Friday, 7 September 2018

मृत्यु के बाद

संत ज्ञानेश्वर रचित excel-chart देखते हुए अपनी एक  लंबी कविता  नागलोक याद हो आई। जिसे मैंने मेरे हिंदी-का-ब्लॉग में 11 अगस्त 2013 को तथा  बाद में पुनः 27 नवंबर 2015 को पोस्ट किया था।
मृत्यु के बाद का जैसा वर्णन पुराणों और उपनिषदों में किया गया है वह अक्षरशः सत्य है।
यहाँ तक कि वर्तमान जन्म की प्राप्ति होने से पूर्व जीव जिस लोक में रहता है और मृत्यु के पश्चात् जिस लोक में उसकी गति होती है उसका भी समान्तर वर्णन पुराणों और उपनिषदों में तो है ही, प्रस्तुत ब्लॉग में मेरी उपरोक्त दो कविताओं में भी अनायास मैंने व्यक्त किया है, इस ओर बस अभी आधा घंटे पहले मेरा ध्यान गया।
मनुष्य का मन एक-पहिएवाली  साइकिल जैसा होता है, जबकि मन की वृत्ति दो पहियोंवाली साइकिल जैसी  तथा विचार तीन पहियोंवाली साइकिल जैसा, और इसी तरह (इन्द्रियों के) विषय चार पहियोंवाले वाहन जैसे होते हैं।  एक पहिएवाली साइकिल केवल स्टेटिक इक्विलिब्रियम की अवस्था में स्थिर रहती है, दो पहियोंवाली स्टेटिक तथा डायनेमिक इक्विलिब्रियम की स्थिति में कुछ प्रयास से स्थिर रखी जा सकती है, जबकि तीन पहियोंवाली आसानी से स्टेटिक या डायनेमिक दोनों स्थितियों में इक्विलिब्रियम की स्थिति में रखी जा सकती है।  चार पहियोंवाली अपेक्षाकृत और अधिक सरलता से सुस्थिर रखी जा सकती है।
तीन पहिएवाली साइकिल इस दृष्टि से एक, दो या तीन से अधिक पहियोंवाले वाहन से अधिक स्थिर इसलिए भी होती है क्योंकि तीनों आधार-बिंदु एक और केवल एक समतल  (PLANE)  में स्थित होने से सुपरिभाषित होते हैं जबकि एक या दो पहिएवाली साइकिल के आधार-बिंदु ऐसा कोई सुनिश्चित समतल परिभाषित नहीं कर सकते।  दूसरी ओर तीन से अधिक आधार-बिंदु वाले वाहनों के पहिए ऐसे चार या अधिक समतल बनाते हैं जो परस्पर एक-दूसरे को काटते हों इसलिए .... यह स्टेटिक्स, डायनेमिक्स और मेकेनिक्स का विषय हुआ।
मन की स्थिति में इसी प्रकार मन निर्विषय, निर्विचार और वृत्तिशून्य हो तो निद्रारूपी अपेक्षाकृत स्थिरता अर्थात् निष्क्रिय जडता में चला जाता है।  एक वृत्ति होने की स्थिति में स्वप्न जैसी तंद्रालुता में होता है, जबकि वृत्ति के विषय से जुड़कर विचार से युक्त होने पर गतिशील संतुलन की स्थिति में होता है।
इन सभी स्थितियों में यदि जीव-चेतना की तुलना 'चालक' से करें तो यह चेतना निद्रा की स्थिति में जड  निष्क्रिय निश्चलता की अज्ञान-वृत्ति से तादात्म्य में होती है, जबकि स्वप्न तथा जागृति में क्रमशः वृत्ति तथा विचार से तथा किसी प्रत्यक्ष या परोक्ष बाह्य विषय से इसका (चेतना का) तादात्म्य रहता है।  इस प्रकार तादात्म्य का सतत बने रहना चेतना की दिशा (अवधान अर्थात् ध्यान) को अपने उस स्रोत / उद्गम  की ओर कभी नहीं ले जा पाता जहाँ से उसका आगमन हुआ।
ध्यान की गति ही चित्त है, ध्यान की स्थिरता निद्रा या लय है जिसमें 'विषय' तिरोहित हो जाते हैं जो चित्त के सक्रिय होते ही पुनः चित्त के समक्ष प्रकट हो उठते हैं।  चित्त का तात्पर्य है किसी विशिष्ट नाडी में प्राण की गति।  इस प्रकार प्राण चित्त का अनुगमन करते हैं और इन्द्रियाँ प्राण का।  प्राण एक अथवा अनेक हो सकते हैं किन्तु व्यावहारिक अर्थ में  प्राण जिस नाडी से गुजरते हैं चित्त उसी लोक को अनुभव करता है।
मृत्यु होने के समय भी अंततः प्राण किसी न किसी नाडी के पथ को ग्रहण कर शरीर से बाहर निकल जाते हैं।  यदि मरनेवाले का ध्यान किसी विषय में अटका होता है तो वह उस विषय का चिंतन करते हुए देह को त्यागता है।  इसलिए नाम-स्मरण एक ऐसा सरल साधन है जिससे कोई भी यह प्रयास अवश्य कर सकता है कि मृत्यु के समय उस नाम को स्मरण करता हुआ उस नाम से संबद्ध देवता का चिंतन करते हुए चित्त को उस दिशा में ले जाए। अगर कोई ऐसा करता है तो मृत्यु के उपरांत उसके प्राण उसके चित्त के द्वारा खींचे जाकर उसे उस देवता के लोक में ले जाते हैं, यह है पुराणों और वेद-उपनिषद् की शिक्षा।
 ॐ के उच्चारण से जहाँ मन ब्रह्म-चिंतन में प्रवृत्त होता है, वहीं विशिष्ट देवता के स्मरण से, उस देवता के स्वरूप और चिंतन में।  पिछली पोस्ट्स में इस बारे में विस्तार से लिख चुका हूँ अतः पुनरावृत्ति करना अनावश्यक है।
प्राणों के 'यहीं' अर्थात् हृदय में लीन होने की स्थिति में मरनेवाले के प्राण ब्रह्मलोक में भी नहीं जाते और न ही अन्य किसी नाड़ी से देह से बाहर जाते हैं।
वेद, उपनिषदों में तथा पुराणों में भी मृत्यु के बाद जीव के भिन्न-भिन्न अनुभवों को इसी आधार पर समझा जा सकता है।  इसी प्रकार पुनर्जन्म या मुक्ति को भी।  भ्रू तथा भ्रूमध्य के बारे में भी इसी प्रकार क्रमिक जन्मों के दौरान स्मृति के सातत्य को भी।  
बुद्धिजीवी मनुष्यों के प्राण अंततः उनकी उस आत्यंतिक निष्ठा के मार्ग से प्रेरित होते हैं जिससे उनकी बुद्धि प्रेरित हुई होती है। और तदनुसार वे किसी भावी जीवन और लोक के भागी होते हैं।
नागलोक कविता मूलतः ऐसी असंख्य बुद्धियों की सर्प-रूपी विविधता के प्रतीक को ध्यान में रखकर लिखी गयी थी।
संत ज्ञानेश्वर रचित excel-chart में जिन सर्पों को दर्शाया गया है वे आध्यात्मिक पतन के मार्ग के प्रतीक हैं, जबकि सीढ़ियाँ आध्यात्मिक उन्नति की।
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