Thursday, 18 October 2018

चित्, चित्त और बुद्धि,

स्मृति-सरिता 
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स्मृति और विचार, -चित्त और बुद्धि के प्रवाह है।
दोनों परस्पर ऐसे घुले-मिले हुए होते हैं जैसे एक नदी के जल में दूसरी नदी का जल।
चित्त मोहग्रस्त अर्थात् प्रमादयुक्त होता है और बुद्धि भ्रम अर्थात् चंचलतायुक्त।
अंतःकरण में ये दोनों ऐसे घुल-मिल जाते हैं कि उनमें विद्यमान उनका मूल स्वरूप एक-दूसरे से कितना बहुत भिन्न है, यह समझ पाना कठिन होता है।
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वृत्ति ही मन है :
वृत्तयस्त्वहं-वृत्तिमाश्रिता ।
वृत्तयो मनो विद्ध्यहं मनः ॥
(वृत्तयः तु अहं-वृत्तिम्-आश्रिताः ।
वृत्तयः मनः विद्धि अहं मनः ॥)
मन केवल वृत्तिसमूह मात्र है । वे सभी वृत्तियाँ ’अहं-संकल्प’ के आश्रित
होती हैं । अतः ’अहं’ वृत्ति ही स्वरूपतः मन है, इसे जान लो ।
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The River.
The memory and the thought are streams of the mind (citta) and the intellect (buddhi).
The two are so entwined dissolved into each-another that it is not easy to distinguish between the two, which are essentially of different nature of their own.
The mind is associated with inattention (प्रमाद / pramāda)  / lack of attention, while the thought is ever so unsteady.
It is very difficult to distinguish one from the other, because the mind / psyche / the inner organ or the consciousness; - the two viz. citta and intellect get so merged into each-other as water in alcohol. This inseparable couple is  verily what is termed as :
The वृत्ति / vṛtti  
18. The mind is nothing but a series of thoughts / वृत्ति / vṛtti  .
Of all the  thoughts वृत्ति / vṛtti  the root is the 'I' thought अहं-वृत्ति / ahaṃ-vṛtti .
Hence the 'I' - the ego- is the mind.
(The next step becomes evident in the next verse.

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अध्याय 7, श्लोक 27,

इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत ।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप ॥
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(इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत ।
सर्वभूतानि सम्मोहम्  सर्गे यान्ति परन्तप ॥)
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भावार्थ :
हे भारत (अर्जुन) ! संसार में अपने जन्म ही से, संसार में सम्पूर्ण प्राणी, इच्छा तथा द्वेष से उत्पन्न हो रहे सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों से विभ्रम को प्राप्त हो रहे हैं ।
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Chapter 7, śloka 27,

icchādveṣasamutthena
dvandvamohena bhārata |
sarvabhūtāni sammohaṃ
sarge yānti parantapa ||
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(icchādveṣasamutthena
dvandvamohena bhārata |
sarvabhūtāni sammoham
sarge yānti parantapa ||)
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O  bhārata (arjuna) !, from the very birth all beings are subject to delusion caused by the dual, dilemma like desire and envy, pleasure and pain.
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The first realization is the realization : 'I am'.
This is spontaneous with no doubt or delusion.
Only after this, comes the world which is assumed to be a separate and different 'other' from 'I am'.
This is सर्ग / जन्म / birth in an apparent world.
Then 'citta' / the psyche becomes the victim of icchā-dveṣa (Desire and envy).
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'citta' is the very river, the riverbed; while the River is :
'Cit', -The timeless awareness of the 'Self' /  the आत्मन् / ātman.
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