प्रतीति, अनुभूति, ज्ञान और स्मृति
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एषो ह देवः प्रदिशो नु सर्वाः पूर्वो ह जातः स उ गर्भे अन्तः।
स एव जातः स जनिष्यमाणः प्रत्यङ्जनास्तिष्ठति सर्वतोमुखः।
(शिवअथर्वशीर्षम्)
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यही आधिदैविक सत्ता 'देव' अर्थात् कण-कण में प्रविष्ट 'देवता', -'विष्णु' के नाम से भी प्रख्यात होने से प्रभु या विभु भी कहा जाता है। चूँकि उसके अहम्-रूप से व्यक्त होते ही कण भी 'जीव' रूप में अपने अस्तित्व को कण में व्यक्त पाता है, इसलिए अहम्-रूप में वह स्वयंभू है। यही देवता तब उसकी अपनी सर्वात्मक प्रतीति को, वह जिसे 'ब्रह्म' के रूप में अपने से पृथक की तरह अनुभव करता है, स्वयंभू ब्रह्मा भी है।
इस प्रकार कारण-भेद से और कार्य-भेद से ही वह प्रभु, विभु, स्वयंभू और ईश्वर (शिव) विष्णु और ब्रह्मा होते हुए भी 'जीव' के रूप में भी 'अहम्' की तरह स्वप्रकाशित है, जिसे जाननेवाला उससे दूसरा कोई नहीं होता। इस प्रकार अकारण ही वह गर्भ में प्रविष्ट होकर कण-मात्र को अपने प्रकाश से प्राणित कर सीमित शक्ति युक्त 'जीव' कहलाता है। यह उसकी लीला है। लीला हेतु वह स्वयं ही अपने स्वरूप को विस्मृत कर देता है।
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कण-कण में विद्यमान प्रभु यूँ तो सदा समाधिस्थ होता है, इसलिए उसके संबंध में 'पहले' और 'बाद में' का सन्दर्भ निरर्थक है।
eṣo ha devaḥ pradiśo nu sarvāḥ pūrvo ha jātaḥ sa u garbhe antaḥ |
sa eva jāto sa janiṣyamāṇaḥ pratyaṅjanāstiṣṭhati sarvatomukhaḥ ||
(śiva-atharvaśīrṣa)
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Because This conscious entity देवता / devatā स्फुरित / sphurita (cognate -- Spirit); that has entered and pervaded in each and every particle, is therefore called विष्णु / viṣṇu , Is manifest in His own splendor, is therefore called प्रभु / prabhu, is 'other' than all such many different entities, is therefore called विभु / vibhu
and has evolved from His own is therefore called स्वयंभू / svayaṃbhū also.
As शिव / śiva , ब्रह्मा / brahmā and विष्णु / viṣṇu, He Himself just for play imposes upon Himself the 'ignorance' of oneself.
He 'becomes' many and enters the womb of Creation in the individual form and capacity.
At the level of His own world, He longs for becoming many and finds feels and experiences oneself as a unique individual.
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एषो ह देवः प्रदिशो नु सर्वाः पूर्वो ह जातः स उ गर्भे अन्तः।
स एव जातः स जनिष्यमाणः प्रत्यङ्जनास्तिष्ठति सर्वतोमुखः।
(शिवअथर्वशीर्षम्)
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यही आधिदैविक सत्ता 'देव' अर्थात् कण-कण में प्रविष्ट 'देवता', -'विष्णु' के नाम से भी प्रख्यात होने से प्रभु या विभु भी कहा जाता है। चूँकि उसके अहम्-रूप से व्यक्त होते ही कण भी 'जीव' रूप में अपने अस्तित्व को कण में व्यक्त पाता है, इसलिए अहम्-रूप में वह स्वयंभू है। यही देवता तब उसकी अपनी सर्वात्मक प्रतीति को, वह जिसे 'ब्रह्म' के रूप में अपने से पृथक की तरह अनुभव करता है, स्वयंभू ब्रह्मा भी है।
इस प्रकार कारण-भेद से और कार्य-भेद से ही वह प्रभु, विभु, स्वयंभू और ईश्वर (शिव) विष्णु और ब्रह्मा होते हुए भी 'जीव' के रूप में भी 'अहम्' की तरह स्वप्रकाशित है, जिसे जाननेवाला उससे दूसरा कोई नहीं होता। इस प्रकार अकारण ही वह गर्भ में प्रविष्ट होकर कण-मात्र को अपने प्रकाश से प्राणित कर सीमित शक्ति युक्त 'जीव' कहलाता है। यह उसकी लीला है। लीला हेतु वह स्वयं ही अपने स्वरूप को विस्मृत कर देता है।
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कण-कण में विद्यमान प्रभु यूँ तो सदा समाधिस्थ होता है, इसलिए उसके संबंध में 'पहले' और 'बाद में' का सन्दर्भ निरर्थक है।
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Perception, Experience, Knowledge and Memory.eṣo ha devaḥ pradiśo nu sarvāḥ pūrvo ha jātaḥ sa u garbhe antaḥ |
sa eva jāto sa janiṣyamāṇaḥ pratyaṅjanāstiṣṭhati sarvatomukhaḥ ||
(śiva-atharvaśīrṣa)
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Because This conscious entity देवता / devatā स्फुरित / sphurita (cognate -- Spirit); that has entered and pervaded in each and every particle, is therefore called विष्णु / viṣṇu , Is manifest in His own splendor, is therefore called प्रभु / prabhu, is 'other' than all such many different entities, is therefore called विभु / vibhu
and has evolved from His own is therefore called स्वयंभू / svayaṃbhū also.
As शिव / śiva , ब्रह्मा / brahmā and विष्णु / viṣṇu, He Himself just for play imposes upon Himself the 'ignorance' of oneself.
He 'becomes' many and enters the womb of Creation in the individual form and capacity.
At the level of His own world, He longs for becoming many and finds feels and experiences oneself as a unique individual.
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