Monday, 17 September 2018

आलोक-पथ

सनातन पथ 
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आलोक-पथ
जो है, और जो होता है ।
जो होता है, और जो प्रतीत होता है,
जो प्रतीत होता है और जो अनुभव में प्रतीत होता है,
जो अनुभव में प्रतीत होता है और यथावत् सत्य की तरह ग्रहण कर लिया जाता है ।
प्रतीति का संवेदन और संवेदन की प्रतीति ।
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भूलोक
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जो है वह है सत् ।
स्पष्ट है कि अस्तित्व सनातन है ।
सनातन अर्थात् काल के व्यवधान से रहित ।
काल स्वयं भी यदि है, तो होने मात्र से ही सत् में अधिष्ठित और अवस्थित है ।
काल यदि बौद्धिक अनुमान या निष्कर्ष, कल्पना या अवधारणा (concept or hypothesis) भी है तो बुद्धि पर आश्रित है और बुद्धि (intellect) की प्रकृति आने-जाने के स्वभाव की होती हो तो भी उसका एक उससे स्वतंत्र अधिष्ठान तो स्पष्टतः है ही जिसके सन्दर्भ में उसका आगमन और प्रस्थान होता है ।
यह है सत् जो वैसे अति अनिर्देश्य (that, which could not be pointed at) है, किंतु जब इसका वर्णन किया जाता है तो यह लोक तथा लोक की चेतना के रूप में द्वैतयुक्त प्रतीत होता है ।
उस समय इसका वर्णन जिसके सन्दर्भ में है वह चेतना तथा वह लोक भी होने मात्र से सत् की ही दो परस्पर अभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं ।
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सत् ’षद्लृ’ (सद्) धातु से बना पद है जिसका अर्थ है अव्याहत रूप से अवस्थित होना ।
जो अव्याहत रूप से अवस्थित है, अविकारी और अविनाशी तथा इसीलिए अनादि, सतत, अनंत और अजात भी है ही ।
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वही ’सत्’ चेतना और लोक इन दो अभिव्यक्तियों में प्रस्फुटित होकर जीव और उसका जगत् होता है ।
यह है निरपेक्ष सत् का सापेक्ष स्वरूप ग्रहण करना ।
यह ’होना’ स्वरूप से होनेवाला आभासी परिवर्तन (विकार) है ।
प्रथम धातु ’भू’ से समस्त अन्य धातुएँ बाद में प्रकट होती हैं, इसलिए भी धातुपाठ और गणपाठ भ्वादिगण से प्रारंभ होता है ।
क्रियापद धातु से ही बनते हैं जो निरंतर प्रकृति के विभिन्न लकार और अलङ्कार हैं ।
प्रकृति इस प्रकार पुरुष से सतत रास में है ।
रास जो रस से आविर्भूत होता है ।
भू से ही भूलोक आदि सप्तलोक प्रारंभ होते हैं ।
भू अर्थात् पञ्च महाभूत जो जगत् की नींव / बुनियाद (भू-नियातम्) है ।
मनुष्य और सभी जीवों का शरीर इसी भौतिक प्रकार का पाञ्चभौतिक विकार है जो काल में बनता और विनष्ट हो जाता है ।
भू से पुनः विभु, प्रभु और संप्रभु अवतरित होते हैं ।
स्वयंभू पुरुष ही जीव, देवता और ईश्वर के रूप में विभु, प्रभु और संप्रभु भी होता है ।
यह स्वयंभू जीव जब अपने वास्तविक स्वरूप पर मोहित बुद्धि का आवरण पाता है और जब माया की ही विक्षेप-शक्ति उसके प्रति उसे अपने से भिन्न अन्य जगत् की उपस्थिति की तरह स्वयं के उस जगत् से एक भिन्न अस्तित्व होने की प्रतीति पैदा करती है तो वह उस आभासतः भिन्न प्रतीत होनेवाले जगत् में असंख्य विविधताएँ कल्पित कर स्वयं को एक व्यक्ति या जीव-विशेष मान लेता है ।
उसी जीव के द्वारा जब इस जगत् को संचालित करनेवाली शक्तियों को अपने से बड़ी (वरीय) सत्ताओं की तरह कल्पित किया जाता है तो वे सत्ताएँ देवता-तत्व की तरह प्रभुत्वसंपन्न होने से प्रभु होती हैं और उन सबका तथा जीव-सत्ता का नियामक कोई एक ही ही स्वामी है इस कल्पना से जीव ही परमेश्वर को अज्ञात सर्वशक्तिमान सत्ता की तरह मान लेता है । स्पष्ट है कि ये सभी सापेक्ष सत्ताएँ हैं जो जीव-चेतना में ही भासित होती हैं किंतु ’सत्’ इन सबसे अप्रभावित निरपेक्षतः अविकारी एकमेव अधिष्ठान होता है ।
भू से भुवः लोक तक का विकास आधिदैविक का कार्यक्षेत्र है और मनुष्य का मन ही जीव में आधिदैविक सत्य से संपर्क का स्थान है ।
इसलिए मनस्तत्व का एक सिरा जहाँ आधिभौतिक स्वरूप का है, वहीं उसका दूसरा सिरा आधिदैविक स्वरूप का ।
अग्नि जैसे स्थूल रूप से आधिभौतिक का प्रथम साक्षात्कार है, वैसे ही अग्नि ही सूक्ष्म रूप से आधिदैविक का भी प्रथम साक्षात्कार है ।
साक्षात्कार अर्थात् संपर्क-सूत्र ।
"अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् ।"
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