप में स्थूल आधिभौतिक जगत् में जीव-भाव से समस्त भूतों में प्रविष्ट हैं ।
इस प्रकार नाराय़ण जगत् का अन्न (आहार) हुए ।
वे ही चेतना की भाँति, इन्द्र / वासव के रूप में पुनः सूक्ष्म आधिदैविक जगत् (इन्द्रियों) प्रविष्ट में हुए ।
और वे ही चेतना के अधिष्ठान के रूप में जीव तथा स्थूल-सूक्ष्म जगत् में प्रविष्ट हैं ।
इस प्रकार नारायण ही नारायण का आहार हैं ।
इस प्रकार चेतना ही चेतना का आहार है ।
इस प्रकार जीव ही जीव का आहार है ।
वे ही प्राण के रूप में चेतना का आहार / आधार हैं ।
और वे ही चेतना के रूप में प्राण आहार / आधार हैं ।
पुनः अनुभव और क्रिया इन्द्रियों के आहार / आधार हैं ।
इन्द्रियाँ अनुभव और क्रिया के आहार / आधार हैं ।
स्थूल / आधिभौतिक इन्द्रियाँ स्थूल अनुभव और क्रिया के आहार / आधार हैं ।
सूक्ष्म इन्द्रियाँ / आधिदैविक इन्द्रियाँ स्थूल अनुभव और क्रिया के आहार / आधार हैं ।
अशना-पिपासा को अन्ततः जब कहीं स्थान न मिला तो जीव (नारायण) के ही स्थूल तथा सूक्ष्म पिंडों में उन्हें स्थान प्राप्त हुआ ।
प्रकृति के इस कार्य-विभाजन के पश्चात् प्रकृति की प्रतिकल्पा-सृष्टि अर्थात् विकृति को कहीं स्थान न मिला तो अनुभव और क्रिया के मध्य ज्ञान और अज्ञान की तरह उसकी प्रतिष्ठा हुई ।
ज्ञान-अज्ञान के साथ उनके विकल्प विज्ञान को भी स्थान मिला ।
इसलिए सुख-दुःख, राग-द्वेष, शीत-ऊष्णता, को बुद्धि में स्थान मिला ।
बुद्धि के साथ उसकी छाया मोह-बुद्धि भी व्याप्त हुई ।
बुद्धि से जागृति का उद्भव हुआ और मोह से निद्रा का ।
जागृति और निद्रा से काल और काल के अधिष्ठाता 'यम' की प्रतिष्ठा हुई।
इसलिए बुद्धि और जागृति एक-दूसरे का आहार / आधार हैं ।
इसलिए बुद्धि और मोह-बुद्धि एक दूसरे का आहार / आधार हैं ।
नारायण इस प्रकार अपने ही भीतर समाविष्ट होकर अपनी ही लीला से माया रचते हैं और माया से मोहित होते हैं ।
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संकेत / टिप्पणी :
आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः :
(आज के समय में) न तो ज्ञानेन्द्रियों का आहार और न कर्मेन्द्रियों का आचरण शुद्ध रह गया है ।
कर्मेन्द्रियों का कार्य स्थूल अनुभव तथा स्थूल क्रिया है,
ज्ञानेन्द्रियों का कार्य सूक्ष्म अनुभव तथा सूक्ष्म क्रिया है ।
इन दोनों का सामञ्जस्यपूर्ण मेल (synchronization) प्रकृति है ।
इनका अराजकतापूर्ण अपमिश्रण विकृति है ।
जब कर्मेन्द्रियों का कार्य ज्ञानेद्रियाँ और ज्ञानेन्द्रियों का कार्य कर्मेन्द्रियाँ करने की चेष्टा करती हैं तब विकार उत्पन्न होता है ।
ज्ञानेन्द्रियों के अनुभव तथा क्रिया एवं कर्मेन्द्रियों के अनुभव तथा क्रिया परस्पर भिन्न प्रकार के हैं ।
एक का कार्य दूसरे नहीं कर सकते ।
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श्रीमद्भग्वद्गीता १३/६
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सर्वत्व का सिद्धान्त और सिद्धान्त का सर्वत्व
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ऐतरेय ने कहा :
".... नारायण 'नृषु' अर्थात् समस्त भूतों में प्रविष्ट होने से ’विष्णु’ हैं ।
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अध्याय 10, श्लोक 22,
वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः ।
इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना ॥
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(वेदानाम् सामवेदः अस्मि देवानाम् अस्मि वासवः ।
इन्द्रियाणाम् मनः च अस्मि भूतानाम् अस्मि चेतना ॥)
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भावार्थ :
वेदों में सामवेद हूँ, देवताओं में वासव / इन्द्र हूँ, इन्द्रियों में मन हूँ, तथा भूतमात्र में चेतना हूँ ।
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टिप्पणी : ( ... सदावसन्तम् हृदयारविन्दे, ....)
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’वासवः’ / ’vāsavaḥ’ - Indra, the king of celestial divine beings,
Chapter 10, śloka 22,
vedānāṃ sāmavedo:'smi
devānāmasmi vāsavaḥ |
indriyāṇāṃ manaścāsmi
bhūtānāmasmi cetanā ||
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(vedānām sāmavedaḥ asmi
devānām asmi vāsavaḥ |
indriyāṇām manaḥ ca asmi
bhūtānām asmi cetanā ||)
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Meaning :
Among the veda-s, -I AM the sāmaveda. Among the celestial divine beings -I AM vāsava vAsava (Indra, the king of celestial divine beings). Among the senses, -I am the mind. And in all the beings, I AM present as consciousness.
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अध्याय 13, श्लोक 6,
इच्छाद्वेषः सुखं दुःखं सङ्घातश्चेतना धृतिः ।
एतत्क्षेत्रंसमासेन सविकारमुदाहृतम् ।
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(इच्छा द्वेषः सुखम् दुःखम् सङ्घातः चेतना धृतिः ।
एतत् क्षेत्रम् समासेन सविकारम्-उदाहृतम् ॥)
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भावार्थ :
इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, पञ्चतत्त्वों के सङ्घात (संयुक्त होने) से निर्मित देह, चेतना, तथा धृति, इन सब को सम्मिलित रूप से, इन विकारों सहित संक्षेपतः ’क्षेत्र’ कहा जाता है ।
टिप्पणी : साँख्य-दर्शन के अनुसार, पुरुष ही एकमात्र चेतन, अविकारी तत्व है, जबकि प्रकृति नित्य विकारशील, नाम-रूप के साथ परिवर्तन से युक्त जड तत्व है ।
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Chapter 13, śloka 6,
icchādveṣaḥ sukhaṃ duḥkhaṃ
saṅghātaścetanā dhṛtiḥ |
etatkṣetraṃsamāsena
savikāramudāhṛtam |
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(icchā dveṣaḥ sukham duḥkham
saṅghātaḥ cetanā dhṛtiḥ |
etat kṣetram samāsena
savikāram-udāhṛtam ||)
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Meaning :
Desire, repulsion, joy, sorrow, the gross body as the composite of 5 elements, consciousness, and just or unjust conviction, In brief, these all together are named 'kṣetra' / the field (where-in all activities take place).
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Note :
According to sāṅkhya, the puruṣa is the only conscious (cetana), immutable underlying principle (Subjective Reality, Brahman) of the Whole Existence. In comparison prakṛti is the insentient objective Reality that keeps undergoing change all the time. So prakṛti is said to be vikārī, vikāraśīla, -subject to mutation, while puruṣa is ever avikārī principle, - ever unaffected by change.
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१०/२२,
वे ही इन्द्र के रूप में स्थूल आधिभौतिक जगत् में जीव-भाव से समस्त भूतों में प्रविष्ट हैं ।
इस प्रकार नाराय़ण जगत् का अन्न (आहार) हुए ।
वे ही चेतना की भाँति, इन्द्र / वासव के रूप में पुनः सूक्ष्म आधिदैविक जगत् (इन्द्रियों) प्रविष्ट में हुए ।
और वे ही चेतना के अधिष्ठान के रूप में जीव तथा स्थूल-सूक्ष्म जगत् में प्रविष्ट हैं ।
इस प्रकार नारायण ही नारायण का आहार हैं ।
इस प्रकार चेतना ही चेतना का आहार है ।
इस प्रकार जीव ही जीव का आहार है ।
वे ही प्राण के रूप में चेतना का आहार / आधार हैं ।
और वे ही चेतना के रूप में प्राण आहार / आधार हैं ।
पुनः अनुभव और क्रिया इन्द्रियों के आहार / आधार हैं ।
इन्द्रियाँ अनुभव और क्रिया के आहार / आधार हैं ।
स्थूल / आधिभौतिक इन्द्रियाँ स्थूल अनुभव और क्रिया के आहार / आधार हैं ।
सूक्ष्म इन्द्रियाँ / आधिदैविक इन्द्रियाँ स्थूल अनुभव और क्रिया के आहार / आधार हैं ।
अशना-पिपासा को अन्ततः जब कहीं स्थान न मिला तो जीव (नारायण) के ही स्थूल तथा सूक्ष्म पिंडों में उन्हें स्थान प्राप्त हुआ ।
प्रकृति के इस कार्य-विभाजन के पश्चात् प्रकृति की प्रतिकल्पा-सृष्टि अर्थात् विकृति को कहीं स्थान न मिला तो अनुभव और क्रिया के मध्य ज्ञान और अज्ञान की तरह उसकी प्रतिष्ठा हुई ।
ज्ञान-अज्ञान के साथ उनके विकल्प विज्ञान को भी स्थान मिला ।
इसलिए सुख-दुःख, राग-द्वेष, शीत-ऊष्णता, को बुद्धि में स्थान मिला ।
बुद्धि के साथ उसकी छाया मोह-बुद्धि भी व्याप्त हुई ।
बुद्धि से जागृति का उद्भव हुआ और मोह से निद्रा का ।
जागृति और निद्रा से काल और काल के अधिष्ठाता 'यम' की प्रतिष्ठा हुई।
इसलिए बुद्धि और जागृति एक-दूसरे का आहार / आधार हैं ।
इसलिए बुद्धि और मोह-बुद्धि एक दूसरे का आहार / आधार हैं ।
नारायण इस प्रकार अपने ही भीतर समाविष्ट होकर अपनी ही लीला से माया रचते हैं और माया से मोहित होते हैं ।
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संकेत / टिप्पणी :
आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः :
(आज के समय में) न तो ज्ञानेन्द्रियों का आहार और न कर्मेन्द्रियों का आचरण शुद्ध रह गया है ।
कर्मेन्द्रियों का कार्य स्थूल अनुभव तथा स्थूल क्रिया है,
ज्ञानेन्द्रियों का कार्य सूक्ष्म अनुभव तथा सूक्ष्म क्रिया है ।
इन दोनों का सामञ्जस्यपूर्ण मेल (synchronization) प्रकृति है ।
इनका अराजकतापूर्ण अपमिश्रण विकृति है ।
जब कर्मेन्द्रियों का कार्य ज्ञानेद्रियाँ और ज्ञानेन्द्रियों का कार्य कर्मेन्द्रियाँ करने की चेष्टा करती हैं तब विकार उत्पन्न होता है ।
ज्ञानेन्द्रियों के अनुभव तथा क्रिया एवं कर्मेन्द्रियों के अनुभव तथा क्रिया परस्पर भिन्न प्रकार के हैं ।
एक का कार्य दूसरे नहीं कर सकते ।
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(कल्पित)
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