ऐतरेय-8
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माता इस प्रकार की बातें सोच ही रही थी की शंख-चक्र-गदाधारी भगवान् विष्णु उस अर्चा-विग्रह से साक्षात् प्रकट हो गए। वे उस द्विजपुत्र की बातों से अत्यन्त प्रसन्न थे । भगवान् की दिव्य कान्ति करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशमान थी। वे अपनी प्रभा से सम्पूर्ण जगत् को उद्भासित कर रहे थे । भगवान् को देखते ही ऐतरेय धरती पर दण्ड की भाँति पड़ गए । उनके शरीर में रोमाञ्च हो आया। नेत्रों से प्रेम के आँसू बहने लगे। वाणी गद्गद हो गयी। बुद्धिमान् ऐतरेय ने मस्तक पर अंजलि बाँधकर भगवान् का इस प्रकार स्तवन प्रारम्भ किया --
अघनाशन-स्तोत्र
"आप भगवान् वासुदेव का हम ध्यान और नमस्कार करते हैं। आप ही प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, तथा संकर्षण हैं, आपको नमस्कार है । आप केवल भगवानस्वरूप तथा परमानन्दमूर्ति हैं, आपको नमस्कार है। आप आत्माराम, शान्त तथा आप समस्त इन्द्रियों के स्वामी (हृषिकेश) हैं, सबसे महान् तथा अनन्त शक्तियों से संपन्न हैं; आपको नमस्कार है। मन सहित वाणी के थककर निवृत्त हो जाने पर जो एकमात्र अपनी कृपा से ही सुलभ होनेवाले हैं, नाम और रूप से रहित चैतन्यघन ही जिनका स्वरूप है, वे सत् और असत् से परे विराजमान परमात्मा हम सबकी रक्षा करें। आप परम सत्य तथा निर्मल हैं, हम आपकी उपासना करते हैं। जो षड्विध ऐश्वर्य से युक्त परम पुरुष महानुभाव एवं समस्त विभूतियों के अधिपति हैं, उन भगवान् को नमस्कार है। परमेष्ठिन् ! आप सबसे उत्कृष्ट हैं, सम्पूर्ण भक्तसमुदाय आपके युगल चरणारविन्दों की बड़े लाड़-प्यार से सेवा करते हैं। आपको नमस्कार है। अग्नि आपका मुख है, पृथ्वी आपके दोनों चरण हैं, आकाश मस्तक है, चन्द्रमा और सूर्य दोनों नेत्र हैं, सम्पूर्ण लोक आपका शरीर है तथा चारों दिशाएँ आपकी चार भुजाएँ हैं। भगवान् ! आपको नमस्कार है। हे स्तुति करने योग्य परमात्मन् ! हे नाथ ! इस पृथ्वी पर कोई भी ऐसे प्रदेश नहीं हैं, जिनमें मेरा जन्म न हुआ हो, जहाँ मेरी मृत्यु न हुई हो। मैं समझता हूँ, यदि मेरे माता-पिताओं की गणना की जाय, तो यह विशाल पृथ्वी परमाणुओं की स्थिति में पहुँच जायगी-- असंख्य जन्मों के मेरे माता-पिताओं की गणना करने के लिए पृथ्वी के परमाणु बराबर टुकड़े करने पड़ेंगे। देवदेव ! मेरे जो मित्र, शत्रु, अनुजीवी, तथा भाई-बन्धु इस संसार में हो गए हैं, उन सबकी गणना करने में मैं सर्वथा असमर्थ हूँ। नाथ ! मैंने अपना मन बार-बार आपके चरणों में समर्पित किया, परंतु मेरा दुर्जय शत्रु काम अपने क्रोध आदि सहायकों के द्वारा उसे हठात् अपने वश में कर लेता है । भगवन् ! अब आप ही बताइये, ऐसी दशा में मैं क्या करूँ ? सर्वव्यापी परमेश्वर ! मैं बहुत ही पीड़ित हूँ। संसाररूपी गड्ढे में गिरे हुए इस दीन पर आप दया कीजिये। दुर्गति में पड़ा हुआ प्राणी भी महात्माओं की शरण में आ जाने पर कष्ट नहीं भोगता। रोगी मनुष्यों को शरण देनेवाला वैद्य है, महासागर में डूबे हुए मनुष्य का सहारा नौका है, बालक को आश्रय देनेवाले माता और पिता हैं, परंतु भगवन् ! अत्यन्त घोर संसार-बन्धन से दुःखी हुए मनुष्य को शरण देनेवाले केवल आप ही हैं।
सोऽहं भृशार्तः करुणां कुरु त्वं संसारगर्ते पतितस्य विष्णो।
महात्मनां संश्रयमभ्युपेतो नैवावसीदत्यपि दुर्गतोऽपि ।।
परायणं रोगवतां हि वैद्यो महाब्धिमग्नस्य च नौर्नरस्य ।
बालस्य मातापितरौ सुघोरसंसारखिन्नस्य हरे त्वमेकः ।।
सर्वस्वरूप सर्वेश्वर ! प्रसन्न होइए, आप ही सबके कारण हैं। पारमार्थिक सारतत्व भी आप ही हैं। महान् दुःख-समूह से भरे हुए संसाररूपी गड्ढे से स्वयं ही हाथ पकड़कर मुझे निकालिए। हे अच्युत ! हे उरुक्रम ! यह संसार भूख और प्यास से; वात, पित्त और कफ-- इन तीन धातुओं से; सर्दी, गर्मी, आँधी और वर्षा से, आपस में ही एक-दूसरे से तथा कभी न तृप्त होनेवाली कामाग्नि तथा क्रोधाग्नि से बारंबार पीड़ित होता है। इसे इस दशा में देखकर मेरा मन बहुत दुःखी हो रहा है। मैंने अपनी शक्ति के अनुसार सम्पूर्ण जगत् को धारण करनेवाले परमेश्वर भगवान् आप वासुदेव का स्तवन किया है। इससे सबका कल्याण हो, सम्पूर्ण जगत् के समस्त दोष नष्ट हो जाएँ। आज मेरे द्वारा जगद्धाता वासुदेव की स्तुति हुई है; इससे इस पृथ्वी पर, अंतरिक्ष में, स्वर्गलोक में तथा रसातल में भी जो कोई प्राणी रहते हों, वे सिद्धि को प्राप्त हों। मेरे द्वारा स्तुति-पाठ करते समय जो लोग इसको सुनते हैं, इस स्तोत्र का उच्चारण करते समय जो मुझे देखते हैं, वे देवता, असुर, मनुष्य तथा पशु-पक्षी कोई भी क्यों न हों, सभी भगवान् विष्णु के तत्त्व का ज्ञान प्राप्त करें। इनके सिवा जो गूँगे तथा अन्यान्य इन्द्रियों से रहित हैं, जो देख-सुन नहीं सकते वे, तथा पशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़े आदि भी आज भगवत्तत्त्वज्ञान के भागी हो जायँ। संसार में दुःखों का नाश हो जाय, समस्त प्रजा के हृदय से लोभ आदि दोषसमुदाय निकल जायँ। अपने में, अपने भाई और पुत्र में जैसा प्रेम और आत्मीयता का भाव होता है, सब लोगों का सबके प्रति वैसा ही भाव हो जाय। जो संसाररूपी रोग के चिकित्सक, सम्पूर्ण दोषों के निवारण में चतुर तथा परमानन्द की प्राप्ति के हेतुभूत हैं, वे भगवान् विष्णु सबके हृदय में विराजमान हों और ऐसा होने से सब लोगों के संसार-बन्धन शिथिल हो जायँ। सम्पूर्ण विश्व को धारण करनेवाले भगवान् वासुदेव का स्मरण करने पर मन, वाणी और शरीर द्वारा आचरित मेरे समस्त पाप नष्ट हो जायँ। हे वासुदेव ! ऐसा उच्चारण करने पर अथवा भगवान् विष्णु के भक्त की महिमा का कीर्तन करने पर, अथवा श्रीहरि का स्मरण करने पर समस्त पापों का नाश हो जाता है। यदि यह सत्य है, तो इस सत्य के प्रभाव से मेरा पाप नष्ट हो जाय। अखिलेश्वर ! आपके चरणों में पड़े हुए मुझ सेवक पर आप यह सोचकर कृपा कीजिए की 'यह बेचारा मूढ है-- कुछ जानता नहीं, इसकी बुद्धि बहुत थोड़ी है, इसके द्वारा उद्यम भी बहुत कम हो पाता है। विषयों से इसका मन सदा क्लेश में पड़ा रहता है, इसीलिए वह मुझमें नहीं लग पाता। ' देव ! आपकी स्तुति करने में ब्रह्माजी भी समर्थ नहीं हैं। भगवन् ! आप प्रसन्न होइये। हे विष्णो ! आप बड़े दयालु हैं, मुझ अनाथ पर कृपा कीजिये। हे अनन्त ! हे पापहारी हरि ! आप पुरुषोत्तम हैं, संसार-सागर में डूबे हुए मुझ दीन का उद्धार कीजिये। "
अर्जुन ! ऐतरेय के इस प्रकार स्तुति करने पर विशालकाय भगवान् वासुदेव ने आनन्दमग्न होकर कहा-- 'वत्स ऐतरेय ! मैं तुम्हारी भक्ति से और इस स्तुति से बहुत प्रसन्न हूँ। तुम मुझसे कोई मनोवांछित एवं दुर्लभ वर माँगो।
ऐतरेय ने कहा --
नाथ ! हरे ! मेरा अभीष्ट वर तो यही है कि घोर संसारसागर में डूबते हुए मुझ असहाय के लिए आप कर्णधार हो जायँ।
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क्रमशः ... ... ... ऐतरेय-9
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माता इस प्रकार की बातें सोच ही रही थी की शंख-चक्र-गदाधारी भगवान् विष्णु उस अर्चा-विग्रह से साक्षात् प्रकट हो गए। वे उस द्विजपुत्र की बातों से अत्यन्त प्रसन्न थे । भगवान् की दिव्य कान्ति करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशमान थी। वे अपनी प्रभा से सम्पूर्ण जगत् को उद्भासित कर रहे थे । भगवान् को देखते ही ऐतरेय धरती पर दण्ड की भाँति पड़ गए । उनके शरीर में रोमाञ्च हो आया। नेत्रों से प्रेम के आँसू बहने लगे। वाणी गद्गद हो गयी। बुद्धिमान् ऐतरेय ने मस्तक पर अंजलि बाँधकर भगवान् का इस प्रकार स्तवन प्रारम्भ किया --
अघनाशन-स्तोत्र
"आप भगवान् वासुदेव का हम ध्यान और नमस्कार करते हैं। आप ही प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, तथा संकर्षण हैं, आपको नमस्कार है । आप केवल भगवानस्वरूप तथा परमानन्दमूर्ति हैं, आपको नमस्कार है। आप आत्माराम, शान्त तथा आप समस्त इन्द्रियों के स्वामी (हृषिकेश) हैं, सबसे महान् तथा अनन्त शक्तियों से संपन्न हैं; आपको नमस्कार है। मन सहित वाणी के थककर निवृत्त हो जाने पर जो एकमात्र अपनी कृपा से ही सुलभ होनेवाले हैं, नाम और रूप से रहित चैतन्यघन ही जिनका स्वरूप है, वे सत् और असत् से परे विराजमान परमात्मा हम सबकी रक्षा करें। आप परम सत्य तथा निर्मल हैं, हम आपकी उपासना करते हैं। जो षड्विध ऐश्वर्य से युक्त परम पुरुष महानुभाव एवं समस्त विभूतियों के अधिपति हैं, उन भगवान् को नमस्कार है। परमेष्ठिन् ! आप सबसे उत्कृष्ट हैं, सम्पूर्ण भक्तसमुदाय आपके युगल चरणारविन्दों की बड़े लाड़-प्यार से सेवा करते हैं। आपको नमस्कार है। अग्नि आपका मुख है, पृथ्वी आपके दोनों चरण हैं, आकाश मस्तक है, चन्द्रमा और सूर्य दोनों नेत्र हैं, सम्पूर्ण लोक आपका शरीर है तथा चारों दिशाएँ आपकी चार भुजाएँ हैं। भगवान् ! आपको नमस्कार है। हे स्तुति करने योग्य परमात्मन् ! हे नाथ ! इस पृथ्वी पर कोई भी ऐसे प्रदेश नहीं हैं, जिनमें मेरा जन्म न हुआ हो, जहाँ मेरी मृत्यु न हुई हो। मैं समझता हूँ, यदि मेरे माता-पिताओं की गणना की जाय, तो यह विशाल पृथ्वी परमाणुओं की स्थिति में पहुँच जायगी-- असंख्य जन्मों के मेरे माता-पिताओं की गणना करने के लिए पृथ्वी के परमाणु बराबर टुकड़े करने पड़ेंगे। देवदेव ! मेरे जो मित्र, शत्रु, अनुजीवी, तथा भाई-बन्धु इस संसार में हो गए हैं, उन सबकी गणना करने में मैं सर्वथा असमर्थ हूँ। नाथ ! मैंने अपना मन बार-बार आपके चरणों में समर्पित किया, परंतु मेरा दुर्जय शत्रु काम अपने क्रोध आदि सहायकों के द्वारा उसे हठात् अपने वश में कर लेता है । भगवन् ! अब आप ही बताइये, ऐसी दशा में मैं क्या करूँ ? सर्वव्यापी परमेश्वर ! मैं बहुत ही पीड़ित हूँ। संसाररूपी गड्ढे में गिरे हुए इस दीन पर आप दया कीजिये। दुर्गति में पड़ा हुआ प्राणी भी महात्माओं की शरण में आ जाने पर कष्ट नहीं भोगता। रोगी मनुष्यों को शरण देनेवाला वैद्य है, महासागर में डूबे हुए मनुष्य का सहारा नौका है, बालक को आश्रय देनेवाले माता और पिता हैं, परंतु भगवन् ! अत्यन्त घोर संसार-बन्धन से दुःखी हुए मनुष्य को शरण देनेवाले केवल आप ही हैं।
सोऽहं भृशार्तः करुणां कुरु त्वं संसारगर्ते पतितस्य विष्णो।
महात्मनां संश्रयमभ्युपेतो नैवावसीदत्यपि दुर्गतोऽपि ।।
परायणं रोगवतां हि वैद्यो महाब्धिमग्नस्य च नौर्नरस्य ।
बालस्य मातापितरौ सुघोरसंसारखिन्नस्य हरे त्वमेकः ।।
सर्वस्वरूप सर्वेश्वर ! प्रसन्न होइए, आप ही सबके कारण हैं। पारमार्थिक सारतत्व भी आप ही हैं। महान् दुःख-समूह से भरे हुए संसाररूपी गड्ढे से स्वयं ही हाथ पकड़कर मुझे निकालिए। हे अच्युत ! हे उरुक्रम ! यह संसार भूख और प्यास से; वात, पित्त और कफ-- इन तीन धातुओं से; सर्दी, गर्मी, आँधी और वर्षा से, आपस में ही एक-दूसरे से तथा कभी न तृप्त होनेवाली कामाग्नि तथा क्रोधाग्नि से बारंबार पीड़ित होता है। इसे इस दशा में देखकर मेरा मन बहुत दुःखी हो रहा है। मैंने अपनी शक्ति के अनुसार सम्पूर्ण जगत् को धारण करनेवाले परमेश्वर भगवान् आप वासुदेव का स्तवन किया है। इससे सबका कल्याण हो, सम्पूर्ण जगत् के समस्त दोष नष्ट हो जाएँ। आज मेरे द्वारा जगद्धाता वासुदेव की स्तुति हुई है; इससे इस पृथ्वी पर, अंतरिक्ष में, स्वर्गलोक में तथा रसातल में भी जो कोई प्राणी रहते हों, वे सिद्धि को प्राप्त हों। मेरे द्वारा स्तुति-पाठ करते समय जो लोग इसको सुनते हैं, इस स्तोत्र का उच्चारण करते समय जो मुझे देखते हैं, वे देवता, असुर, मनुष्य तथा पशु-पक्षी कोई भी क्यों न हों, सभी भगवान् विष्णु के तत्त्व का ज्ञान प्राप्त करें। इनके सिवा जो गूँगे तथा अन्यान्य इन्द्रियों से रहित हैं, जो देख-सुन नहीं सकते वे, तथा पशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़े आदि भी आज भगवत्तत्त्वज्ञान के भागी हो जायँ। संसार में दुःखों का नाश हो जाय, समस्त प्रजा के हृदय से लोभ आदि दोषसमुदाय निकल जायँ। अपने में, अपने भाई और पुत्र में जैसा प्रेम और आत्मीयता का भाव होता है, सब लोगों का सबके प्रति वैसा ही भाव हो जाय। जो संसाररूपी रोग के चिकित्सक, सम्पूर्ण दोषों के निवारण में चतुर तथा परमानन्द की प्राप्ति के हेतुभूत हैं, वे भगवान् विष्णु सबके हृदय में विराजमान हों और ऐसा होने से सब लोगों के संसार-बन्धन शिथिल हो जायँ। सम्पूर्ण विश्व को धारण करनेवाले भगवान् वासुदेव का स्मरण करने पर मन, वाणी और शरीर द्वारा आचरित मेरे समस्त पाप नष्ट हो जायँ। हे वासुदेव ! ऐसा उच्चारण करने पर अथवा भगवान् विष्णु के भक्त की महिमा का कीर्तन करने पर, अथवा श्रीहरि का स्मरण करने पर समस्त पापों का नाश हो जाता है। यदि यह सत्य है, तो इस सत्य के प्रभाव से मेरा पाप नष्ट हो जाय। अखिलेश्वर ! आपके चरणों में पड़े हुए मुझ सेवक पर आप यह सोचकर कृपा कीजिए की 'यह बेचारा मूढ है-- कुछ जानता नहीं, इसकी बुद्धि बहुत थोड़ी है, इसके द्वारा उद्यम भी बहुत कम हो पाता है। विषयों से इसका मन सदा क्लेश में पड़ा रहता है, इसीलिए वह मुझमें नहीं लग पाता। ' देव ! आपकी स्तुति करने में ब्रह्माजी भी समर्थ नहीं हैं। भगवन् ! आप प्रसन्न होइये। हे विष्णो ! आप बड़े दयालु हैं, मुझ अनाथ पर कृपा कीजिये। हे अनन्त ! हे पापहारी हरि ! आप पुरुषोत्तम हैं, संसार-सागर में डूबे हुए मुझ दीन का उद्धार कीजिये। "
अर्जुन ! ऐतरेय के इस प्रकार स्तुति करने पर विशालकाय भगवान् वासुदेव ने आनन्दमग्न होकर कहा-- 'वत्स ऐतरेय ! मैं तुम्हारी भक्ति से और इस स्तुति से बहुत प्रसन्न हूँ। तुम मुझसे कोई मनोवांछित एवं दुर्लभ वर माँगो।
ऐतरेय ने कहा --
नाथ ! हरे ! मेरा अभीष्ट वर तो यही है कि घोर संसारसागर में डूबते हुए मुझ असहाय के लिए आप कर्णधार हो जायँ।
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क्रमशः ... ... ... ऐतरेय-9
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