सन्दर्भ और तात्पर्य
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पुरुष, धर्म, वर्ण और संन्यास ये तीनों शब्द दो प्रकार से प्रयुक्त किए जाते हैं और सन्दर्भ के अनुसार उनका तात्पर्य भिन्न भिन्न होता है। संदर्भों की भिन्नता पर ध्यान न देने से अनावश्यक भ्रम और विवाद पैदा होता है।
गीता में अध्याय 15 श्लोक 16 में कहा गया है :
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द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च ।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ।
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(द्वौ इमौ पुरुषौ लोके क्षरः च अक्षरः एव च ।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थः अक्षरः उच्यते ॥)
--
भावार्थ :
इस संसार में नाशवान तथा अविनाशी ऐसे दो प्रकार के ये दो पुरुष हैं । सम्पूर्ण भूत प्राणियों के (उत्पन्न होनेवाले तथा नष्ट हो जानेवाले भौतिक देह-पिण्ड रूपी) शरीर तो नाशवान हैं, जबकि उनमें अवस्थित कूटस्थ (जीवात्मा) को अविनाशी कहा जाता है ।
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Chapter 15, śloka 16,
dvāvimau puruṣau loke
kṣaraścākṣara eva ca |
kṣaraḥ sarvāṇi bhūtāni
kūṭastho:'kṣara ucyate |
--
(dvau imau puruṣau loke
kṣaraḥ ca akṣaraḥ eva ca |
kṣaraḥ sarvāṇi bhūtāni
kūṭasthaḥ akṣaraḥ ucyate ||)
--
Meaning :
My two forms on the earthly level are of two kinds. The Perishable and the imperishable. Though the physical gross body of all beings is perishable, the 'self' or the soul situated at the core of heart (kūṭastha), is the imperishable one.
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इस अध्याय 15 में संसार की तुलना अश्वत्थ से करने के उपरांत पुरुष अर्थात् संसार का अनुभव जिस चेतना / चेतन अस्तित्व के सन्दर्भ से होता है वह चेतना जीव के रूप में असंख्य भौतिक शरीरों के रूप में इन्द्रियगम्य भौतिक जगत में व्यक्त होती है। इस चेतना को ही पुरुष कहा जाता है। वह जो पुर्यष्टक अर्थात् पुरी या पुर रूपी आठ स्थानों में वास करता है वह जीव पुरुष है। ये आठ स्थान ही समष्टितः 'वासव' अर्थात् इंद्र है। इंद्र ही इन्द्रियों का शासक है और उस रूप में इंद्र आधिदैविक 'पुरुष' है। वह जिस इन्द्रिय से जुड़कर जगत का अनुभव करता है वह इन्द्रिय ही उस काल में उसका रूप ग्रहण कर लेती है। इस प्रकार आठ 'वसु' समस्त जगत का कार्य-व्यापार संपन्न करते हैं।
पुरी-अष्टक स्थूल शरीर के रूप में भौतिक रूप में जीव का भौतिक अस्तित्व है।
पुरी-अष्टक सूक्ष्म शरीर के रूप में, आधिदैविक 'मन' नामक चेतन तत्व है।
पुरी-अष्टक कारण शरीर के रूप में उपरोक्त स्थूल तथा सूक्ष्म शरीर का मूल कारण है।
यह जगत भी जिसे जीव के सन्दर्भ में उसका 'लोक' कहा जाता है पाँच तत्वों और तीन गुणों से प्रकृति द्वारा निर्मित एक समष्टि-सत्ता है जो जड की तरह ग्रहण किए जाने पर प्रकृति तथा चेतन की तरह ग्रहण किए जाने पर पुरुष के नाम से जानी जाती है।
इस प्रकार जीव को जगतस्थ पुरुष तथा समष्टि-चेतन को पुरुषोत्तम कहा जाता है।
यहाँ यह ध्यान दिया जाना आवश्यक है कि प्रकृति में उत्पन्न असंख्य जीव भी भौतिक शारीरिक दृष्टि से पुरुष-लिंगीय, स्त्री-लिंगीय, नपुंसक अथवा द्विलिंगीय (androgynous) हो सकते हैं।
andro शब्द इंद्र का तथा gynous जन्यस् / जन्यः का cognate है।
इस दृष्टि से जाया स्त्रीलिंग और जनक पुंलिंग है।
प्रकृति जड होने की दृष्टि से कृति है जो प्रसंगवश विकृति या संस्कृति का रूप लेती है।
प्रकृति शक्ति होने की दृष्टि से त्रिगुणात्मिका है।
पुरुष चेतन होने से किसी कर्म का करनेवाला अर्थात् कर्ता नहीं हो सकता इसलिए प्रकृति और पुरुष के सान्निध्य से ही कर्म होता हुआ प्रतीत भर होता है।
प्रकृति स्वभाव है जो शुभ-अशुभ से परे है किन्तु जीव (शरीर से संबद्ध चेतन) अपने आपको प्रकृतिजनित सुख-दुःख का अनुकूल-प्रतिकूल का भोक्ता मान लेता है। यही पुरुष संस्कृति अथवा विकृति का आधार है। दूसरी ओर समष्टि-चेतन भी यद्यपि कर्ता न होकर दृष्टा मात्र है, क्योंकि प्रत्येक जीव की बुद्धि में यह अविच्छिन्न रूप से सदा दृष्टा की तरह जाना भी जाता है और बुद्धि में अपने कर्ता होने का त्रुटिपूर्ण ज्ञान ही उस दृष्टा पर जीव-बुद्धि आरोपित कर देता है।
यह जीव-भाव भी प्रकृति का स्वभाव ही है और यही भ्रमवश संस्कृति या विकृति के अनुसार शुभ अथवा अशुभ कर्मों को करने में स्वयं को स्वतंत्र अनुभव करता है। 'कार्य-कारण' की धारणा बुद्धि पर इस तरह हावी हो जाती है की जीव यह नहीं देख पाता कि किसी भी कार्य के हो पाने के असंख्य कारण होते हैं जिनमें से कुछ से ही वह अवगत होता है।
इस प्रकार उसका स्वभाव प्राकृतिक, आनुवांशिक, वातावरण आदि से पाया होता है।
इसे ही वर्ण कहा गया है। यह वर्ण मोटे तौर पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र इन चार में वर्गीकृत किया जाता है। भौतिक अर्थात् शरीर और वंश की दृष्टि से मनुष्य (यहां तक कि स्थावर-जंगम प्राणीमात्र ही) इनमें से प्रधानतः किसी एक वर्ण-विशेष से संबद्ध होता है जो जाति से बहुत भिन्न है। जाति का अर्थ है वंशानुगत और परिस्थितियों के अनुसार प्राप्त वंश-परम्परा।
दूसरी ओर बहुत से जीव अवर्ण या ऐसे वंश में उत्पन्न होते हैं जिनकी कोई सुनिश्चित या ज्ञात वर्ण-परंपरा नहीं होती। फिर भी गुण तथा कर्म के आधार पर उनका कोई सुनिश्चित वर्ण अवश्य ही होता है।
गीता अध्याय 4, श्लोक 13 इस बारे में दृष्टव्य है :
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विध्यकर्तारमव्ययम् ॥
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(चातुर्वर्ण्यम् मया सृष्टम् गुणकर्मविभागशः ।
तस्य कर्तारं अपि माम् विद्धि अकर्तारम्-अव्ययम् ॥)
--
भावार्थ :
गुण तथा कर्म के विभाजन के अनुसार चार प्रकार की मूल प्रवृत्तियों का समूह (वर्ण्य), जिनसे समस्त भूत अनायास परिचालित होते हैं, मेरे ही द्वारा रचा गया है । उस समूह का रचनाकार (स्वरूपतः) अकर्ता तथा अव्यय मुझको ही जानो ।
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Chapter 4, śloka 13,
cāturvarṇyaṃ mayā sṛṣṭaṃ
guṇakarmavibhāgaśaḥ|
tasya kartāramapi māṃ
vidhyakartāramavyayam ||
--
(cāturvarṇyam mayā sṛṣṭam
guṇakarmavibhāgaśaḥ |
tasya kartāraṃ api mām
viddhi akartāram-avyayam ||)
--
Meaning :
According to the innate nature and tendencies for action of man, I have created the four-fold order in this world. Even though I AM the Imperishable, and the Creator of them, know for certain I AM as such ever, the non-doer.
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इससे स्पष्ट है कि वर्ण का आधार गुण तथा कर्म हैं जिनके अनुसार ही मनुष्य-मात्र के संस्कार, वृत्तियाँ और बुद्धि, यहाँ तक की आजीविका / व्यवसाय / परिस्थितियाँ आदि उसके लिए अनुकूल और प्रतिकूल होते हैं। जातियों का उद्भव मुख्यतः इन्हीं कारणों से हुआ न कि वर्ण-विशेष में जन्म लेने मात्र से।
और स्पष्ट है कि (अनुवांशिक आधार पर) वर्ण का चुनाव कर पाना भले ही मनुष्य के अपने हाथ में न हो, व्यवसाय तथा कर्म को चुनने के लिए वह अपने गुणों तथा स्वभाव के अनुसार किसी हद तक स्वतंत्र है ऐसा कहा जा सकता है। .
इसलिए ब्राह्मणत्व या अन्य वर्ण भी मनुष्य की जाति न होकर उसका अपना चुनाव है।
अब एक प्रश्न संन्यास के और इस बारे में कि क्या स्त्री को संन्यास लेने का अधिकार है?
श्री रमण महर्षि के श्री रमण-गीता में दिए गए वचनों के आधार पर तो यह स्पष्ट ही है कि संन्यास में स्त्री-पुरुष का समान अधिकार है :
अध्याय 13 श्लोक 8 में कहा गया है :
स्वरूपे वर्तमानानां पक्वानाम योषितामपि |
निवृत्तत्वात् निषेधस्य हंसीत्वं नैव दुष्यति ||
वर्णाश्रम व्यवस्था न केवल धर्म-संगत है, बल्कि स्वाभाविक और प्राकृतिक भी है।
मनुष्य-मात्र को वर्ण एवं आश्रम जन्म से ही प्राप्त होता है और उसके अनुसार आचरण करने पर उसे अधिकतम सुख और न्यूनतम दुःख प्राप्त होते हैं, किंतु विवेक या उचित मार्गदर्शन के अभाव में, वह इस सरल तथ्य से अनभिज्ञ होता है। इसलिए आयु के प्रथम चतुर्थांश में ब्रह्मचर्य, द्वितीय में गृहस्थ, तृतीय में वानप्रस्थ तथा चतुर्थ में संन्यास आश्रम शरीर को तो अनायास और अपरिहार्यतः प्राप्त होता ही है यद्यपि मन-बुद्धि-परिस्थिति, आदि के प्रभाव से मनुष्य इसे नहीं समझता।
इसलिए संन्यास 'लेने' या न-लेने का प्रश्न ही कहाँ पैदा होता है ?
हाँ अगर कोई संन्यास का औचित्य जानकर भी अभ्यास की दृष्टि से संन्यास लेता है तो इसके लिए वह स्वतंत्र क्यों न हो?
वैसे संन्यास क्या है इस बारे में गीता अध्याय 6 के प्रथम श्लोक में ही कहा गया है :
अध्याय 6, श्लोक 1,
श्रीभगवानुवाच :
अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः ।
स सन्न्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः ॥
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(अनाश्रितः कर्मफलम् कार्यम् कर्म करोति यः ।
सः सन्न्यासी च योगी च न निरग्निः न च अक्रियः ॥)
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भावार्थ :
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं - वह नहीं, जो कि हठपूर्वक अग्नि को नहीं छूता, या दूसरे सारे कर्मों को त्याग देता है, बल्कि वह पुरुष जो कि कर्म के फल पर आश्रित नहीं होता, अर्थात् फल अनुकूल या प्रतिकूल क्या होता है इस विषय में जिसका कोई आग्रह नहीं होता, और जो अपने लिए निर्धारित कर्तव्य को पूर्ण करने के ध्येय से किसी कर्म में संलग्न होता है, वास्तविक अर्थों में संन्यासी (जिसने कर्म को त्याग दिया है) और वही कर्मयोगी अर्थात् कर्म करते हुए भी उसे मोक्ष का साधन बना लेनेवाला कुशल योगी होता है ।
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शंकराचार्य ने भी विवेक-चूड़ामणि तथा अपरोक्षानुभूति में यही कहा है।
'भज गोविन्दं' में :
जटिलो मुण्डी कुञ्चित केशः
काषायाम्बर बहुकृत वेशः ...
से भी यही प्रकट होता है कि संन्यास एक तो साधन-संन्यास के रूप में होता है, जो किसी के लिए स्वाभाविक हो सकता है, दूसरी ओर केवल किसी अन्य कारण से 'लिया' जाता है, 'होता' नहीं है ...
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पुरुष, धर्म, वर्ण और संन्यास ये तीनों शब्द दो प्रकार से प्रयुक्त किए जाते हैं और सन्दर्भ के अनुसार उनका तात्पर्य भिन्न भिन्न होता है। संदर्भों की भिन्नता पर ध्यान न देने से अनावश्यक भ्रम और विवाद पैदा होता है।
गीता में अध्याय 15 श्लोक 16 में कहा गया है :
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द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च ।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ।
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(द्वौ इमौ पुरुषौ लोके क्षरः च अक्षरः एव च ।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थः अक्षरः उच्यते ॥)
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भावार्थ :
इस संसार में नाशवान तथा अविनाशी ऐसे दो प्रकार के ये दो पुरुष हैं । सम्पूर्ण भूत प्राणियों के (उत्पन्न होनेवाले तथा नष्ट हो जानेवाले भौतिक देह-पिण्ड रूपी) शरीर तो नाशवान हैं, जबकि उनमें अवस्थित कूटस्थ (जीवात्मा) को अविनाशी कहा जाता है ।
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Chapter 15, śloka 16,
dvāvimau puruṣau loke
kṣaraścākṣara eva ca |
kṣaraḥ sarvāṇi bhūtāni
kūṭastho:'kṣara ucyate |
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(dvau imau puruṣau loke
kṣaraḥ ca akṣaraḥ eva ca |
kṣaraḥ sarvāṇi bhūtāni
kūṭasthaḥ akṣaraḥ ucyate ||)
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Meaning :
My two forms on the earthly level are of two kinds. The Perishable and the imperishable. Though the physical gross body of all beings is perishable, the 'self' or the soul situated at the core of heart (kūṭastha), is the imperishable one.
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इस अध्याय 15 में संसार की तुलना अश्वत्थ से करने के उपरांत पुरुष अर्थात् संसार का अनुभव जिस चेतना / चेतन अस्तित्व के सन्दर्भ से होता है वह चेतना जीव के रूप में असंख्य भौतिक शरीरों के रूप में इन्द्रियगम्य भौतिक जगत में व्यक्त होती है। इस चेतना को ही पुरुष कहा जाता है। वह जो पुर्यष्टक अर्थात् पुरी या पुर रूपी आठ स्थानों में वास करता है वह जीव पुरुष है। ये आठ स्थान ही समष्टितः 'वासव' अर्थात् इंद्र है। इंद्र ही इन्द्रियों का शासक है और उस रूप में इंद्र आधिदैविक 'पुरुष' है। वह जिस इन्द्रिय से जुड़कर जगत का अनुभव करता है वह इन्द्रिय ही उस काल में उसका रूप ग्रहण कर लेती है। इस प्रकार आठ 'वसु' समस्त जगत का कार्य-व्यापार संपन्न करते हैं।
पुरी-अष्टक स्थूल शरीर के रूप में भौतिक रूप में जीव का भौतिक अस्तित्व है।
पुरी-अष्टक सूक्ष्म शरीर के रूप में, आधिदैविक 'मन' नामक चेतन तत्व है।
पुरी-अष्टक कारण शरीर के रूप में उपरोक्त स्थूल तथा सूक्ष्म शरीर का मूल कारण है।
यह जगत भी जिसे जीव के सन्दर्भ में उसका 'लोक' कहा जाता है पाँच तत्वों और तीन गुणों से प्रकृति द्वारा निर्मित एक समष्टि-सत्ता है जो जड की तरह ग्रहण किए जाने पर प्रकृति तथा चेतन की तरह ग्रहण किए जाने पर पुरुष के नाम से जानी जाती है।
इस प्रकार जीव को जगतस्थ पुरुष तथा समष्टि-चेतन को पुरुषोत्तम कहा जाता है।
यहाँ यह ध्यान दिया जाना आवश्यक है कि प्रकृति में उत्पन्न असंख्य जीव भी भौतिक शारीरिक दृष्टि से पुरुष-लिंगीय, स्त्री-लिंगीय, नपुंसक अथवा द्विलिंगीय (androgynous) हो सकते हैं।
andro शब्द इंद्र का तथा gynous जन्यस् / जन्यः का cognate है।
इस दृष्टि से जाया स्त्रीलिंग और जनक पुंलिंग है।
प्रकृति जड होने की दृष्टि से कृति है जो प्रसंगवश विकृति या संस्कृति का रूप लेती है।
प्रकृति शक्ति होने की दृष्टि से त्रिगुणात्मिका है।
पुरुष चेतन होने से किसी कर्म का करनेवाला अर्थात् कर्ता नहीं हो सकता इसलिए प्रकृति और पुरुष के सान्निध्य से ही कर्म होता हुआ प्रतीत भर होता है।
प्रकृति स्वभाव है जो शुभ-अशुभ से परे है किन्तु जीव (शरीर से संबद्ध चेतन) अपने आपको प्रकृतिजनित सुख-दुःख का अनुकूल-प्रतिकूल का भोक्ता मान लेता है। यही पुरुष संस्कृति अथवा विकृति का आधार है। दूसरी ओर समष्टि-चेतन भी यद्यपि कर्ता न होकर दृष्टा मात्र है, क्योंकि प्रत्येक जीव की बुद्धि में यह अविच्छिन्न रूप से सदा दृष्टा की तरह जाना भी जाता है और बुद्धि में अपने कर्ता होने का त्रुटिपूर्ण ज्ञान ही उस दृष्टा पर जीव-बुद्धि आरोपित कर देता है।
यह जीव-भाव भी प्रकृति का स्वभाव ही है और यही भ्रमवश संस्कृति या विकृति के अनुसार शुभ अथवा अशुभ कर्मों को करने में स्वयं को स्वतंत्र अनुभव करता है। 'कार्य-कारण' की धारणा बुद्धि पर इस तरह हावी हो जाती है की जीव यह नहीं देख पाता कि किसी भी कार्य के हो पाने के असंख्य कारण होते हैं जिनमें से कुछ से ही वह अवगत होता है।
इस प्रकार उसका स्वभाव प्राकृतिक, आनुवांशिक, वातावरण आदि से पाया होता है।
इसे ही वर्ण कहा गया है। यह वर्ण मोटे तौर पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र इन चार में वर्गीकृत किया जाता है। भौतिक अर्थात् शरीर और वंश की दृष्टि से मनुष्य (यहां तक कि स्थावर-जंगम प्राणीमात्र ही) इनमें से प्रधानतः किसी एक वर्ण-विशेष से संबद्ध होता है जो जाति से बहुत भिन्न है। जाति का अर्थ है वंशानुगत और परिस्थितियों के अनुसार प्राप्त वंश-परम्परा।
दूसरी ओर बहुत से जीव अवर्ण या ऐसे वंश में उत्पन्न होते हैं जिनकी कोई सुनिश्चित या ज्ञात वर्ण-परंपरा नहीं होती। फिर भी गुण तथा कर्म के आधार पर उनका कोई सुनिश्चित वर्ण अवश्य ही होता है।
गीता अध्याय 4, श्लोक 13 इस बारे में दृष्टव्य है :
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विध्यकर्तारमव्ययम् ॥
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(चातुर्वर्ण्यम् मया सृष्टम् गुणकर्मविभागशः ।
तस्य कर्तारं अपि माम् विद्धि अकर्तारम्-अव्ययम् ॥)
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भावार्थ :
गुण तथा कर्म के विभाजन के अनुसार चार प्रकार की मूल प्रवृत्तियों का समूह (वर्ण्य), जिनसे समस्त भूत अनायास परिचालित होते हैं, मेरे ही द्वारा रचा गया है । उस समूह का रचनाकार (स्वरूपतः) अकर्ता तथा अव्यय मुझको ही जानो ।
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Chapter 4, śloka 13,
cāturvarṇyaṃ mayā sṛṣṭaṃ
guṇakarmavibhāgaśaḥ|
tasya kartāramapi māṃ
vidhyakartāramavyayam ||
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(cāturvarṇyam mayā sṛṣṭam
guṇakarmavibhāgaśaḥ |
tasya kartāraṃ api mām
viddhi akartāram-avyayam ||)
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Meaning :
According to the innate nature and tendencies for action of man, I have created the four-fold order in this world. Even though I AM the Imperishable, and the Creator of them, know for certain I AM as such ever, the non-doer.
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इससे स्पष्ट है कि वर्ण का आधार गुण तथा कर्म हैं जिनके अनुसार ही मनुष्य-मात्र के संस्कार, वृत्तियाँ और बुद्धि, यहाँ तक की आजीविका / व्यवसाय / परिस्थितियाँ आदि उसके लिए अनुकूल और प्रतिकूल होते हैं। जातियों का उद्भव मुख्यतः इन्हीं कारणों से हुआ न कि वर्ण-विशेष में जन्म लेने मात्र से।
और स्पष्ट है कि (अनुवांशिक आधार पर) वर्ण का चुनाव कर पाना भले ही मनुष्य के अपने हाथ में न हो, व्यवसाय तथा कर्म को चुनने के लिए वह अपने गुणों तथा स्वभाव के अनुसार किसी हद तक स्वतंत्र है ऐसा कहा जा सकता है। .
इसलिए ब्राह्मणत्व या अन्य वर्ण भी मनुष्य की जाति न होकर उसका अपना चुनाव है।
अब एक प्रश्न संन्यास के और इस बारे में कि क्या स्त्री को संन्यास लेने का अधिकार है?
श्री रमण महर्षि के श्री रमण-गीता में दिए गए वचनों के आधार पर तो यह स्पष्ट ही है कि संन्यास में स्त्री-पुरुष का समान अधिकार है :
अध्याय 13 श्लोक 8 में कहा गया है :
स्वरूपे वर्तमानानां पक्वानाम योषितामपि |
निवृत्तत्वात् निषेधस्य हंसीत्वं नैव दुष्यति ||
वर्णाश्रम व्यवस्था न केवल धर्म-संगत है, बल्कि स्वाभाविक और प्राकृतिक भी है।
मनुष्य-मात्र को वर्ण एवं आश्रम जन्म से ही प्राप्त होता है और उसके अनुसार आचरण करने पर उसे अधिकतम सुख और न्यूनतम दुःख प्राप्त होते हैं, किंतु विवेक या उचित मार्गदर्शन के अभाव में, वह इस सरल तथ्य से अनभिज्ञ होता है। इसलिए आयु के प्रथम चतुर्थांश में ब्रह्मचर्य, द्वितीय में गृहस्थ, तृतीय में वानप्रस्थ तथा चतुर्थ में संन्यास आश्रम शरीर को तो अनायास और अपरिहार्यतः प्राप्त होता ही है यद्यपि मन-बुद्धि-परिस्थिति, आदि के प्रभाव से मनुष्य इसे नहीं समझता।
इसलिए संन्यास 'लेने' या न-लेने का प्रश्न ही कहाँ पैदा होता है ?
हाँ अगर कोई संन्यास का औचित्य जानकर भी अभ्यास की दृष्टि से संन्यास लेता है तो इसके लिए वह स्वतंत्र क्यों न हो?
वैसे संन्यास क्या है इस बारे में गीता अध्याय 6 के प्रथम श्लोक में ही कहा गया है :
अध्याय 6, श्लोक 1,
श्रीभगवानुवाच :
अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः ।
स सन्न्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः ॥
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(अनाश्रितः कर्मफलम् कार्यम् कर्म करोति यः ।
सः सन्न्यासी च योगी च न निरग्निः न च अक्रियः ॥)
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भावार्थ :
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं - वह नहीं, जो कि हठपूर्वक अग्नि को नहीं छूता, या दूसरे सारे कर्मों को त्याग देता है, बल्कि वह पुरुष जो कि कर्म के फल पर आश्रित नहीं होता, अर्थात् फल अनुकूल या प्रतिकूल क्या होता है इस विषय में जिसका कोई आग्रह नहीं होता, और जो अपने लिए निर्धारित कर्तव्य को पूर्ण करने के ध्येय से किसी कर्म में संलग्न होता है, वास्तविक अर्थों में संन्यासी (जिसने कर्म को त्याग दिया है) और वही कर्मयोगी अर्थात् कर्म करते हुए भी उसे मोक्ष का साधन बना लेनेवाला कुशल योगी होता है ।
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शंकराचार्य ने भी विवेक-चूड़ामणि तथा अपरोक्षानुभूति में यही कहा है।
'भज गोविन्दं' में :
जटिलो मुण्डी कुञ्चित केशः
काषायाम्बर बहुकृत वेशः ...
से भी यही प्रकट होता है कि संन्यास एक तो साधन-संन्यास के रूप में होता है, जो किसी के लिए स्वाभाविक हो सकता है, दूसरी ओर केवल किसी अन्य कारण से 'लिया' जाता है, 'होता' नहीं है ...
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