Sunday, 16 September 2018

~~ सनातन पथ ~~

~~ सनातन पथ ~~
दस वर्ष पहले कंप्यूटर से अभिभूत था।  जानता था कि इसका मुझे बहुत उपयोग हो सकता है, लेकिन यह नहीं पता था कि इसकी मुझे वाक़ई ज़रूरत थी भी या नहीं ! बहरहाल किसी भी कारण से क्यों न हो, मुझे यह प्राप्त हुआ और मेरी उत्सुकता को शांत होने का मौक़ा मिला।
मैं लिखना चाहता था।  खासकर कुछ अद्भुत् जो मैंने जीवन में पढ़ा था।  चाहे भगवद्गीता हो, श्रीनिसर्गदत्त महाराज, जे. कृष्णमूर्ति, श्रीरमण महर्षि का साहित्य हो, या पतञ्जलि का योगशास्त्र, कपिलमुनि का साङ्ख्य, या अद्वैत-दर्शन।
और जब लिखना ही था तो कंप्यूटर पर लिखकर 'सेव' किया जा सकता है, कम से कम 'हार्ड-कॉपी' में प्रिंट-ऑउट' लेकर सुरक्षित रखा जा सकता है।
यह सब मैं बस उत्सुकतावश ही करना चाहता था।  क्योंकि इस बहाने इन सब पुस्तकों का अपने ढंग से स्वाध्याय किया जा सके।  दुनिया के लिए नहीं।  संसार का कल्याण करना है या इससे पैसा, स्टेटस या शोहरत कमाना है यह विचार तक मुझे कलुषित जान पड़ता था।  किसी को 'इम्प्रेस' करने का भोंडा ख़याल कभी-कभी अवश्य आया करता था और इस ख़याल के आते ही मुझे तुरंत हँसी आने लगती थी।
मनुष्य का मन और इन्द्रियों की यह स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि वे बहिर्मुख होते हैं।
सद्दर्शनं 24 के अनुसार :
धिये प्रकाशं परमो वितीर्य
स्वयं धियोऽन्तः प्रविभाति गुप्तः ।
धियं परावर्त्य धियोऽन्तरेऽत्र
संयोजनान्नेश्वरदृष्टिरन्या ॥
_______________________
The Supreme gives the light to thought.
Within it, Himself hidden, He shines.
Hence to turn in the thought to unite within,
That is to see the Lord.
How else to see?
--
इस प्रकार ईश्वर या सत्य को 'अपने' से बाहर खोजने का प्रश्न ही निरर्थक हो गया। फिर किसी को शिक्षा या उपदेश देना तो और भी व्यर्थ लगने लगा। इसलिए 'लिखने' का प्रयोजन सिर्फ़ यह रहा कि यह केवल टाइम-पास का रुचिप्रद काम था।
वेब के बारे में भी इसी प्रकार केवल कौतूहल भर था।  उसका भी मुझे कुछ उपयोग तो है लेकिन यह भी आवश्यक तो क़तई नहीं है।  कुछ संपर्क वेब के माध्यम से बने लेकिन पुनः यह लगा कि संसार में कोई किसी से जुड़ता नहीं केवल किसी उस माध्यम से भर जुड़ता है जिसमें उसकी दिलचस्पी होती है।  हाँ, एक सुख भी इसमें अवश्य होता है और हम उस सुख के अभ्यस्त 'एडिक्ट' हो जाते हैं। तब कोई दूसरा बेहतर दिखाई देनेवाला विकल्प मिलते ही पुराना सुख या वह सुख जिससे शेयर किया जाता था, वह अचानक बोझ लगने लगता है।  कभी-कभी हम उसे ढोते रहते हैं किन्तु उस संबंध की उम्र बीत चुकी होती है और फिर भी उसे बाध्यतावश ढोना हो तो हम उसे गौरवान्वित कर, खुद को ही भ्रमित किए रहते हैं।  कभी-कभी हमें अपराध-बोध भी होता है और हमें भीतर ही भीतर उससे घृणा तक होने लगती है।  नैतिक होने का दंभ और 'लोग क्या कहेंगे' इसकी चिंता हममें आत्म-निंदा का भाव पैदा कर देती है।  किंतु तब भी हम अंत तक नाटक करते रहते हैं।  हम खुद को भी यातना देते रहते हैं और दूसरों को भी।  हम खुद को भी भ्रमित किए रहते हैं और दूसरों को भी।  यह भ्रम केवल स्मृति के कारण ही पैदा होता है।  स्मृति अतीत को परिभाषित करती है और अतीत स्मृति को।  और हम यह नहीं देख पाते कि दोनों एक दूसरे के पर्याय मात्र हैं।  उनमें से कोई भी सत्य नहीं हो सकता।  कोई घटना कभी हुई यह ख़याल ही 'समय' का विचार है।  ऐसा कोई 'समय' न था, न है, न होगा।  उस 'समय' में ही हज़ारों चीज़ों के होने और 'बीतने' का विचार पैदा होता है और 'संसार' एक जीता-जागता जादू जान पड़ने लगता है।
लेकिन जब एक बार उस 'संसार' में सत्यता आरोपित हो जाती है तो उसकी उपेक्षा भी नहीं की जा सकती।  उसका अपमान करने का प्रश्न भी नहीं पैदा होता।  जो जादू अपने सामने प्रकट होता है, वह खुद ही विलुप्त भी होता रहता है।  और फिर वह अपने से जुदा, भिन्न हो यह भी नहीं हो सकता। तब भी उसका औपचारिक अस्तित्व तो मानना ही पड़ेगा - जिस पर चलने के लिए न तो मार्ग है, न मार्ग होना ज़रूरी।
मार्गविहीन एक सनातन-पथ। 
--  
                  
        

No comments:

Post a Comment