सनातन पथ : आलोक पथ
- अग्नि
॥ ॐ हरिः ॐ तत्सत् ॥
अग्निमीळे पुरोहितं ।
होतारं रत्नधातम् ॥
अग्निः पूर्वेभिः ऋषिभिरीड्यो नूतनैरुत ।
स देवाँ एह वक्षति ।
अग्निना रयिमश्नवत्पोषमेव दिवे दिवे ।
यशसं वीरवत्तमम् ॥
अग्ने यं यज्ञध्वरं विश्वतः परिभूरसि ।
स इद्देवेषु गच्छति ॥
अग्निर्होता कविक्रतुः सत्यश्चित्रश्रवस्तमः ।
देवो देवेभिरा गमत् ॥
यदङ्गदाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि ।
तवेत्तत्सत्यमङ्गिरः ॥
उप त्वाग्ने दिवे दिवे दोषावस्तर्धिया वयम् ।
नमो भरन्त एमसि ॥
राजन्तमध्वराणां गोपामृतस्य दीदिविम् ।
वर्धमानं स्वे दमे ॥
स नः पितेव सूनूनवेऽग्ने सूपायनो भव ।
सचस्वा नः स्वस्तये ॥
--
अग्नि न केवल स्वयंभू, विभु, प्रभु, बल्कि परिभू भी है, उसकी मैं आराधना करता हूँ ।
अंधकार में जो रत्न होकर तम को भेदकर उसका नाश करता है ।
अग्नि पूर्व के ऋषियों तथा नवीन से नवीन अधुनातन ऋषियों के लिए पूज्य है ।
वह (अग्नि) देवों का आवाहन करता है :
उनसे कहेगा : यहाँ आओ !
अग्नि के द्वारा रयि को भोजन से दिन-प्रतिदिन पुष्ट किया जाता है ।
यश को, वीरवत्ता को ।
(मैं उस) अग्नि की आराधना करता हूँ जो विश्व में सबके लिए यज्ञ का मार्ग प्रशस्त करता है ।
वह यहाँ से देवताओं में प्रवेश करता है ।
अग्नि होता, कवि, क्रतु, सत्य, चित्र, श्रवस्तम है ।
देवता, जो देवताओं के लिए भीतर बाहर प्रकट है ।
हे अग्नि तुम अपने भीतर प्रसुप्त रहते हुए भी, सबका कल्याण ही करते हो ।
तुमसे ही अङ्गिरा का सत्य वाणी के प्रकट न होते हुए भी स्थिर है ।
(अङ्गिरा अथर्वा-अङ्गिरसः)
हे अग्नि तुममें ही हमारे नित्यप्रति के दोष अस्त (विलीन) होते रहते हैं ।
तुम्हें नमस्कार है, जो सर्वत्र व्याप्त हो ।
सभी दिशाओं को आलोकित व्यक्त्-अव्यक्त् करते हुए स्वप्रकाशित रहते हो ।
नित्य प्रतिदिन वर्धमान (आयु, विस्तार) रहते हो ।
वही अग्नि हमारे लिए पिता के समान है, ...
वैसे ही जैसा पिता सु-उपाय (भली-भाँति) पुत्रों के हित में संलग्न रहता है ।
वह, वही अग्नि हमारे लिए कल्याणप्रद हो ।
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- अग्नि
॥ ॐ हरिः ॐ तत्सत् ॥
अग्निमीळे पुरोहितं ।
होतारं रत्नधातम् ॥
अग्निः पूर्वेभिः ऋषिभिरीड्यो नूतनैरुत ।
स देवाँ एह वक्षति ।
अग्निना रयिमश्नवत्पोषमेव दिवे दिवे ।
यशसं वीरवत्तमम् ॥
अग्ने यं यज्ञध्वरं विश्वतः परिभूरसि ।
स इद्देवेषु गच्छति ॥
अग्निर्होता कविक्रतुः सत्यश्चित्रश्रवस्तमः ।
देवो देवेभिरा गमत् ॥
यदङ्गदाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि ।
तवेत्तत्सत्यमङ्गिरः ॥
उप त्वाग्ने दिवे दिवे दोषावस्तर्धिया वयम् ।
नमो भरन्त एमसि ॥
राजन्तमध्वराणां गोपामृतस्य दीदिविम् ।
वर्धमानं स्वे दमे ॥
स नः पितेव सूनूनवेऽग्ने सूपायनो भव ।
सचस्वा नः स्वस्तये ॥
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अग्नि न केवल स्वयंभू, विभु, प्रभु, बल्कि परिभू भी है, उसकी मैं आराधना करता हूँ ।
अंधकार में जो रत्न होकर तम को भेदकर उसका नाश करता है ।
अग्नि पूर्व के ऋषियों तथा नवीन से नवीन अधुनातन ऋषियों के लिए पूज्य है ।
वह (अग्नि) देवों का आवाहन करता है :
उनसे कहेगा : यहाँ आओ !
अग्नि के द्वारा रयि को भोजन से दिन-प्रतिदिन पुष्ट किया जाता है ।
यश को, वीरवत्ता को ।
(मैं उस) अग्नि की आराधना करता हूँ जो विश्व में सबके लिए यज्ञ का मार्ग प्रशस्त करता है ।
वह यहाँ से देवताओं में प्रवेश करता है ।
अग्नि होता, कवि, क्रतु, सत्य, चित्र, श्रवस्तम है ।
देवता, जो देवताओं के लिए भीतर बाहर प्रकट है ।
हे अग्नि तुम अपने भीतर प्रसुप्त रहते हुए भी, सबका कल्याण ही करते हो ।
तुमसे ही अङ्गिरा का सत्य वाणी के प्रकट न होते हुए भी स्थिर है ।
(अङ्गिरा अथर्वा-अङ्गिरसः)
हे अग्नि तुममें ही हमारे नित्यप्रति के दोष अस्त (विलीन) होते रहते हैं ।
तुम्हें नमस्कार है, जो सर्वत्र व्याप्त हो ।
सभी दिशाओं को आलोकित व्यक्त्-अव्यक्त् करते हुए स्वप्रकाशित रहते हो ।
नित्य प्रतिदिन वर्धमान (आयु, विस्तार) रहते हो ।
वही अग्नि हमारे लिए पिता के समान है, ...
वैसे ही जैसा पिता सु-उपाय (भली-भाँति) पुत्रों के हित में संलग्न रहता है ।
वह, वही अग्नि हमारे लिए कल्याणप्रद हो ।
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