एकहार्ट, अल-हिल्लाज,
रहस्यवाद के इतिहास पर विवेचना करने से पहले मैं यह कह सकता हूँ कि कोई भी ऋषि, कोई भी रहस्यदर्शी, चाहे वह प्लोटिनस / Plotinus / Πλωτῖνος जैसा प्राचीन हो, या श्रीरमण जैसा आधुनिक-कालीन, चाहे वह एकहार्ट जैसा क्रिश्चियन हो, या अल-हिल्लाज / Al Hallaaj जैसा सूफ़ी, इस तरह की कोई कठिनाई अनुभव नहीं करता । रहस्यदर्शी को मतों अथवा सैद्धान्तिक विवेचनों में कोई रुचि नहीं होती । उसकी रुचि चेतना के उन स्तरों में होती है जिन तक मनुष्य पहुँच सकता हो । हालाँकि अपने अनुभव को व्याख्यायित करने हेतु वह मतवादों को अथवा किसी पद्धति-विशेष को उपयोग में लाए, यह भी हो सकता है । किंतु उसके जीवन का एकमात्र मार्गदर्शन तो अनुभव-रूपी ध्रुवतारा ही करता है । विभिन्न वैचारिक-संरचनाएँ, चाहे वे परस्पर विपरीत ही क्यों न होती हों, उसकी दृष्टि में समान रूप से युक्तिसंगत हो सकती हैं । क्या वास्तव में विभिन्न विचारधाराओं को इस दृष्टि से नहीं देखा जा सकता, जैसा कि किसी एक ही स्थान का नक्शा अलग-अलग लोगों द्वारा अलग-अलग पैमाने पर खींचे जाने पर भी मूलतः भूमि और सागर आदि का ही रेखांकन होता है? इसीलिए श्रीरमण सदा इस बात पर जोर देते थे कि जगत्-अनुभव यद्यपि सत्य है, किंतु वह अपने-आपमें, स्व-आश्रित सत्य नहीं है । उसकी सत्यता सापेक्ष एवं गौण है : यह आत्मा (अस्तित्व, सत्) की ही अभिव्यक्ति मात्र है जो कि उनकी दृष्टि में नित्य विद्यमान सत्य, आनन्द और चैतन्य है, और जीवन के सभी आयामों को अपने में व्याप्त किए हुए है । और अक्षरशः यह उनके लिए ऐसा ही था, उनके जीवन के प्रत्येक क्षण में, प्रति श्वास में वे यही पाते थे । चूँकि उनमें एक गहरा हास्य-बोध भी था इसलिए माया के सिद्धान्त की कोरी बौद्धिक मान्यता के छाया-तले, उस सिद्धान्त पर हठपूर्वक चलकर जिए जानेवाले जीवन की कल्पना पर उन्हें अवश्य ही हँसी आती रही होगी । और सद्वस्तु, -सारतत्व कोई धारणा नहीं है, ऐसी कोई वस्तु नहीं है जिसे कि काल की प्रक्रिया में कभी उपलब्ध किया जाना होता है, बल्कि वह तो यहाँ और अभी, सद्यप्राप्त है, ऐसा कहते हुए वे कभी थके नहीं ।और जो सत्य हमें विरोधाभासपूर्ण प्रतीत होता है और जिसे कहने की क्षमता केवल किसी रहस्यदर्शी में ही हुआ करती है, उसे कहते हुए उनका वक्तव्य यह भी होता था कि सद्वस्तु को जानने का तात्पर्य है मिथ्या विचारकर्ता से, और उसे घेरनेवाले, उसे आच्छादित करनेवाले विचार से रहित सत्-चित्-आनन्द में दृढ़ता से अवस्थित रहना । क्योंकि ज्ञान तो केवल विषयों का ही हुआ करता है और इन विषयों की अपने-आपमें स्वतंत्र सत्ता नहीं होती : और पुनः यह भी सत्य है कि ज्ञान का सद्वस्तु से ऐसा कोई पृथक् अस्तित्व नहीं होता कि वह सद्वस्तु को ज्ञात के रूप में जान सके ।
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.... निरंतर ....
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रहस्यवाद के इतिहास पर विवेचना करने से पहले मैं यह कह सकता हूँ कि कोई भी ऋषि, कोई भी रहस्यदर्शी, चाहे वह प्लोटिनस / Plotinus / Πλωτῖνος जैसा प्राचीन हो, या श्रीरमण जैसा आधुनिक-कालीन, चाहे वह एकहार्ट जैसा क्रिश्चियन हो, या अल-हिल्लाज / Al Hallaaj जैसा सूफ़ी, इस तरह की कोई कठिनाई अनुभव नहीं करता । रहस्यदर्शी को मतों अथवा सैद्धान्तिक विवेचनों में कोई रुचि नहीं होती । उसकी रुचि चेतना के उन स्तरों में होती है जिन तक मनुष्य पहुँच सकता हो । हालाँकि अपने अनुभव को व्याख्यायित करने हेतु वह मतवादों को अथवा किसी पद्धति-विशेष को उपयोग में लाए, यह भी हो सकता है । किंतु उसके जीवन का एकमात्र मार्गदर्शन तो अनुभव-रूपी ध्रुवतारा ही करता है । विभिन्न वैचारिक-संरचनाएँ, चाहे वे परस्पर विपरीत ही क्यों न होती हों, उसकी दृष्टि में समान रूप से युक्तिसंगत हो सकती हैं । क्या वास्तव में विभिन्न विचारधाराओं को इस दृष्टि से नहीं देखा जा सकता, जैसा कि किसी एक ही स्थान का नक्शा अलग-अलग लोगों द्वारा अलग-अलग पैमाने पर खींचे जाने पर भी मूलतः भूमि और सागर आदि का ही रेखांकन होता है? इसीलिए श्रीरमण सदा इस बात पर जोर देते थे कि जगत्-अनुभव यद्यपि सत्य है, किंतु वह अपने-आपमें, स्व-आश्रित सत्य नहीं है । उसकी सत्यता सापेक्ष एवं गौण है : यह आत्मा (अस्तित्व, सत्) की ही अभिव्यक्ति मात्र है जो कि उनकी दृष्टि में नित्य विद्यमान सत्य, आनन्द और चैतन्य है, और जीवन के सभी आयामों को अपने में व्याप्त किए हुए है । और अक्षरशः यह उनके लिए ऐसा ही था, उनके जीवन के प्रत्येक क्षण में, प्रति श्वास में वे यही पाते थे । चूँकि उनमें एक गहरा हास्य-बोध भी था इसलिए माया के सिद्धान्त की कोरी बौद्धिक मान्यता के छाया-तले, उस सिद्धान्त पर हठपूर्वक चलकर जिए जानेवाले जीवन की कल्पना पर उन्हें अवश्य ही हँसी आती रही होगी । और सद्वस्तु, -सारतत्व कोई धारणा नहीं है, ऐसी कोई वस्तु नहीं है जिसे कि काल की प्रक्रिया में कभी उपलब्ध किया जाना होता है, बल्कि वह तो यहाँ और अभी, सद्यप्राप्त है, ऐसा कहते हुए वे कभी थके नहीं ।और जो सत्य हमें विरोधाभासपूर्ण प्रतीत होता है और जिसे कहने की क्षमता केवल किसी रहस्यदर्शी में ही हुआ करती है, उसे कहते हुए उनका वक्तव्य यह भी होता था कि सद्वस्तु को जानने का तात्पर्य है मिथ्या विचारकर्ता से, और उसे घेरनेवाले, उसे आच्छादित करनेवाले विचार से रहित सत्-चित्-आनन्द में दृढ़ता से अवस्थित रहना । क्योंकि ज्ञान तो केवल विषयों का ही हुआ करता है और इन विषयों की अपने-आपमें स्वतंत्र सत्ता नहीं होती : और पुनः यह भी सत्य है कि ज्ञान का सद्वस्तु से ऐसा कोई पृथक् अस्तित्व नहीं होता कि वह सद्वस्तु को ज्ञात के रूप में जान सके ।
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