संबंध, संपर्क और संघात
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ऋग्वेद मंडल 10 का यह सूक्त रोचक है किंतु काव्यात्मक होने से इसका कोई सर्वसम्मत सुनिश्चित तार्किक अर्थ, व्याख्या या विवेचना नहीं हो सकती है। अपने लिए, हर कोई अपने संतोष के लिए जैसी चाहे वैसी विवेचना अवश्य कर सकता है।
कोई भी 'अर्थ', व्याख्या या विवेचना किसी 'बुद्धि' पर अवलंबित होती है और बुद्धि स्वयं 'जो है' (what Is) की अभिव्यक्ति (expression), उन्मेष (awakening) है।
जब यह कहा जाता है कि 'प्रारंभ में', अर्थात् 'पहले' / तब; - न 'सत्' था और न 'असत्' तो 'प्रारंभ में', अर्थात् 'पहले' / तब को अनायास स्वीकार कर लिया जाता है। किंतु स्पष्ट है कि 'प्रारंभ में', अर्थात् 'पहले' / तब का विचार अभी इसी समय मन / बुद्धि में स्फुरित होने के बाद ही तो ग्राह्य हुआ!
और इस विचार के उद्गम / स्रोत की ओर से ध्यान हटकर विचार-निर्देशित काल्पनिक संभावना :
'प्रारंभ में', अर्थात् 'पहले' / तब;
को इस प्रकार एक स्वतंत्र (और अज्ञात) सत्ता को विचार के उद्गम / स्रोत से भिन्न की तरह महत्त्व दिया गया। इस प्रकार काल्पनिक द्वैत के आगमन के बाद ही यह प्रश्न उठा कि 'प्रारंभ में', अर्थात् 'पहले' / तब; क्या था ?
द्वैत के आगमन के बाद ही एक ही वास्तविकता से दो तत्व अभिव्यक्त होने से द्वैत को सत्य मान लिया गया। द्वैत को स्वीकार किए जाने पर ही उन दोनों के मध्य संपर्क (contact), संघात (interaction) और संबंध (relation) नामक अवधारणाएँ पैदा हुईं।
यहाँ होने का मतलब है :
संपर्क, संघात और संबंध होना।
यह हुआ व्यावहारिक सत्य जिससे न तो कोई बच सकता है, न इस तथ्य की अवहेलना कर सकता है।
'खुद से बातें करना' फिर क्या है?
क्या खुद से बातें करने के लिए भी खुद को दो में तोड़ना ज़रूरी नहीं होता ?
इस प्रकार से खुद को दो में तोड़ने पर ही 'मैं' और 'संसार' की दुविधा बुद्धि में पैदा होती है और फिर ऐसे असंख्य 'मैं' परस्पर संपर्क, संघात और संबंध की व्यवस्था में परस्पर 'संबद्ध' होते हैं।
'यहाँ' और 'वहाँ' पुनः 'सर्वत्र' के ही दो भिन्न प्रतीत होनेवाले दो नाम हैं।
'सर्वत्र' जो सदा 'अभी' ही होता है।
'यहाँ' और 'वहाँ' अतीत और भविष्य में होते हैं।
उन दोनों का विस्तार होता है जिसे मन जैसा चाहे उतना दीर्घ या अल्पप्राय भी बना लेता है।
संपर्क, संघात और संबंध की अपनी वास्तविकता, उपयोग और शायद ज़रूरत भी है ही।
किंतु उनके औचित्य और प्रयोजन को ठीक से न समझने पर वे कभी कभी असंतोष और उद्विग्नता पैदा कर सकते हैं।
यह हुआ यहाँ होने का मतलब...
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ऋग्वेद मंडल 10 का यह सूक्त रोचक है किंतु काव्यात्मक होने से इसका कोई सर्वसम्मत सुनिश्चित तार्किक अर्थ, व्याख्या या विवेचना नहीं हो सकती है। अपने लिए, हर कोई अपने संतोष के लिए जैसी चाहे वैसी विवेचना अवश्य कर सकता है।
कोई भी 'अर्थ', व्याख्या या विवेचना किसी 'बुद्धि' पर अवलंबित होती है और बुद्धि स्वयं 'जो है' (what Is) की अभिव्यक्ति (expression), उन्मेष (awakening) है।
जब यह कहा जाता है कि 'प्रारंभ में', अर्थात् 'पहले' / तब; - न 'सत्' था और न 'असत्' तो 'प्रारंभ में', अर्थात् 'पहले' / तब को अनायास स्वीकार कर लिया जाता है। किंतु स्पष्ट है कि 'प्रारंभ में', अर्थात् 'पहले' / तब का विचार अभी इसी समय मन / बुद्धि में स्फुरित होने के बाद ही तो ग्राह्य हुआ!
और इस विचार के उद्गम / स्रोत की ओर से ध्यान हटकर विचार-निर्देशित काल्पनिक संभावना :
'प्रारंभ में', अर्थात् 'पहले' / तब;
को इस प्रकार एक स्वतंत्र (और अज्ञात) सत्ता को विचार के उद्गम / स्रोत से भिन्न की तरह महत्त्व दिया गया। इस प्रकार काल्पनिक द्वैत के आगमन के बाद ही यह प्रश्न उठा कि 'प्रारंभ में', अर्थात् 'पहले' / तब; क्या था ?
द्वैत के आगमन के बाद ही एक ही वास्तविकता से दो तत्व अभिव्यक्त होने से द्वैत को सत्य मान लिया गया। द्वैत को स्वीकार किए जाने पर ही उन दोनों के मध्य संपर्क (contact), संघात (interaction) और संबंध (relation) नामक अवधारणाएँ पैदा हुईं।
यहाँ होने का मतलब है :
संपर्क, संघात और संबंध होना।
यह हुआ व्यावहारिक सत्य जिससे न तो कोई बच सकता है, न इस तथ्य की अवहेलना कर सकता है।
'खुद से बातें करना' फिर क्या है?
क्या खुद से बातें करने के लिए भी खुद को दो में तोड़ना ज़रूरी नहीं होता ?
इस प्रकार से खुद को दो में तोड़ने पर ही 'मैं' और 'संसार' की दुविधा बुद्धि में पैदा होती है और फिर ऐसे असंख्य 'मैं' परस्पर संपर्क, संघात और संबंध की व्यवस्था में परस्पर 'संबद्ध' होते हैं।
'यहाँ' और 'वहाँ' पुनः 'सर्वत्र' के ही दो भिन्न प्रतीत होनेवाले दो नाम हैं।
'सर्वत्र' जो सदा 'अभी' ही होता है।
'यहाँ' और 'वहाँ' अतीत और भविष्य में होते हैं।
उन दोनों का विस्तार होता है जिसे मन जैसा चाहे उतना दीर्घ या अल्पप्राय भी बना लेता है।
संपर्क, संघात और संबंध की अपनी वास्तविकता, उपयोग और शायद ज़रूरत भी है ही।
किंतु उनके औचित्य और प्रयोजन को ठीक से न समझने पर वे कभी कभी असंतोष और उद्विग्नता पैदा कर सकते हैं।
यह हुआ यहाँ होने का मतलब...
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