Monday, 24 September 2018

क्या जीवन एक सातत्य है?

 बहुत समय पहले,
 "क्या जीवन एक अंतहीन बहस है?"
शीर्षक से कुछ लिखा था।
दूसरे तरीके से समझना चाहा, तो प्रश्न ने,
"क्या जीवन एक अनंत यात्रा है?"
का रूप लिया।
दोनों ही रूपों में प्रश्न कुछ अपर्याप्त और अधूरा-अधूरा सा लग रहा था।
इसलिए समझने की कोशिश कर रहा था कि ऐसा क्यों लग रहा है ।
दोनों ही रूपों में इस मूल प्रश्न की ओर ध्यान नहीं दिया गया था कि 'जिसके' जीवन के बारे में प्रश्न है वह क्या / कौन है।
इसे इस ढंग से देखा : 
जीवन संपर्क में होता है ।
अर्थात् व्यक्ति के संदर्भ में कोई 'समाज' और 'समाज' के संदर्भ में कोई 'व्यक्ति' होता है जहाँ भी 'जीवन' नामक प्रसंग अस्तित्व में आता है।
यह 'व्यक्ति' कोई मनुष्य है तो 'समाज' एक से अधिक 'व्यक्तियों' का समूह।
एक के अभाव में दूसरे का जीवन नहीं हो सकता।
हो सकता है स्वेच्छा या अनिच्छा से या परिस्थितियों आदि किसी कारण से कोई मनुष्य नितांत एकांत में रहने लगे, जहाँ उसका संपर्क दूसरे लोगों से पूरी तरह समाप्त हो जाए, तब क्या उसका कोई व्यक्तिगत या सामाजिक जीवन हो सकता है?
क्या वह अपने-आपसे बातें करने लगता है?
न सिर्फ मनुष्य बल्कि हर प्रकार का अस्तित्व चेतना का ही विविध प्रकार है।
आप कह सकते हैं कि क्या पत्थर भी चेतनायुक्त होता है?
यह प्रश्न किसके 'मन' में उठता है?
पत्थर में कोई 'मन' है या नहीं इसकी जिज्ञासा किसी मनुष्य के 'मन' में ही उठती है।
जैसे मनुष्य के पास इसका प्रमाण नहीं कि पत्थर में 'मन' है, वैसे ही इसका प्रमाण भी मनुष्य के पास नहीं है की पत्थर में 'मन' नहीं है।
संक्षेप में,
'मन' वहाँ होता है जहाँ 'व्यक्तित्व' होता है।
और जहाँ 'व्यक्तित्व' होता है,  वहाँ 'मन' होता है ।
क्या 'समाज'  का कोई 'व्यक्तित्व' या कोई 'मन' होता है?
क्या 'समाज' व्यक्ति का विचार ही नहीं होता ?
अपने संदर्भ में व्यक्ति को अपने जीवन के विषय में संदेह नहीं होता और न हो सकता है, क्योंकि ऐसा संदेह होना भी जीवन के होने से ही संभव है। इस प्रकार जीवन का अस्तित्व तो असंदिग्ध और अकाट्य सत्य है। 
किंतु व्यक्तिगत या / और सामाजिक जीवन? -विशेषरूप से मनुष्य का जीवन जो भाषा नामक माध्यम से परस्पर संवाद करते हैं? भाषा संवेदन (perception) के ग्रहण करने और उससे उत्पन्न प्रतिक्रया को सम्प्रेषित करने का साधन है जो विकसित होकर परमार्जित तथा दुरूह और क्लिष्ट रूप लेता है जिसे 'विचार' कहते हैं।
संवेदन (perception) किसी विषय (object) का होता है और 'जिस' चेतना में यह होता है वह अवश्य ही किसी जीवित  देह-विशेष से सम्बद्ध होती है। 
संपर्क में आए 'विषय' के संवेदनकर्ता को  'विषयी' (subject) कहा जाता है।
इस प्रकार विषय तथा विषयी का परस्पर संपर्क ही चेतना में संवेदन के रूप में ग्रहण किया जाता है।
'विचार', भाषा का एक औपचारिक रूप होता है और विचार के माध्यम से जो कुछ संवेदित किया जाता है उसका प्रत्युत्तर तार्किक अथवा भावनात्मक या मिले-जुले रूप में होता है जब शुद्धतः तार्किक तात्पर्य ग्रहण / संवेदित और संप्रेषित किया जाता है तो व्यवहार का एक पैमाना होता है।  लेकिन जब प्रत्युत्तर भावनात्मक या मिले-जुले रूप में ग्रहण / संवेदित और संप्रेषित किया जाता है तो व्यवहार का एक अलग, दूसरा पैमाना होता है।
तर्क बुद्धि / विचार की प्रधानता का द्योतक है, जबकि भावना भाव की प्रधानता का।  बुद्धि या विचार भी पुनः मशीनी ढंग का तकनीकी रूपा का हो सकता है या उसमें संवेदन का एक ऐसा तत्व हो सकता है जिसे जीवन अर्थात् भावना का स्पर्श कह सकते हैं। इस प्रकार एक ही 'विचार' भिन्न-भिन्न बौद्धिक और भावनात्मक तात्पर्य व्यक्त करता है।  जैसे :
"I love you. "
शाब्दिक दृष्टि से केवल तीन शब्दों का एक वाक्य है जिसे किस प्रकार से कहा / लिखा या व्यक्त किया गया है, ग्रहण और सम्प्रेषित किया गया है उसके अनुसार यह केवल एक तकनीकी (formal), औपचारिकता के अर्थ में या भावुकता / भावनात्मकता के अर्थ वाले वाक्य की तरह समझा जा सकता है।
भावना एक त्वरित स्वाभाविक प्रत्युत्तर है, जबकि भावुकता एक अपरिपक्व मनःस्थिति।  दूसरी और, भावना एक परिपक्व प्रत्युत्तर होते हुए भी या तो emotion हो सकती है या feeling .
feeling होने की स्थिति में भावना किसी पूर्व-अनुभूति के सन्दर्भ में वर्त्तमान स्थिति में दिया गया स्मृति-प्रेरित conditioned response हो सकता है।  emotion होने की स्थिति में यह सहज प्रतिक्रिया का उद्रेक (evoke) होना होता है।
इस प्रकार emotion और feeling के रूप में भावना का सम्प्रेषण भाषा से या भंगिमा से भी किया जा सकता है।
चूँकि हर मनुष्य अपने ढंग से किसी से संपर्क में होने पर प्रत्युत्तर देता है, इस दृष्टि से हर मनुष्य का अपना एक 'मन' होता है जो उस व्यक्ति का व्यक्तित्व है।
किंतु क्या समाज का ऐसा कोई 'मन' या व्यक्तित्व हो सकता है?
किंतु समाज में ही व्यक्तियों के अनेक समूह / वर्ग होते हैं जिनके 'विचाऱ' परस्पर भिन्न-भिन्न होते हैं या हो सकते हैं।  और जैसे व्यक्ति का जीवन उसके विचारों, भावनाओं, कल्पनाओं, धारणाओं, आग्रहों और मान्यताओं, भय, लोभ, ईर्ष्या, स्पर्धा आदि से बना होता है क्या समाज का जीवन भी ऐसा ही नहीं होता ?
किंतु  व्यक्ति का हो या समाज का, विचारों, भावनाओं, कल्पनाओं, धारणाओं, आग्रहों और मान्यताओं, भय, लोभ, ईर्ष्या, स्पर्धा आदि क्या स्मृति का हिस्सा ही नहीं होते? और क्या स्मृति का सातत्य / निरंतरता ही व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन नामक कृत्रिम सातत्य ही नहीं होते?
स्मृति, विचार, पहचान और अतीत / समय, क्या परस्पर पर्याय ही नहीं हैं?
क्या वस्तुतः इनका सातत्य है?
फिर वास्तविक सातत्य / continuity क्या है?
क्या जीवन एक सातत्य नहीं है?
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