शिक्षा और 'विचार'
शिक्षा के बारे में कुछ कहे जाने से पहले ’विचार’ के बारे में कुछ तथ्यों पर ध्यान देना उपयोगी होगा ।
विचार जो किसी भी भाषा में भावाभिव्यक्ति का शाब्दिक प्रकार है अपरिहार्यतः किसी न किसी सन्दर्भ और विषय से संबद्ध होता है ।
इसलिए विचार बुद्धि की कोई गतिविधि है ।
इसे दूसरे तरीके से कहा जाए तो विचार के रूप में असंख्य बुद्धियाँ मनुष्य के मन में उठती और विलीन होती रहती हैं । इन सभी बुद्धियों का कोई सन्दर्भ और विषय भी होता है । सन्दर्भ और विषय के अभाव में बुद्धि का कार्य प्रारंभ ही नहीं होता ।
प्रजातंत्र नामक राजनीतिक प्रणाली में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को नागरिक का मूल अधिकार स्वीकार किया गया है ।
यहाँ एक प्रश्न उठता है कि शुद्धतः भौतिक विषयों / प्रकरणों में तो संविधान-संमत न्याय के अनुसार कोई निर्णय सुनाया जा सकता है किंतु जब धर्म या धर्म के नाम पर व्यक्ति की आस्था का प्रश्न उठता है जिसमें दूसरे किसी व्यक्ति के अधिकार का हनन होता दिखाई पड़ता हो तो न्याय-प्रणाली की अपनी मर्यादाएँ हो सकती हैं ।
क्या आस्था का प्रश्न वैचारिक तर्क-वितर्क से हल किया जा सकता है?
जब दूसरे किसी व्यक्ति के अधिकार का हनन होता दिखाई पड़ता हो :
वैचारिक तर्क-वितर्क का एक बौद्धिक धरातल और कसौटी होती है ।
आस्था का आधार कोई विचार नहीं बल्कि परंपरा या अन्तर्दृष्टि होता है ।
परंपरा के अर्थ में जिसे ’धर्म’ अर्थात् रिलीजन कहा जाता है, वास्तव में एक भ्रमोत्पादक शब्द है ।
धर्म का आधार आस्था होता है किंतु आस्थारूपी ऐसा आधार पुनः या तो परंपरा से या फिर अन्तर्दृष्टि से स्वीकार कर लिया जाता है ।
जैसे आतंकवाद अच्छा या बुरा (गुड ऑर बैड) नहीं होता वैसे ही मूलतः तो कोई भी विचार सत्य या असत्य, ठीक या गलत, नहीं होता । वह अपने विशिष्ट विषय के सन्दर्भ में ही उचित या अनुचित हो सकता है । विषय और सन्दर्भ से विच्छिन्न विचार लक्ष्यहीन होने से अराजक होता है । इसी प्रकार विषय और सन्दर्भ से जोड़कर देखने पर वह आवश्यकता के अनुसार अवश्य ही व्याख्येय और विवेच्य भी हो सकता है ।
ईश्वर का विचार ऐसा ही एक विचार है ।
सांख्य-दर्शन भी किसी स्वतंत्र ईश्वर के बारे में कुछ नहीं कहता ।
सांख्य ईश्वर नामक सत्ता की व्याख्या या विवेचना इसलिए भी नहीं करता क्योंकि यदि ईश्वर नामक किसी सत्ता का अस्तित्व है भी तो वह जगत् से अविच्छिन्न होने से ’दूसरा’ नहीं हो सकता । अव्याख्येय और अनिर्देश्य तो वह है ही ।
इसलिए ईश्वर है या नहीं, क्या है? -यह आस्था का विषय है न कि विचार या बुद्धि का ।
इसलिए विचार की शिक्षा और आस्था की शिक्षा परस्पर बहुत भिन्न प्रकार की शिक्षाएँ हैं ।
विचार की शिक्षा भी पुनः दो प्रकार की हो सकती है :
एक तो किसी विचार की सत्यता या असत्यता की विवेचना और परीक्षा द्वारा कोई सर्वसंमत निष्कर्ष प्राप्त करना ।
इसलिए विज्ञान द्वारा प्राप्त सत्यों या निष्कर्षों पर असहमति प्रायः नहीं पाई जाती ।
विचार की शिक्षा का दूसरा प्रकार वह है जिसमें स्वयं ’विचार’ क्या है? अर्थात् विचार विचारमात्र की तरह से क्या है इस प्रश्न को हल करने का प्रयास किया जाता है ।
जैसा कि पहले कहा गया, विचार का कोई संदर्भ और विषय होता है, इसलिए विचार स्वरूपतः मर्यादित सत्य / तथ्य होता है ।
इसलिए दो भिन्न विचार एक ही विषय और संदर्भ से जुड़े होने पर ही ग्राह्य और विवेचनीय तथा उपयोगी या व्यर्थ हो सकते हैं ।
आस्था का विचार भी एक विचार है और जब परंपरा से चली आ रही किसी आस्था पर प्रश्न उठाए जा सकते हैं तो वैचारिक स्तर पर उसका हल खोजना विचार के अधिकार-क्षेत्र से बाहर का प्रयास होता है ।
जब दूसरे किसी व्यक्ति के अधिकार का हनन होता दिखाई पड़ता हो :
क्या किसी एक समूह की आस्था किसी दूसरे समूह पर बलपूर्वक आरोपित की जा सकती है?
विचार के स्तर पर तो यही कहा जा सकता है कि ऐसा करना अनुचित होगा ।
किंतु जब एक ही समुदाय में दो वर्गों में परस्पर मतभेद हो तो क्या वह प्रश्न उस समुदाय पर ही छोड़ना उचित नहीं होगा?
विशेष रूप से उस स्थिति में जब इससे उस समुदाय के किसी निर्णय से अन्य समुदायों (वर्ग नहीं) पर कोई प्रभाव न पड़ता हो?
मानव-मन मेज़ेनाइन-फ़्लोर / mezzanine-floor (औसत-बुद्धि / मीडियॉकर-माइंड) पर अवस्थित प्रक्रिया है जिसे वैदिक भाषा में ’आधिदैविक’ कहा जाता है ।
यही आस्था का आधार और अधिष्ठान भी है ।
तात्पर्य यह कि भिन्न-भिन्न आस्थाएँ इसी आधिदैविक भूमि से प्रकट होकर इसी में विलीन हो जाती हैं । वे न तो उत्पन्न, और न नष्ट होती हैं ।
शिक्षा के इन दो पक्षों पर ध्यान देना ही शिक्षा-व्यवस्था के लिए सबसे बड़ी चुनौती है ।
"सबका विकास, सबका साथ" की भावना होने पर मीडियॉकर-माइंड (mediocre-mind) से कैसे ऊपर उठा जा सकता है, यह प्रश्न सभी के लिए विचारणीय है ।
'न्यूज़' में सुना कि शिक्षा-नीति पर आज कहीं कोई बड़ा सम्मलेन होनेवाला है ... , तो सोचा इस पर एक 'पोस्ट' लिखी जा सकती है !
'न्यूज़' में ही अय्यप्पा मंदिर में स्त्रियों के प्रवेश के बारे में न्यायालय के फैसले का समाचार भी सुना तो 'आस्था' का विचार भी इस पोस्ट को लिखने के लिए एक बहाना बन गया।
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(प्रसंगवश : वर्ष 2002 में श्री जे. कृष्णमूर्ति के 'Talks with Students -Varanasi 1954' का मेरे द्वारा किया गया हिंदी अनुवाद "शिक्षा क्या है?" प्रकाशित हुआ था।)
शिक्षा के बारे में कुछ कहे जाने से पहले ’विचार’ के बारे में कुछ तथ्यों पर ध्यान देना उपयोगी होगा ।
विचार जो किसी भी भाषा में भावाभिव्यक्ति का शाब्दिक प्रकार है अपरिहार्यतः किसी न किसी सन्दर्भ और विषय से संबद्ध होता है ।
इसलिए विचार बुद्धि की कोई गतिविधि है ।
इसे दूसरे तरीके से कहा जाए तो विचार के रूप में असंख्य बुद्धियाँ मनुष्य के मन में उठती और विलीन होती रहती हैं । इन सभी बुद्धियों का कोई सन्दर्भ और विषय भी होता है । सन्दर्भ और विषय के अभाव में बुद्धि का कार्य प्रारंभ ही नहीं होता ।
प्रजातंत्र नामक राजनीतिक प्रणाली में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को नागरिक का मूल अधिकार स्वीकार किया गया है ।
यहाँ एक प्रश्न उठता है कि शुद्धतः भौतिक विषयों / प्रकरणों में तो संविधान-संमत न्याय के अनुसार कोई निर्णय सुनाया जा सकता है किंतु जब धर्म या धर्म के नाम पर व्यक्ति की आस्था का प्रश्न उठता है जिसमें दूसरे किसी व्यक्ति के अधिकार का हनन होता दिखाई पड़ता हो तो न्याय-प्रणाली की अपनी मर्यादाएँ हो सकती हैं ।
क्या आस्था का प्रश्न वैचारिक तर्क-वितर्क से हल किया जा सकता है?
जब दूसरे किसी व्यक्ति के अधिकार का हनन होता दिखाई पड़ता हो :
वैचारिक तर्क-वितर्क का एक बौद्धिक धरातल और कसौटी होती है ।
आस्था का आधार कोई विचार नहीं बल्कि परंपरा या अन्तर्दृष्टि होता है ।
परंपरा के अर्थ में जिसे ’धर्म’ अर्थात् रिलीजन कहा जाता है, वास्तव में एक भ्रमोत्पादक शब्द है ।
धर्म का आधार आस्था होता है किंतु आस्थारूपी ऐसा आधार पुनः या तो परंपरा से या फिर अन्तर्दृष्टि से स्वीकार कर लिया जाता है ।
जैसे आतंकवाद अच्छा या बुरा (गुड ऑर बैड) नहीं होता वैसे ही मूलतः तो कोई भी विचार सत्य या असत्य, ठीक या गलत, नहीं होता । वह अपने विशिष्ट विषय के सन्दर्भ में ही उचित या अनुचित हो सकता है । विषय और सन्दर्भ से विच्छिन्न विचार लक्ष्यहीन होने से अराजक होता है । इसी प्रकार विषय और सन्दर्भ से जोड़कर देखने पर वह आवश्यकता के अनुसार अवश्य ही व्याख्येय और विवेच्य भी हो सकता है ।
ईश्वर का विचार ऐसा ही एक विचार है ।
सांख्य-दर्शन भी किसी स्वतंत्र ईश्वर के बारे में कुछ नहीं कहता ।
सांख्य ईश्वर नामक सत्ता की व्याख्या या विवेचना इसलिए भी नहीं करता क्योंकि यदि ईश्वर नामक किसी सत्ता का अस्तित्व है भी तो वह जगत् से अविच्छिन्न होने से ’दूसरा’ नहीं हो सकता । अव्याख्येय और अनिर्देश्य तो वह है ही ।
इसलिए ईश्वर है या नहीं, क्या है? -यह आस्था का विषय है न कि विचार या बुद्धि का ।
इसलिए विचार की शिक्षा और आस्था की शिक्षा परस्पर बहुत भिन्न प्रकार की शिक्षाएँ हैं ।
विचार की शिक्षा भी पुनः दो प्रकार की हो सकती है :
एक तो किसी विचार की सत्यता या असत्यता की विवेचना और परीक्षा द्वारा कोई सर्वसंमत निष्कर्ष प्राप्त करना ।
इसलिए विज्ञान द्वारा प्राप्त सत्यों या निष्कर्षों पर असहमति प्रायः नहीं पाई जाती ।
विचार की शिक्षा का दूसरा प्रकार वह है जिसमें स्वयं ’विचार’ क्या है? अर्थात् विचार विचारमात्र की तरह से क्या है इस प्रश्न को हल करने का प्रयास किया जाता है ।
जैसा कि पहले कहा गया, विचार का कोई संदर्भ और विषय होता है, इसलिए विचार स्वरूपतः मर्यादित सत्य / तथ्य होता है ।
इसलिए दो भिन्न विचार एक ही विषय और संदर्भ से जुड़े होने पर ही ग्राह्य और विवेचनीय तथा उपयोगी या व्यर्थ हो सकते हैं ।
आस्था का विचार भी एक विचार है और जब परंपरा से चली आ रही किसी आस्था पर प्रश्न उठाए जा सकते हैं तो वैचारिक स्तर पर उसका हल खोजना विचार के अधिकार-क्षेत्र से बाहर का प्रयास होता है ।
जब दूसरे किसी व्यक्ति के अधिकार का हनन होता दिखाई पड़ता हो :
क्या किसी एक समूह की आस्था किसी दूसरे समूह पर बलपूर्वक आरोपित की जा सकती है?
विचार के स्तर पर तो यही कहा जा सकता है कि ऐसा करना अनुचित होगा ।
किंतु जब एक ही समुदाय में दो वर्गों में परस्पर मतभेद हो तो क्या वह प्रश्न उस समुदाय पर ही छोड़ना उचित नहीं होगा?
विशेष रूप से उस स्थिति में जब इससे उस समुदाय के किसी निर्णय से अन्य समुदायों (वर्ग नहीं) पर कोई प्रभाव न पड़ता हो?
मानव-मन मेज़ेनाइन-फ़्लोर / mezzanine-floor (औसत-बुद्धि / मीडियॉकर-माइंड) पर अवस्थित प्रक्रिया है जिसे वैदिक भाषा में ’आधिदैविक’ कहा जाता है ।
यही आस्था का आधार और अधिष्ठान भी है ।
तात्पर्य यह कि भिन्न-भिन्न आस्थाएँ इसी आधिदैविक भूमि से प्रकट होकर इसी में विलीन हो जाती हैं । वे न तो उत्पन्न, और न नष्ट होती हैं ।
शिक्षा के इन दो पक्षों पर ध्यान देना ही शिक्षा-व्यवस्था के लिए सबसे बड़ी चुनौती है ।
"सबका विकास, सबका साथ" की भावना होने पर मीडियॉकर-माइंड (mediocre-mind) से कैसे ऊपर उठा जा सकता है, यह प्रश्न सभी के लिए विचारणीय है ।
'न्यूज़' में सुना कि शिक्षा-नीति पर आज कहीं कोई बड़ा सम्मलेन होनेवाला है ... , तो सोचा इस पर एक 'पोस्ट' लिखी जा सकती है !
'न्यूज़' में ही अय्यप्पा मंदिर में स्त्रियों के प्रवेश के बारे में न्यायालय के फैसले का समाचार भी सुना तो 'आस्था' का विचार भी इस पोस्ट को लिखने के लिए एक बहाना बन गया।
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(प्रसंगवश : वर्ष 2002 में श्री जे. कृष्णमूर्ति के 'Talks with Students -Varanasi 1954' का मेरे द्वारा किया गया हिंदी अनुवाद "शिक्षा क्या है?" प्रकाशित हुआ था।)
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