३. गंतव्य अरुणाचल
श्री रमण महर्षि का जीवन एवं उनका तत्वदर्शन परस्पर गहराई से अनुस्यूत थे । क्योंकि वे तत्वशास्त्री नहीं, बल्कि व्यावहारिक रूप से एक रहस्यदर्शी ऋषि थे, -एक ऐसे मानव थे जो अपने जीवन की मूल अन्तर्धारा का प्रवाह अन्यों से बाँटने के लिए उत्सुक थे । और उनमें यह उत्कण्ठा तभी से उत्पन्न हो गई थी जब वे अभी किशोरावस्था में ही थे, कि एक ऐसी विशिष्ट अनुभूति से उनका सामना हुआ जिसने अपने 'मन' के विखंडित संसार से बाहर निकालकर उन्हें संसार से परे के, आत्मा के मौन में निमज्जित कर लिया ।
३१ दिसंबर १८७९ के दिन दक्षिण भारत के मदुरै नामक नगर के समीप स्थित एक गाँव (तिरुचुळी) में एक प्रतिष्ठित ब्राह्मण परिवार में उनका जन्म हुआ था, जिसे आर्थिक दृष्टि से संपन्न तो नहीं कहा जा सकता था परन्तु गाँव में जिसे कुलीन की तरह ग्रहण किया जाता था । उनके पिता एक कानूनी सलाहकार की हैसियत के व्यक्ति थे, और वैसे तो वे विधिमान्य (रजिस्टर्ड) वकील तो न थे, किंतु अदालतों में लोगों की कानूनी सहायता करने के लिए उन्हें अनुमति प्राप्त थी । एक छात्र के रूप में श्री रमण कक्षा के अध्ययन-कार्य में विशेषता-प्राप्त विद्यार्थी नहीं थे, और न शिक्षा से जुड़ी दूसरी दूसरी गतिविधियों में उनकी कोई विशेष रुचि थी । उनकी उस अवस्था में यह अनुमान करना कठिन था कि जीवन में आगे जाकर वे विद्वत्ता के क्षेत्र में एक ऊँचा स्थान प्राप्त कर सकेंगे । इसके विपरीत वे खेलकूद और क्रीड़ाओं में अधिक रुचि लेते थे, और उनकी इस रुचि से घर के बड़ों को अवश्य ही उनसे शिकायत थी । क्योंकि उस काल में किसी निर्धन ब्राह्मण परिवार में मस्तिष्क की प्रखरता सर्वाधिक मूल्यवान वस्तु समझी जाती थी । समृद्धि, संपन्नता और सरकारी पद की प्राप्ति के लिए इसे ही एकमात्र कुंजी माना जाता था । अत्यन्त गहरी सुषुप्ति के प्रति उनमें एक स्वाभाविक आकर्षण था और उस स्वस्थ गहरी निद्रा में वे इतनी तन्मयता से सो जाया करते थे कि उनके बालसखा, -जो उनकी जागृत अवस्था में उनसे जीत नहीं पाते थे, उस अवस्था में उन्हें जी भरकर मार-पीट लेते थे, और फिर भी उनकी निद्रा भंग नहीं होती थी । उन बालसखाओं को इस बात की चिन्ता भी नहीं होती थी कि उन्हें इसका पता चलेगा और वे बाद में उनसे इसका बदला लेंगे ।
एक दिन की बात है कि वे घर पर अकेले थे, शारीरिक-रूप से पूरी तरह स्वस्थ थे, किन्तु इसके बावज़ूद वे मृत्यु के ऐसे गहने अनुभव से गुज़रे, और मृत्यु का यह अनुभव इतना उत्कट, प्रत्यक्ष और तीव्र था कि वे लेट गए, उन्होंने अपने नेत्र बंद कर लिए और अपने-आपको जड, जीवनरहित देह से पृथक् के रूप अनुभव करने लगे । किंतु यह भी एक आश्चर्यजनक सत्य था कि इसके साथ-साथ उन्हें यह स्पष्ट बोध भी प्रत्यक्ष था कि जिस प्रकार से वे ’देह’ नहीं हैं, उसी प्रकार से वे ’विचारकर्ता’ भी नहीं हैं । क्योंकि ’मैं’-विचार तो अन्य सारे विचारों का मूल, प्रथम विचार-मात्र होता है और जिस निःशब्दता से इसका उद्भव / आगमन होता है वह है हमारी वास्तविक सत्ता (आत्मा) जो हमारा वास्तविक स्वभाव है, -जो हमारे जीवन का वास्तविक आश्रय है, मनःसृजित सारे लोकों की उद्गम-स्थली है । यहाँ प्रस्तुत अभिव्यक्तियाँ कोरे दार्शनिक सिद्धान्त नहीं है, यद्यपि मानव-बुद्धि की एक अनुपम विचार-पद्धति "अद्वैत-वेदांत" का तत्व-दर्शन अवश्य ही इन शब्दों को अपनी संरचना के मौलिक आधार के रूप में प्रस्तुत करता है । किंतु ये सारी अभिव्यक्तियाँ, काल से परे के एक प्रत्यक्ष बोधरूपी अनुभूतियाँ, उस किशोर की चेतना में; -जिसका तत्वदर्शन के अमूर्त दार्शनिक सिद्धान्तों से नाममात्र का भी परिचय तक न था, अकस्मात् ही प्रखरतापूर्वक कौंध उठीं । जो दर्शन-शास्त्र की शब्दावलि तक से भी बिलकुल अनभिज्ञ था । उन क्षणों में वह बालक मौन की शान्ति में निमग्न हो गया, -आत्मा के आनंद में डूब गया, -उस आह्लाद में निमज्जित हो गया जिसे यद्यपि शब्दों से वर्णित नहीं किया जा सकता परंतु तत्वदर्शियों और ऋषियों के शब्दों में कभी-कभी हमें उसकी कोई झलक अनायास मिल जाया करती है । क्योंकि यदि हमें उस अवस्था का इतना भी संकेत न मिलता तो हम सदा-सदा के लिए पूर्ण अंधकार में डूबे रहते और प्रज्ञा के धुँधले आलोक के अस्तित्व तक से अनभिज्ञ रहते ।
उस अनुभूति ने उनके जीवन आमूलतः रूपांतरित कर दिया । उनका चित्त उस समाधि-दशा में जाने लगा जहाँ पर दिक्-काल के वे सारे बंधन जो हम लोगों को जकड़ रखते हैं, शिथिल और क्षीणप्राय होकर मिटने लगते हैं । इसका एक उदाहरण उस घटना से दिया जा सकता है जब सांसारिक दृष्टि से उपयोगी, पाठशाला के अध्ययन की एक पुस्तक को एक ओर रखकर वे आँखें बंदकर गहरे ध्यान में निमग्न हो गए थे और उनके बड़े भाई ने इस पर उन्हें डाँटते हुए कहा :
"जिसे यही सब करना है, उसे पढ़ने-लिखने की क्या ज़रूरत है?"
बड़े भाई के सदुपदेश का आशय स्पष्ट था । यदि आप संसार में हैं तो सांसारिक ढंग से व्यवहार करें । एक ओर तो आप किसी तथाकथित स्वर्ग की चाह करें, और दूसरी ओर लौकिक इच्छाएँ भी रखें यह न्यायसंगत नहीं है । इसमें संदेह नहीं कि डाँटनेवाले ने यही सोचा होगा कि डाँट खानेवाला बालक सकुचाकर अपना अध्ययन-कार्य गंभीरता से और ध्यानपूर्वक करने लगेगा । किंतु इस ईश्वरीय कृपा से अनभिज्ञ उन लोगों की शिकायतें जो अपने चर्म-चक्षुओं से इस कृपा को देख पाने में असमर्थ हैं, इस बालक को जो भगवान् में निमग्न था, -जिसे ईश्वरीय कृपा विरासत की तरह प्राप्त थी, ईश्वरीय आह्वान की तरह प्रतीत हुईं । प्रयत्नों और सफलता-प्राप्ति के इस संसार से सचमुच उसे क्या लेना-देना था ? और क्यों न वह इस सबको तिलांजलि दे दे?
इसके फलस्वरूप किशोर आयु के रमण ने, जिसने संयोगवश अरुणाचल (तिरुवण्णामलै) का नाम सुन लिया था और जिसे सुनने-मात्र से ही जिसका हृदय इस तरह पुलकित हो उठा था मानों यही उसका वह लौकिक निवास-स्थान है जहाँ उसे अपना शेष संपूर्ण जीवन व्यतीत करना है और मानों उसकी आध्यात्मिक आन्तरिक अनुभूति की वही एकमात्र बाह्य अभिव्यक्ति हो, अपनी आयु के सत्रहवें वर्ष के चलते-चलते घर-परिवार को छोड़ दिया और अरुणाचल की दिशा में निकल पड़ा ।
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घर से चलते समय उसने रेल-किराए के लिए आवश्यक न्यूनतम ज़रूरी पैसे लिए और अनिश्चित काल और स्थान के अपरिचित गंतव्य के पथ पर निकल पड़ा, -उसके साथ इसके सिवा कोई दूसरी वस्तु यदि थी तो वह थी - परमपिता की ईश्वरीय सत्ता के प्रति पूर्ण मौन निष्ठा। अपने पीछे जो छोटी सी चिट्ठी वह छोड़ गया था, उसे देखर कोई भी संवेदनशील व्यक्ति उसकी मनःस्थिति के बारे में बहुत कुछ जान सकता था। अपने निश्चय की दृढ़ता के बावजूद अन्य लोगों की संवेदनाओं का उसे पूरा ध्यान था। यद्यपि पत्र लिखनेवाले ने अपने गंतव्य की घोषणा नहीं की थी किंतु इसकी पुष्टि अवश्य इन शब्दों में की :
"अपने परमपिता की खोज हेतु और उसके ही आदेश से " (मैं-ने) घर छोड़ा है।
चिट्ठी के अगले हिस्से में उसने यह भी स्पष्ट किया कि उसके बड़े भाई द्वारा उसे दी गयी स्कूल की फ़ीस जमा नहीं की गयी है .. , उसने उस राशि का एक हिस्सा लिया है और शेष राशि रख दी गयी है। (क्योंकि) एक शुभ कार्य को करने के लिए झूठ का सहारा लेना ठीक नहीं है।
चिट्ठी में यह भी सूचित किया गया कि उसे ढूँढना या इसके लिए पैसे खर्च करना बिलकुल आवश्यक नहीं है, क्योंकि 'यह' एक श्रेयस्कर कार्य में संलग्न हुआ है।
सर्वाधिक विचारणीय बात यह है कि चिट्ठी को लिखनेवाले का व्यक्तित्व नाममात्र के ही लिए चिट्ठी में दिखाई देता है, मानों उसका अहंकार समाप्तप्राय हो। चिट्ठी की पहली पंक्ति में व्यक्त प्रथम पुरुष एकवचन 'मैं' को संकेतरूप में प्रयोग किया गया है, जो चिट्ठी की अंतिम पंक्ति तक जाकर अन्य-पुरुष एकवचन 'यह' में बदल गया है, और अंत में हस्ताक्षर के स्थान पर केवल एक सीधी लकीर भर खींच दी गयी है, जिससे लगता है मानों लेखक का व्यक्तित्व ही अपनी स्वतंत्र पहचान खो चुका हो।
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मैं और यह
..... निरंतर .....
श्री रमण महर्षि का जीवन एवं उनका तत्वदर्शन परस्पर गहराई से अनुस्यूत थे । क्योंकि वे तत्वशास्त्री नहीं, बल्कि व्यावहारिक रूप से एक रहस्यदर्शी ऋषि थे, -एक ऐसे मानव थे जो अपने जीवन की मूल अन्तर्धारा का प्रवाह अन्यों से बाँटने के लिए उत्सुक थे । और उनमें यह उत्कण्ठा तभी से उत्पन्न हो गई थी जब वे अभी किशोरावस्था में ही थे, कि एक ऐसी विशिष्ट अनुभूति से उनका सामना हुआ जिसने अपने 'मन' के विखंडित संसार से बाहर निकालकर उन्हें संसार से परे के, आत्मा के मौन में निमज्जित कर लिया ।
३१ दिसंबर १८७९ के दिन दक्षिण भारत के मदुरै नामक नगर के समीप स्थित एक गाँव (तिरुचुळी) में एक प्रतिष्ठित ब्राह्मण परिवार में उनका जन्म हुआ था, जिसे आर्थिक दृष्टि से संपन्न तो नहीं कहा जा सकता था परन्तु गाँव में जिसे कुलीन की तरह ग्रहण किया जाता था । उनके पिता एक कानूनी सलाहकार की हैसियत के व्यक्ति थे, और वैसे तो वे विधिमान्य (रजिस्टर्ड) वकील तो न थे, किंतु अदालतों में लोगों की कानूनी सहायता करने के लिए उन्हें अनुमति प्राप्त थी । एक छात्र के रूप में श्री रमण कक्षा के अध्ययन-कार्य में विशेषता-प्राप्त विद्यार्थी नहीं थे, और न शिक्षा से जुड़ी दूसरी दूसरी गतिविधियों में उनकी कोई विशेष रुचि थी । उनकी उस अवस्था में यह अनुमान करना कठिन था कि जीवन में आगे जाकर वे विद्वत्ता के क्षेत्र में एक ऊँचा स्थान प्राप्त कर सकेंगे । इसके विपरीत वे खेलकूद और क्रीड़ाओं में अधिक रुचि लेते थे, और उनकी इस रुचि से घर के बड़ों को अवश्य ही उनसे शिकायत थी । क्योंकि उस काल में किसी निर्धन ब्राह्मण परिवार में मस्तिष्क की प्रखरता सर्वाधिक मूल्यवान वस्तु समझी जाती थी । समृद्धि, संपन्नता और सरकारी पद की प्राप्ति के लिए इसे ही एकमात्र कुंजी माना जाता था । अत्यन्त गहरी सुषुप्ति के प्रति उनमें एक स्वाभाविक आकर्षण था और उस स्वस्थ गहरी निद्रा में वे इतनी तन्मयता से सो जाया करते थे कि उनके बालसखा, -जो उनकी जागृत अवस्था में उनसे जीत नहीं पाते थे, उस अवस्था में उन्हें जी भरकर मार-पीट लेते थे, और फिर भी उनकी निद्रा भंग नहीं होती थी । उन बालसखाओं को इस बात की चिन्ता भी नहीं होती थी कि उन्हें इसका पता चलेगा और वे बाद में उनसे इसका बदला लेंगे ।
एक दिन की बात है कि वे घर पर अकेले थे, शारीरिक-रूप से पूरी तरह स्वस्थ थे, किन्तु इसके बावज़ूद वे मृत्यु के ऐसे गहने अनुभव से गुज़रे, और मृत्यु का यह अनुभव इतना उत्कट, प्रत्यक्ष और तीव्र था कि वे लेट गए, उन्होंने अपने नेत्र बंद कर लिए और अपने-आपको जड, जीवनरहित देह से पृथक् के रूप अनुभव करने लगे । किंतु यह भी एक आश्चर्यजनक सत्य था कि इसके साथ-साथ उन्हें यह स्पष्ट बोध भी प्रत्यक्ष था कि जिस प्रकार से वे ’देह’ नहीं हैं, उसी प्रकार से वे ’विचारकर्ता’ भी नहीं हैं । क्योंकि ’मैं’-विचार तो अन्य सारे विचारों का मूल, प्रथम विचार-मात्र होता है और जिस निःशब्दता से इसका उद्भव / आगमन होता है वह है हमारी वास्तविक सत्ता (आत्मा) जो हमारा वास्तविक स्वभाव है, -जो हमारे जीवन का वास्तविक आश्रय है, मनःसृजित सारे लोकों की उद्गम-स्थली है । यहाँ प्रस्तुत अभिव्यक्तियाँ कोरे दार्शनिक सिद्धान्त नहीं है, यद्यपि मानव-बुद्धि की एक अनुपम विचार-पद्धति "अद्वैत-वेदांत" का तत्व-दर्शन अवश्य ही इन शब्दों को अपनी संरचना के मौलिक आधार के रूप में प्रस्तुत करता है । किंतु ये सारी अभिव्यक्तियाँ, काल से परे के एक प्रत्यक्ष बोधरूपी अनुभूतियाँ, उस किशोर की चेतना में; -जिसका तत्वदर्शन के अमूर्त दार्शनिक सिद्धान्तों से नाममात्र का भी परिचय तक न था, अकस्मात् ही प्रखरतापूर्वक कौंध उठीं । जो दर्शन-शास्त्र की शब्दावलि तक से भी बिलकुल अनभिज्ञ था । उन क्षणों में वह बालक मौन की शान्ति में निमग्न हो गया, -आत्मा के आनंद में डूब गया, -उस आह्लाद में निमज्जित हो गया जिसे यद्यपि शब्दों से वर्णित नहीं किया जा सकता परंतु तत्वदर्शियों और ऋषियों के शब्दों में कभी-कभी हमें उसकी कोई झलक अनायास मिल जाया करती है । क्योंकि यदि हमें उस अवस्था का इतना भी संकेत न मिलता तो हम सदा-सदा के लिए पूर्ण अंधकार में डूबे रहते और प्रज्ञा के धुँधले आलोक के अस्तित्व तक से अनभिज्ञ रहते ।
उस अनुभूति ने उनके जीवन आमूलतः रूपांतरित कर दिया । उनका चित्त उस समाधि-दशा में जाने लगा जहाँ पर दिक्-काल के वे सारे बंधन जो हम लोगों को जकड़ रखते हैं, शिथिल और क्षीणप्राय होकर मिटने लगते हैं । इसका एक उदाहरण उस घटना से दिया जा सकता है जब सांसारिक दृष्टि से उपयोगी, पाठशाला के अध्ययन की एक पुस्तक को एक ओर रखकर वे आँखें बंदकर गहरे ध्यान में निमग्न हो गए थे और उनके बड़े भाई ने इस पर उन्हें डाँटते हुए कहा :
"जिसे यही सब करना है, उसे पढ़ने-लिखने की क्या ज़रूरत है?"
बड़े भाई के सदुपदेश का आशय स्पष्ट था । यदि आप संसार में हैं तो सांसारिक ढंग से व्यवहार करें । एक ओर तो आप किसी तथाकथित स्वर्ग की चाह करें, और दूसरी ओर लौकिक इच्छाएँ भी रखें यह न्यायसंगत नहीं है । इसमें संदेह नहीं कि डाँटनेवाले ने यही सोचा होगा कि डाँट खानेवाला बालक सकुचाकर अपना अध्ययन-कार्य गंभीरता से और ध्यानपूर्वक करने लगेगा । किंतु इस ईश्वरीय कृपा से अनभिज्ञ उन लोगों की शिकायतें जो अपने चर्म-चक्षुओं से इस कृपा को देख पाने में असमर्थ हैं, इस बालक को जो भगवान् में निमग्न था, -जिसे ईश्वरीय कृपा विरासत की तरह प्राप्त थी, ईश्वरीय आह्वान की तरह प्रतीत हुईं । प्रयत्नों और सफलता-प्राप्ति के इस संसार से सचमुच उसे क्या लेना-देना था ? और क्यों न वह इस सबको तिलांजलि दे दे?
इसके फलस्वरूप किशोर आयु के रमण ने, जिसने संयोगवश अरुणाचल (तिरुवण्णामलै) का नाम सुन लिया था और जिसे सुनने-मात्र से ही जिसका हृदय इस तरह पुलकित हो उठा था मानों यही उसका वह लौकिक निवास-स्थान है जहाँ उसे अपना शेष संपूर्ण जीवन व्यतीत करना है और मानों उसकी आध्यात्मिक आन्तरिक अनुभूति की वही एकमात्र बाह्य अभिव्यक्ति हो, अपनी आयु के सत्रहवें वर्ष के चलते-चलते घर-परिवार को छोड़ दिया और अरुणाचल की दिशा में निकल पड़ा ।
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घर से चलते समय उसने रेल-किराए के लिए आवश्यक न्यूनतम ज़रूरी पैसे लिए और अनिश्चित काल और स्थान के अपरिचित गंतव्य के पथ पर निकल पड़ा, -उसके साथ इसके सिवा कोई दूसरी वस्तु यदि थी तो वह थी - परमपिता की ईश्वरीय सत्ता के प्रति पूर्ण मौन निष्ठा। अपने पीछे जो छोटी सी चिट्ठी वह छोड़ गया था, उसे देखर कोई भी संवेदनशील व्यक्ति उसकी मनःस्थिति के बारे में बहुत कुछ जान सकता था। अपने निश्चय की दृढ़ता के बावजूद अन्य लोगों की संवेदनाओं का उसे पूरा ध्यान था। यद्यपि पत्र लिखनेवाले ने अपने गंतव्य की घोषणा नहीं की थी किंतु इसकी पुष्टि अवश्य इन शब्दों में की :
"अपने परमपिता की खोज हेतु और उसके ही आदेश से " (मैं-ने) घर छोड़ा है।
चिट्ठी के अगले हिस्से में उसने यह भी स्पष्ट किया कि उसके बड़े भाई द्वारा उसे दी गयी स्कूल की फ़ीस जमा नहीं की गयी है .. , उसने उस राशि का एक हिस्सा लिया है और शेष राशि रख दी गयी है। (क्योंकि) एक शुभ कार्य को करने के लिए झूठ का सहारा लेना ठीक नहीं है।
चिट्ठी में यह भी सूचित किया गया कि उसे ढूँढना या इसके लिए पैसे खर्च करना बिलकुल आवश्यक नहीं है, क्योंकि 'यह' एक श्रेयस्कर कार्य में संलग्न हुआ है।
सर्वाधिक विचारणीय बात यह है कि चिट्ठी को लिखनेवाले का व्यक्तित्व नाममात्र के ही लिए चिट्ठी में दिखाई देता है, मानों उसका अहंकार समाप्तप्राय हो। चिट्ठी की पहली पंक्ति में व्यक्त प्रथम पुरुष एकवचन 'मैं' को संकेतरूप में प्रयोग किया गया है, जो चिट्ठी की अंतिम पंक्ति तक जाकर अन्य-पुरुष एकवचन 'यह' में बदल गया है, और अंत में हस्ताक्षर के स्थान पर केवल एक सीधी लकीर भर खींच दी गयी है, जिससे लगता है मानों लेखक का व्यक्तित्व ही अपनी स्वतंत्र पहचान खो चुका हो।
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मैं और यह
..... निरंतर .....