Wednesday, 31 October 2018

ईश्वरीय आह्वान / मैं और यह

३. गंतव्य अरुणाचल  
श्री रमण महर्षि का जीवन एवं उनका तत्वदर्शन परस्पर गहराई से अनुस्यूत थे । क्योंकि वे तत्वशास्त्री नहीं, बल्कि व्यावहारिक रूप से एक रहस्यदर्शी ऋषि थे, -एक ऐसे मानव थे जो अपने जीवन की मूल अन्तर्धारा का  प्रवाह अन्यों से बाँटने के लिए उत्सुक थे । और उनमें यह उत्कण्ठा तभी से उत्पन्न हो गई थी जब वे अभी किशोरावस्था में ही थे, कि एक ऐसी विशिष्ट अनुभूति से उनका सामना हुआ जिसने अपने 'मन' के विखंडित संसार से बाहर निकालकर उन्हें संसार से परे के, आत्मा के मौन में निमज्जित कर लिया ।
३१ दिसंबर १८७९ के दिन दक्षिण भारत के मदुरै नामक नगर के समीप स्थित एक गाँव (तिरुचुळी) में एक प्रतिष्ठित ब्राह्मण परिवार में उनका जन्म हुआ था, जिसे आर्थिक दृष्टि से संपन्न तो नहीं कहा जा सकता था परन्तु गाँव में जिसे कुलीन की तरह ग्रहण किया जाता था । उनके पिता एक कानूनी सलाहकार की हैसियत के व्यक्ति थे, और वैसे तो वे विधिमान्य (रजिस्टर्ड) वकील तो न थे, किंतु अदालतों में लोगों की कानूनी सहायता करने के लिए उन्हें अनुमति प्राप्त थी । एक छात्र के रूप में श्री रमण कक्षा के अध्ययन-कार्य में विशेषता-प्राप्त विद्यार्थी नहीं थे, और न शिक्षा से जुड़ी दूसरी दूसरी गतिविधियों में उनकी कोई विशेष रुचि थी । उनकी उस अवस्था में यह अनुमान करना कठिन था कि जीवन में आगे जाकर वे विद्वत्ता के क्षेत्र में एक ऊँचा स्थान प्राप्त कर सकेंगे । इसके विपरीत वे खेलकूद और क्रीड़ाओं में अधिक रुचि लेते थे, और उनकी इस रुचि से घर के बड़ों को अवश्य ही उनसे शिकायत थी । क्योंकि उस काल में किसी निर्धन ब्राह्मण परिवार में मस्तिष्क की प्रखरता सर्वाधिक मूल्यवान वस्तु समझी जाती थी । समृद्धि, संपन्नता और सरकारी पद की प्राप्ति के लिए इसे ही एकमात्र कुंजी माना जाता था । अत्यन्त गहरी सुषुप्ति के प्रति उनमें एक स्वाभाविक आकर्षण था और उस स्वस्थ गहरी निद्रा में वे इतनी तन्मयता से सो जाया करते थे कि उनके बालसखा, -जो उनकी जागृत अवस्था में उनसे जीत नहीं पाते थे, उस अवस्था में उन्हें जी भरकर मार-पीट लेते थे, और फिर भी उनकी निद्रा भंग नहीं होती थी । उन बालसखाओं को इस बात की चिन्ता भी नहीं होती थी कि उन्हें इसका पता चलेगा और वे बाद में उनसे इसका बदला लेंगे ।
एक दिन की बात है कि वे घर पर अकेले थे, शारीरिक-रूप से पूरी तरह स्वस्थ थे, किन्तु इसके बावज़ूद वे मृत्यु के ऐसे गहने अनुभव से गुज़रे, और मृत्यु का यह अनुभव इतना उत्कट, प्रत्यक्ष और तीव्र था कि वे लेट गए, उन्होंने अपने नेत्र बंद कर लिए और अपने-आपको जड, जीवनरहित देह से पृथक् के रूप अनुभव करने लगे । किंतु यह भी एक आश्चर्यजनक सत्य था कि इसके साथ-साथ उन्हें यह स्पष्ट बोध भी प्रत्यक्ष था कि जिस प्रकार से वे ’देह’ नहीं हैं, उसी प्रकार से वे ’विचारकर्ता’ भी नहीं हैं । क्योंकि ’मैं’-विचार तो अन्य सारे विचारों का मूल, प्रथम विचार-मात्र होता है और जिस निःशब्दता से इसका उद्भव / आगमन होता है वह है हमारी वास्तविक सत्ता (आत्मा) जो हमारा वास्तविक स्वभाव है, -जो हमारे जीवन का वास्तविक आश्रय है, मनःसृजित सारे लोकों की उद्गम-स्थली है । यहाँ प्रस्तुत अभिव्यक्तियाँ कोरे दार्शनिक सिद्धान्त नहीं है, यद्यपि मानव-बुद्धि की एक अनुपम विचार-पद्धति "अद्वैत-वेदांत" का तत्व-दर्शन अवश्य ही इन शब्दों को अपनी संरचना के मौलिक आधार के रूप में प्रस्तुत करता है । किंतु ये सारी अभिव्यक्तियाँ, काल से परे के एक प्रत्यक्ष बोधरूपी अनुभूतियाँ, उस किशोर की चेतना में; -जिसका तत्वदर्शन के अमूर्त दार्शनिक सिद्धान्तों से नाममात्र का भी परिचय तक न था, अकस्मात् ही प्रखरतापूर्वक कौंध उठीं । जो दर्शन-शास्त्र की शब्दावलि तक से भी बिलकुल अनभिज्ञ था । उन क्षणों में वह बालक मौन की शान्ति में निमग्न हो गया, -आत्मा के आनंद में डूब गया, -उस आह्लाद में निमज्जित हो गया जिसे यद्यपि शब्दों से वर्णित नहीं किया जा सकता परंतु तत्वदर्शियों और ऋषियों के शब्दों में कभी-कभी हमें उसकी कोई झलक अनायास मिल जाया करती है । क्योंकि यदि हमें उस अवस्था का इतना भी संकेत न मिलता तो हम सदा-सदा के लिए पूर्ण अंधकार में डूबे रहते और प्रज्ञा के धुँधले आलोक के अस्तित्व तक से अनभिज्ञ रहते ।
उस अनुभूति ने उनके जीवन आमूलतः रूपांतरित कर दिया । उनका चित्त उस समाधि-दशा में जाने लगा जहाँ पर दिक्-काल के वे सारे बंधन जो हम लोगों को जकड़ रखते हैं, शिथिल और क्षीणप्राय होकर मिटने लगते हैं । इसका एक उदाहरण उस घटना से दिया जा सकता है जब सांसारिक दृष्टि से उपयोगी, पाठशाला के अध्ययन की एक पुस्तक को एक ओर रखकर वे आँखें बंदकर गहरे ध्यान में निमग्न हो गए थे और उनके बड़े भाई ने इस पर उन्हें डाँटते हुए कहा :
"जिसे यही सब करना है, उसे पढ़ने-लिखने की क्या ज़रूरत है?"
बड़े भाई के सदुपदेश का आशय स्पष्ट था । यदि आप संसार में हैं तो सांसारिक ढंग से व्यवहार करें । एक ओर तो आप किसी तथाकथित स्वर्ग की चाह करें, और दूसरी ओर लौकिक इच्छाएँ भी रखें यह न्यायसंगत नहीं है । इसमें संदेह नहीं कि डाँटनेवाले ने यही सोचा होगा कि डाँट खानेवाला बालक सकुचाकर अपना अध्ययन-कार्य गंभीरता से और ध्यानपूर्वक करने लगेगा । किंतु इस ईश्वरीय कृपा से अनभिज्ञ उन लोगों की शिकायतें जो अपने चर्म-चक्षुओं से इस कृपा को देख पाने में असमर्थ हैं, इस बालक को जो भगवान् में निमग्न था, -जिसे ईश्वरीय कृपा विरासत की तरह प्राप्त थी, ईश्वरीय आह्वान की तरह प्रतीत हुईं ।  प्रयत्नों और सफलता-प्राप्ति के इस संसार से सचमुच उसे क्या लेना-देना था ? और क्यों न वह इस सबको तिलांजलि दे दे?   
इसके फलस्वरूप किशोर आयु के रमण ने, जिसने संयोगवश अरुणाचल (तिरुवण्णामलै) का नाम सुन लिया था और जिसे सुनने-मात्र से ही जिसका हृदय इस तरह पुलकित हो उठा था मानों यही उसका वह लौकिक निवास-स्थान है जहाँ उसे अपना शेष संपूर्ण जीवन व्यतीत करना है और मानों उसकी आध्यात्मिक आन्तरिक अनुभूति की वही एकमात्र बाह्य अभिव्यक्ति हो, अपनी आयु के सत्रहवें वर्ष के चलते-चलते घर-परिवार को छोड़ दिया  और अरुणाचल की दिशा में निकल पड़ा ।
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घर से चलते समय उसने रेल-किराए के लिए आवश्यक न्यूनतम ज़रूरी पैसे लिए और अनिश्चित काल और स्थान के अपरिचित गंतव्य के पथ पर निकल पड़ा, -उसके साथ इसके सिवा कोई दूसरी वस्तु यदि थी तो वह थी - परमपिता की ईश्वरीय सत्ता के प्रति पूर्ण मौन निष्ठा।  अपने पीछे जो छोटी सी चिट्ठी वह छोड़ गया था, उसे देखर कोई भी संवेदनशील व्यक्ति उसकी मनःस्थिति के बारे में बहुत कुछ जान सकता था। अपने निश्चय की  दृढ़ता के बावजूद अन्य लोगों की संवेदनाओं का उसे पूरा ध्यान था।  यद्यपि पत्र लिखनेवाले ने अपने गंतव्य की घोषणा नहीं की थी किंतु इसकी पुष्टि अवश्य इन शब्दों में की :
"अपने परमपिता की खोज हेतु और उसके ही आदेश से " (मैं-ने) घर छोड़ा है। 
चिट्ठी के अगले हिस्से में उसने यह भी स्पष्ट किया कि उसके बड़े भाई द्वारा उसे दी गयी स्कूल की फ़ीस जमा नहीं की गयी है .. , उसने उस राशि का एक हिस्सा लिया है और शेष राशि रख दी गयी है।  (क्योंकि) एक शुभ कार्य को  करने के लिए झूठ का सहारा लेना ठीक नहीं है। 
चिट्ठी में यह भी सूचित किया गया कि उसे ढूँढना या इसके लिए पैसे खर्च करना बिलकुल आवश्यक नहीं है, क्योंकि 'यह' एक श्रेयस्कर कार्य में संलग्न हुआ है। 
सर्वाधिक विचारणीय बात यह है कि चिट्ठी को लिखनेवाले का व्यक्तित्व नाममात्र के ही लिए चिट्ठी में दिखाई देता है, मानों उसका अहंकार समाप्तप्राय हो। चिट्ठी की पहली पंक्ति में व्यक्त प्रथम पुरुष एकवचन 'मैं' को संकेतरूप में प्रयोग किया गया है, जो चिट्ठी की अंतिम पंक्ति तक जाकर अन्य-पुरुष एकवचन 'यह' में बदल गया है, और अंत में हस्ताक्षर के स्थान पर केवल एक सीधी लकीर भर खींच दी गयी है, जिससे लगता है मानों लेखक का व्यक्तित्व ही अपनी स्वतंत्र पहचान खो चुका हो। 
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मैं और यह           
..... निरंतर .....

Tuesday, 30 October 2018

रहस्यवाद की आन्तरिक भावभूमि

विलियम जेम्स : वैरायटीज़ ऑफ़ रिलिजस एक्स्पीरिअन्स
(William James : Varieties of Religious Experience),
ऍविलिन अन्डरहिल : मिस्टीसिज़्म
(Evalin Underhill : Mysticism),
ऍल्डुअस हक्सले : द पेरेनियल फ़िलॉसफ़ी
(Aldous Huxley : The Perennial Philosophy)
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रहस्यदर्शियों के जीवन से संबंधित ज्ञान एवं अज्ञान, उनके उपदेशों और उनकी अज्ञानता, उनकी सांस्कृतिक एवं आनुवांशिकीय तुलनात्मकता आदि के बारे में जैसे-जैसे हम अधिक गहरा चिन्तन करेंगे व रहस्यवाद की आन्तरिक भावभूमि के परिप्रेक्ष्य में इस दृष्टि से विचार करेंगे, कि कैसे हमें उससे आत्मा की आन्तरिक प्रगति के अंधकारपूर्ण पथ पर पग पग पर नया आलोक प्राप्त हो, वैसे-वैसे उनके बारे में निश्चयपूर्वक कुछ कह पाने में, कोई निर्णय देने या उन्हें अस्वीकार कर पाने में हम अपने-आपको असमर्थ पाते चले जाएँगे ।
रहस्यदर्शियों के अनुभवों का वास्तव में इतना बड़ा संग्रह पहले ही से उपलब्ध है जो हमें अत्यन्त प्रभावित कर सकता है । 
विलियम जेम्स : वैरायटीज़ ऑफ़ रिलिजस एक्स्पीरिअन्स / धार्मिक अनुभव के विभिन्न प्रकार
(William James : Varieties of Religious Experience),
ऍवलिन अन्डरहिल : मिस्टीसिज़्म / रहस्यवाद
(Evalin Underhill : Mysticism),
ऍल्डुअस हक्सले : द पेरेनियल फ़िलॉसफ़ी, चिरंतन तत्वदर्शन
(Aldous Huxley : The Perennial Philosophy)
आदि ग्रन्थ ऐसी ही बहुत सी पुस्तकों में से कुछ हैं । इस प्रकार की जानकारियों के संग्रह का विस्तारपूर्वक विश्लेषण करने के लिए न जाने कितने खंडों में यह कार्य हो पाएगा, कुछ कहना कठिन है, और वैसे भी यह कार्य हमारे कार्यक्षेत्र में नहीं आता । यहाँ यह भी कहना उचित होगा कि इस अध्ययन से हमें हमारी कठिनाइयों से मुक्ति मिलने में, उन कठिनाइयों के निवारण में कोई सहायता ही मिल सकती है । यद्यपि हमें ऐसा भी लग सकता है जैसे कोई बड़ा खज़ाना हमारे हाथ लग गया हो,लेकिन उस खज़ाने की चाबी हमारे पास नहीं होती । ये अनुभूतियाँ फिर भी, "गहन-आनंदातिरेक" की धुँधली आकृतियों जैसी प्रतीत होती हैं, पर यदि हमें अवसर मिल सके कि हम स्वयं भी इन अनुभूतियों से गुज़र सकें, तो भी हमें उनका आशय समझने के लिए किसी की सहायता की आवश्यकता अनुभव होगी । लेकिन इसका एक दुःखद पहलू यह भी है कि हमारे लिए वे किन्हीं प्रेरणाजनित, -किसी अन्य समय के अनुभवों की प्रतिध्वनियों जैसी अस्पष्ट आकृतियाँ भर हो सकती हैं --किसी अन्य की भावानुभूतियों के संस्मरणों के माध्यम से अपने प्रश्नों के उत्तर पाने की चेष्टा करना केवल हमारी आशा-अपेक्षाओं के अनुकूल उत्तर प्राप्त करने जैसा होगा ।
किंतु साथ ही यह भी सच है कि उन्हें पढ़ने पर हम मन्त्रमुग्ध हो जाते हैं, किसी व्यापक और विराट वास्तविकता की क्षीण आभा हमारे मन में कौंधने लगती है । इस छोटी सी पुस्तक को लिखने का जो प्रयोजन है, उसका सच्चा औचित्य बस यही है कि एक ऋषि द्वारा अनुभूत चिरंतन सत्य की, उसके ही शब्दों में की गई अभिव्यक्ति "उपदेश सार" का अंग्रेज़ी भाषान्तर (The Quintessence of Wisdom) उपलब्ध हो ।
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-----निरंतर---- ३.       

Self-hypnosis, Para-Psychology

संमोहन, आत्म-संमोहन और रहस्यदर्शी (तत्वज्ञ)
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इस प्रकार से रहस्यदर्शी ऋषि का आगम / आप्त-प्रमाण सर्वथा भिन्न प्रकार का होता है । विभिन्न मतवाद उसके लिए उन छोटे-छोटे दर्पणों जैसे होते हैं जिनमें उसके स्वानुभूति रूपी सूर्य के अनेक प्रतिबिंब झलकते हैं । रहस्यदर्शी, तत्वदर्शी ऋषि के बारे में हम तब तक किसी ठोस निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सकते, -तब तक उसे अंशतः भी समझ पाने की आशा तक नहीं कर सकते जब तक कि हम अपने-आपमें नयी और सूक्ष्मतर संवेदनगम्यता नहीं पैदा कर लेते । किंतु हम यह अवश्य कर सकते हैं कि रहस्यवाद से जुड़ी सारी जानकारियों की अपनी अल्प या अधिक क्षमतायुक्त तर्कनिष्पत्ति के माध्यम से परीक्षा करें और उनसे कोई सारतत्व निकालें, ताकि हममें आशा का संचार हो । क्योंकि यदि हम ऐसा नहीं करते, और यदि प्रतीतियों से परे कहीं कोई सत्य होता हो तो उस सत्य के खोज के मार्ग की ही इति हो जाएगी । नाभिकीय-भौतिकी (Nuclear Physics) के अन्तर्गत शोधकर्ता का सामना एक ऐसी दीवाल से होता है जो अज्ञेय है और उस अज्ञेय दीवाल से पार पदार्थ की वास्तविकता तक पहुँचने से उसे यह दीवाल रोकती है । क्योंकि निरीक्षण करने का कार्य ही, जिसका निरीक्षण किया जा रहा होता है, उस व्यवहार (निरीक्षण observation) की आधारभूत परम-इकाई को ही रूपान्तरित कर देता है, -क्योंकि यदि ऐसा न हो तो काल के अन्तर्गत होनेवाली कण (particle) की पहचान संभव ही न होगी । ठीक इसी प्रकार, विचार केवल पारस्परिक प्रक्रियाओं की जटिलता का रहस्य ही खोल सकता है, वह कभी परम सत्ता का रहस्य नहीं खोल सकता, उसे अनावरित नहीं कर सकता । क्योंकि विचार स्वयं भी उस परम सत्ता के अन्तर्गत ही अस्तित्वमान है, जिसके लिए समस्त प्रक्रियाएँ सापेक्ष / गौण महत्व की हैं ।
जिन्होंने मनःसृजित सुरक्षात्मकता की चिन्ता से ग्रस्त होने से अपने-आपमें संवेदनशून्यता पैदा कर रखी होती है, केवल उन्हीं के अतिरिक्त, प्रायः हर मनुष्य के लिए इस बारे में निर्भ्रान्त होने हेतु थोड़ा सा अध्ययन कर लेना ही पर्याप्त होगा कि किन्हीं भी ज्ञात वैज्ञानिक परिकल्पनाओं के सन्दर्भ का आधार लेकर उनकी सहायता से रहस्यवाद से संबंधित विषयों को व्याख्यायित किया जाना असंभव है । संमोहन hypnosis, आत्म-संमोहन self-hypnosis, परा-मनोविज्ञान Para-Psychology, अन्तःस्रावी ग्रन्थियों / endocrine glands से पैदा होनेवाले भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक प्रभावों तथा दोहरे (स्प्लिट-पर्सनैलिटी split personality, schizophrenic) आचरण आदि सभी के बारे में यह कहा जा सकता है कि वे परिकल्पनाएँ अभी भी किसी अंतिम निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सकी हैं, और अपरिपक्व तथा अपर्याप्त सिद्ध हो रही हैं । क्योंकि रहस्यवाद या तत्वदर्शन का विषय जहाँ एक ओर अनेक शताब्दियों के सुदीर्घ अंतराल के विस्तार में फैला हुआ है, वहीं इसके दूसरे आयाम में संपूर्ण जगत् का विस्तार भी समाया है । केवल किसी विक्षिप्त मानस वाले व्यक्ति के लिए ही नहीं बल्कि सर्वाधिक स्पष्टतायुक्त, विवेकशील और तर्कनिष्णात व्यक्तियों के लिए भी, (यदि वे सत्य की जड़ तक न गए हों) यह संभव नहीं कि ये विषय, रहस्यवाद के सत्य, अनुपम और बिरले अन्तःकरण के रूपान्तरण-सहित पुनः पुनः एक ही भाँति उनके जीवन में प्रकट होते रह सकें ।
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.... निरंतर ..... 

Monday, 29 October 2018

Plotinus, Eckhart Tolle, Mansur Al Hallaaj

एकहार्ट, अल-हिल्लाज,         
 रहस्यवाद के इतिहास पर विवेचना करने से पहले मैं यह कह सकता हूँ कि कोई भी ऋषि, कोई भी रहस्यदर्शी, चाहे वह प्लोटिनस / Plotinus / Πλωτῖνος जैसा प्राचीन हो, या श्रीरमण जैसा आधुनिक-कालीन, चाहे वह एकहार्ट जैसा क्रिश्चियन हो, या अल-हिल्लाज / Al Hallaaj जैसा सूफ़ी, इस तरह की कोई कठिनाई अनुभव नहीं करता । रहस्यदर्शी को मतों अथवा सैद्धान्तिक विवेचनों में कोई रुचि नहीं होती । उसकी रुचि चेतना के उन स्तरों में होती है जिन तक मनुष्य पहुँच सकता हो । हालाँकि अपने अनुभव को व्याख्यायित करने हेतु वह मतवादों को अथवा किसी पद्धति-विशेष को उपयोग में लाए, यह भी हो सकता है । किंतु उसके जीवन का एकमात्र मार्गदर्शन तो अनुभव-रूपी ध्रुवतारा ही करता है । विभिन्न वैचारिक-संरचनाएँ, चाहे वे परस्पर विपरीत ही क्यों न होती हों, उसकी दृष्टि में समान रूप से युक्तिसंगत हो सकती हैं । क्या वास्तव में विभिन्न विचारधाराओं को इस दृष्टि से नहीं देखा जा सकता, जैसा कि किसी एक ही स्थान का नक्शा अलग-अलग लोगों द्वारा अलग-अलग पैमाने पर खींचे जाने पर भी मूलतः भूमि और सागर आदि का ही रेखांकन होता है? इसीलिए श्रीरमण सदा इस बात पर जोर देते थे कि जगत्-अनुभव यद्यपि सत्य है, किंतु वह अपने-आपमें, स्व-आश्रित सत्य नहीं है । उसकी सत्यता सापेक्ष एवं गौण है : यह आत्मा (अस्तित्व, सत्) की ही अभिव्यक्ति मात्र है जो कि उनकी दृष्टि में नित्य विद्यमान सत्य, आनन्द और चैतन्य है, और जीवन के सभी आयामों को अपने में व्याप्त किए हुए है । और अक्षरशः यह उनके लिए ऐसा ही था, उनके जीवन के प्रत्येक क्षण में, प्रति श्वास में वे यही पाते थे । चूँकि उनमें एक गहरा हास्य-बोध भी था इसलिए माया के सिद्धान्त की कोरी बौद्धिक मान्यता के छाया-तले, उस सिद्धान्त पर हठपूर्वक चलकर जिए जानेवाले जीवन की कल्पना पर उन्हें अवश्य ही हँसी आती रही होगी । और सद्वस्तु, -सारतत्व कोई धारणा नहीं है, ऐसी कोई वस्तु नहीं है जिसे कि काल की प्रक्रिया में कभी उपलब्ध किया जाना होता है, बल्कि वह तो यहाँ और अभी, सद्यप्राप्त है, ऐसा कहते हुए वे कभी थके नहीं ।और जो सत्य हमें विरोधाभासपूर्ण प्रतीत होता है और जिसे कहने की क्षमता केवल किसी रहस्यदर्शी में ही हुआ करती है, उसे कहते हुए उनका वक्तव्य यह भी होता था कि सद्वस्तु को जानने का तात्पर्य है मिथ्या विचारकर्ता से, और उसे घेरनेवाले, उसे आच्छादित करनेवाले विचार से रहित सत्-चित्-आनन्द में दृढ़ता से अवस्थित रहना । क्योंकि ज्ञान तो केवल विषयों का ही हुआ करता है और इन विषयों की अपने-आपमें स्वतंत्र सत्ता नहीं होती : और पुनः यह भी सत्य है कि ज्ञान का सद्वस्तु से ऐसा कोई पृथक् अस्तित्व नहीं होता कि वह सद्वस्तु को ज्ञात के रूप में जान सके ।
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.... निरंतर ....
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The Immutable Reality, Dependent-emergence

अविकारी सत्ता / परिवर्तनशील संसार, - नाटक या खेल?
" The philosophy of dependent-emergence "
 अर्थात् "आश्रितोद्भव दर्शन" शीर्षक से लिए गए एक प्रबुद्ध लेख में प्रोफ़ेसर दासगुप्ता कहते हैं :
"यह विश्वास कि 'वास्तविकता' / 'Reality'  व्यक्त-जगत् के पीछे कहीं अवस्थित है, अनुभव के पीछे है और वस्तुओं के पारस्परिकतानिर्भर दृष्टिकोण से परे कहीं अन्यत्र है, मुझे दुराग्रहपूर्ण अंधश्रद्धा प्रतीत होता है ।"
यह वक्तव्य उन लोगों की आँखें खोलने के लिए पर्याप्त है जो यह तर्क देते हैं कि सत्य के प्रति वैराग्यपूर्ण निष्ठा और वास्तविकता की खोज के प्रति समर्पण-बुद्धि के माध्यम से हम किसी परम-विशुद्ध सत्ता की धारणा पर सिद्धान्ततः पहुँच सकते हैं, या उसके बारे में अन्तर्दृष्टि पा सकते हैं ।
यद्यपि शान्तायन एवं राधाकृष्णन् जैसे दर्शनशास्त्रियों के मध्य परस्पर अत्यन्त मतभेद हैं किन्तु फिर भी वे इस बारे में सहमत हैं कि जो लोग जगत्-अनुभव की सत्यता को स्वीकार करते हैं उन्हें यह बात अवश्य ही यह कठिन अनुभव होती होगी कि उन्हें न सिर्फ़ अपने मत को सुसंगत बनाए रखना होता है बल्कि जिस सिद्धान्त के पक्ष में वे उसका समर्थन कर रहे होते हैं, उसकी सुसंगति सिद्ध करते हुए कहीं वे यन्त्रचालित या विक्षिप्त जैसा आचरण न करने लगें यह भी याद रखना होता है । माया के सिद्धान्त पर यह आक्षेप वस्तुतः सत्य है कि इसे स्वीकार करनेवाले में वस्तुतः इस विचार की  सत्यता की गहनता का अभाव होता है ।
अतः शान्तायन कहते हैं :
"हमसे यह अपेक्षा नहीं की जाती है कि हम एक स्वाभाविक संसार के विषय में अपनी अवधारणा को त्याग दें और न यह कि अपने नित्य-प्रति के जीवन में उस पर विश्वास न रखें; -हमें बस थोड़ा सा उत्तर-उत्तर-पश्चिम (नॉर्थ-नॉर्थ--वेस्ट / North-North--West; N-W-W) की ओर रुख करना होगा -- तात्पर्य यह है कि इस संसार की वास्तविकता से परे की वास्तविकता को भी स्मरण रखना होगा ... अर्थात् यदि हवा का रुख दक्षिण की ओर है तो हमें यथार्थवादी होना होगा .... जिन मतों पर मैं विश्वास नहीं करता, उनका सामना करते समय (यदि मैं उस समय सैद्धान्तिक चर्चा न कर रहा होऊँ) तो मुझे हिचक होना चाहिए ।
इसी प्रकार डॉक्टर राधाकृष्णन् भी अपनी बात कम दृढ़ता से नहीं रखते । वे भी बल देकर कहते हैं :
"अस्तित्व का रहस्य-- अविकारी वास्तविकता (immutable Reality)  ’सद्वस्तु’ / ब्रह्म अपने स्वरूप में कोई परिवर्तन लाए बिना ही किस प्रकार स्वयं को परिवर्तनशील विश्व में अभिव्यक्त करती है, अपने स्वरूप को विस्मृत किए बिना ही इस प्रकार कैसे बदल जाती है, यह एक रहस्य है ऐसा कहना, एवं संपूर्ण परिवर्तनमय विश्व को मृग-मरीचिका कहकर निरस्त कर देना, ये दोनों बातें परस्पर नितांत भिन्न दो बातें हैं... । यदि हमें जीवन के खेल को खेलना है तो यह खेल नाटक-मात्र है और इसमें प्राप्त होनेवाले सारे पुरस्कार शून्यस्वरूप हैं, इस निष्ठा के साथ हम यह खेल नहीं खेल सकते । कोई भी दार्शनिक मत सुसंगतिपूर्वक इस सिद्धान्त को स्वीकार कर किसी ठोस निश्चय पर नहीं पहुँच सकता ।
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... निरंतर ....           

Herbert Spencer, Emmanuel Kant, Spinoza

२.
मैं अनुभव करता हूँ कि यद्यपि रहस्यवाद अब भी विलुप्त होती जा रही मनुष्य जाति के लिए एकमात्र आशा है, फिर भी पाश्चात्य मन-मस्तिष्क रहस्यवाद से संबंधित ज्ञान के संग्रह को किसी अमूल्य रत्न की भाँति सुरक्षित रखते हुए उसकी ओर अधिक से अधिक आकर्षित होते रहेंगे, क्योंकि रहस्यवादियों और विभिन्न काल-खंडों में विभिन्न रहस्यदर्शियों-तत्वविदों ने भिन्न-भिन्न परंपराओं, आनुवांशिक और सांस्कृतिक भिन्नताओं के बावज़ूद जो अनुभूतियाँ उपलब्ध की थीं, वे अवश्य ही अत्यन्त मूल्यवान हैं । रहस्यदर्शियों के इस तर्क से परे के सर्वथा युक्तिसंगत अनुभव में जो तत्व है उसे हमारी आकलनपरक बुद्धि के द्वारा सिखाए जा सकनेवाले ज्ञान के माध्यम से, -उस बुद्धि के प्रयोग द्वारा खोज करते हुए हम कभी नहीं पा सकते, --बल्कि इस प्रकार से हम बस अपनी अहंवादिता की ही परिधि में घूमते रह जाते हैं । नाभिकीय-भौतिकी (Nuclear Physics) की ही भाँति दर्शन-शास्त्र में भी हमारा सामना अज्ञात unknown से नहीं, बल्कि अज्ञेय unknowable से है ।
कर्मकांडों की जटिलताएँ उस द्वार को नहीं खोल पातीं जो हमारी परम आंतरिक सत्ता के स्वरूप बन्द कर रखता है, -जो संसाररूपी अनुभव के माध्यम से हमें हमारी वास्तविकता से विच्छिन्न किए हुए है ।
हर्बर्ट स्पेन्सर (Herbert Spencer) द्वारा भौतिकवाद materialism पर दिए गए विसंगत प्रतीत होनेवाले वक्तव्यों पर हमें हँसी आती रही है । यद्यपि समय का उलटफेर उस व्यक्ति को पुनः महिमामंडित कर सकता है जिस पर कभी विद्वत्समुदाय हँसता था (क्या इस दृष्टिकोण से वह एक नटखट अधीर और अपरिपक्व मनुष्य ही नहीं था?) और हमें पुनः कभी एक बार फिर ऐसा महसूस हो सकता है कि उसके द्वारा प्रतिपादित ’फ़र्स्ट-प्रिन्सिपल्स’ 'First Principles' को भेदकर उससे परे जाने की आशा हम नहीं कर सकते जिसके अनुसार; "चूँकि विचार करने का अर्थ है -संबंधित-होना, इसलिए कोई भी विचार किसी अन्य बात को व्यक्त नहीं कर सकता ... ...  बुद्धि चूँकि व्यक्त जगत् की ही उत्पत्ति है और उस व्यक्त जगत् के ही परिप्रेक्ष्य में होती है, अतएव जब हम व्यक्त जगत् से परे की किसी सत्ता के बारे में इसका प्रयोग करते हैं तो (अन्ततः) यह हमें केवल अर्थहीनता में ही संलग्न करती है ।
(First Principles, New York, 1910, p. 56 फ़र्स्ट-प्रिन्सिपल्स, न्यूयॉर्क, १९१०, -पृष्ठ ५६)
’पूर्व’ में अर्थात् प्राच्य में, जिसका प्रयोग मैं भौगोलिक नहीं बल्कि विशिष्ट जीवनचर्या के; ज्ञाता और ज्ञात के संबंध में पाई जानेवाली आत्यन्तिक समस्याओं के प्रति -उस विशिष्ट प्रवृत्ति के अर्थ में, -उस विशेष दृष्टिकोण के अर्थ में कर रहा हूँ जिसे ’पूर्व’ East कहा जाता है, उस सन्दर्भ में यह सरलता से समझा जा सकता है कि कर्मकांड के पक्ष में दिया जानेवाला सर्वाधिक अकाट्य सिद्धान्त व्यक्त जगत् की स्वतन्त्र सत्ता की सत्यता (के सिद्धान्त) को खंडित करता है और विशुद्ध परम सत्ता की एक अवस्था की ओर संकेत करता है, जो कि व्यक्त-जगत् की सत्ता का आधार और अधिष्ठान है, -उसी तात्पर्य में; जिसके अनुसार स्पिनोज़ा Spinoza ने उसे दृश्य-घटनात्मक आवर्त कहा है । किंतु वस्तुतः ऐसा है नहीं । हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि एमानुएल कान्ट Emmanuel Kant ने यद्यपि अव्यक्त (Noumenon) के अस्तित्व पर न तो कभी संदेह उठाया, और न उससे इनकार किया और उसकी स्व-आश्रित सत्ता को यद्यपि मान्य तो किया किंतु साथ ही यह भी कहा कि इसके संबंध में हमें होनेवाला अनुभव सदैव मानसिक ही हुआ करता है । माया के सिद्धान्त में भी अनेक दुरूह कठिनाइयाँ हैं और उनमें से यह कठिनाई भी एक है कि इस सिद्धान्त में समग्रता का अभाव है, -यह परिपूर्ण नहीं है, इसका कोई ऐसा मौलिक आधार नहीं है जिसका निर्वाह सतत किया जा सके और इसलिए अपने व्यावहारिक क्रियाकलापों में निरंतर इसका उल्लंघन करना पड़ता है और इसे अस्वीकार करते रहना पड़ता है, ... -वैसी ही एक बड़ी कठिनाई है ।  और फलस्वरूप हम अपने-आपमें विखंडित हो जाते हैं, अन्तःकरण के तल पर, अन्तर्द्वन्द्व / दुविधा / असमञ्जस में पड़े रहते हैं । भौतिकवादी नहीं, बल्कि एक परिपक्व दार्शनिक ही हमें हमारे मार्ग में आनेवाली चट्टानों के प्रति सावधान करता है ।
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..... निरंतर .... 

Sunday, 28 October 2018

पथहीन भूमि / The Waste-land : T.S.Eliot,

पथहीन भूमि,
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किंतु फिर भी यदि हमें सत्य का उद्घाटन करना ही है तो हमें प्रतीतियों को भेदकर उनसे परे जाना होगा । मनुष्य-मात्र के जीवन में एक-न-एक समय ऐसा आता है, जब वह मन के धरातल की समृद्धियों से अघा चुका होता है । मन की यह क्षमता है कि वह निरन्तर विश्वासों, मत-मतान्तरों और पूर्वानुमानों की सृष्टि करता रह सकता है । मन किन्हीं देवताओं को, यहाँ तक कि ईश्वर को भी गढ़ सकता है किंतु यह वास्तविकता के ऊपर  का आवरण नहीं हटा सकता । किसी बिरले अर्थ के सिवा आस्था प्रायः मन की ही एक भावदशा मात्र हुआ करती है । परन्तु ऐसी भावदशा में नया कुछ आविष्कृत नहीं हो पाताक्योंकि मन उस अवस्था में भी विश्वास और आशा-अपेक्षएँ प्रक्षेपित करता रहता है । किसी अस्तित्वहीन वस्तु पर विश्वास कर पाना संभव ही नहीं है । किंतु आपकी आस्था जिस किसी भी वस्तु पर होती हो, मूलतः वह भी मन का ही कार्य हुआ करता है । मन यद्यपि कुछ रच तो सकता है पर वह सब केवल धूल और राख आदि होता है ।
इसलिए मत-मतान्तर, आस्था या कर्मकांड की ही भाँति, धर्म भी हमें सन्तुष्ट नहीं कर पाता । जिसे हम गुरु कहकर एक व्यक्ति के रूप में स्वीकार कर लेते हैं और जिससे अपने को जोड़ लेते हैं वह भी इसी प्रकार से प्रवंचना ही सिद्ध होता है । अर्थहीनता की इस नकारात्मक दशा में, -ऐसी मनःस्थिति में, हमें वेस्टलैंड (द वेस्टलैंड, -टी.एस.इलियट) ही विरासत में प्राप्त होता है । केवल एक अनुर्वर बंजर भूमि ही हमारे चारों तरफ फैली हुई होती है ।  "द वेस्टलैंड" नामक यह कविता केवल किसी विशिष्ट काल-खंड की, किसी खास दौर या युग की ही  नहीं, बल्कि उस निर्विण्णता की, उस व्यर्थताबोध की भी प्रतिनिधि-कविता है, जो कि आत्मा (के उद्घाटन) की विकास-यात्रा का एक पड़ाव होती है । यहाँ चुनाव करने की अनेक संभावनाएँ हमारे समक्ष आ खड़ी होती हैं । हम अस्वीकृति के बहाने से, मानवतावाद या अज्ञेयवाद के नाम से पलायन कर सकते हैं । और हम लौटकर पुनः उन संकीर्ण पगडंडियों पर पहुँच सकते हैं जो चट्टानों के बीच से गुजरती हैं, -जो उन चट्टानों के बीच मार्ग का आभास देती हैं, -जिन पर मनुष्य के भिन्न-भिन्न मतानुयायियों ने अपने-अपने मठ स्थापित कर रखे हैं -- अथवा यह भी हो सकता है कि हम इस रिक्तता का अविचल रहकर दृढ़ता से सामना करें, उस पर विजय पा लें, स्वयं ही नकारत्मकता की गहराई को भेदकर उसे मिटाने की चेष्टा करें ।
प्रस्तुत ग्रन्थ (उपदेश सार / द् क्विन्टेसेन्स ऑफ़ विज़्डम) उन लोगों के लिए संभवतः पठनीय और उपयोगी है जो आत्मा की उस अंधकार भरी रात्रि (प्रोवर्बिअल डार्क नाइट ऑफ़ द सोल) की मनःस्थिति में हैं जहाँ आत्मा का विकास अवरुद्ध हो गया है, ऐसा अनुभव होता है । जो लोग अभी भी किन्हीं मत-मतान्तरों से बँधे हैं या किन्हीं नये मतों से जुड़ने जा रहे हैं उनकी अपेक्षा आत्म-विकास के अवरुद्ध हो जाने की प्रतीति की दशा अधिक श्रेष्ठतर / उन्नत है या हीनतर / निम्नतर है, इस बारे में कोई चर्चा करना मुझे यहाँ अनावश्यक जान पड़ता है । हिन्दू आध्यात्मिक ग्रन्थ, आधिकारिक प्रमाण के रूप में ग्रहण किए जानेवाले एक ग्रन्थ ’अष्टावक्र-गीता’ के अनुसार जिन्होंने सत्य का साक्षात्कार कर लिया है उनके द्वारा इसके लिए अपनाए जानेवाले रास्ते उन मार्गों की तरह होते हैं जिन पर उड़ान भरकर पक्षी अपने गंतव्य तक पहुँचा करते हैं । असत् और सत् के दो ध्रुवों के बीच के मार्ग पर आत्मा की यात्रा के पथ को भला कौन रेखांकित कर सकेगा?
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'सम्राट के नए वस्त्र'  
..... निरंतर .... 

Wordsworth / Blank Misgivings.

१.
वर्ड्स्वर्थ और 'सम्राट के नए वस्त्र',
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गुणवत्ता अथवा / और सूक्ष्मता से युक्त किसी गहन अनुभव को व्यक्त करने का प्रयास जिन्होंने भी कभी किया है, उन्होंने उसके संप्रेषण में शब्दों की कठिनाई भी अवश्य महसूस की होगी । यदि किसी में कवित्व की प्रतिभा होती है, तो शायद उसकी यह कठिनाई संभवतः कुछ कम हो जाती होगी, लेकिन फिर भी शब्दों के सीमित अर्थ-सामर्थ्य की कठिनाई तो उसके लिए एक बाधा बनी ही रहती है । उदाहरण के लिए यह विश्वास करने के लिए पर्याप्त कारण बतलाए जा सकते हैं कि वर्ड्स्वर्थ अपने पूरे जीवनकाल पर्यन्त सचमुच यह प्रयास करते रहे थे कि किसी गूढ अनुभव को अभिव्यक्त कर पाएँ । यह भी स्पष्ट ही है कि अपने इस प्रयास में वे शायद किन्हीं अंशों तक ही सफल हो पाएँ हों । परन्तु इस बारे में जहाँ-जहाँ भी उन्हें यत्किञ्चित भी सफलता मिल सकी, वहाँ-वहाँ उनके कविकर्म का सर्वाधिक प्रखर और ओजस्वी स्वरूप प्रकट हुआ । उदाहरण के लिए हम उनकी बहुत प्रसिद्ध और प्रचलित इस कविता में इस अंश के वर्णन पर गौर कर सकते हैं :
"Blank misgivings of a creature,
Moving about in worlds not realized,
High instincts, before which our mortal nature,
Did tremble like a guilty thing surprised."
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"ब्लैंक मिस्गिविंग्स ऑफ़ ऍ क्रीचर,
मूविंग ऍबाउट इन वर्ल्ड्स नॉट रियलाइज़्ड;
हाई इन्स्टिंक्ट्स, बिफ़ोर व्हिच अवर मोर्टल् नेचर,
डिड ट्रेम्बल लाइक ऍ गिल्टी थिंग सरप्राइज़्ड"
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"अपरिचित संसारों / लोकों / भुवनों में भटकती,
जीव की निस्सार उत्कण्ठाएँ, उच्चतर अन्तःप्रेरणाएँ,
जिनके समक्ष, हमारा मरणधर्मी अस्तित्व यूँ थरथराता रहा,
जैसे हो वह कोई अचंभित, अपराधबोध-ग्रस्त प्राणी !"
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इन पंक्तियों के माध्यम से वे जो कहने की चेष्टा कर रहे हैं उसका तात्पर्य क्या है? ये शब्द प्रामाणिक तो हैं किंतु उनकी शक्ति और आलोक हमारे सामने नहीं आ पाते । मुझे स्मरण है, एक बार मैंने यह भी पढ़ा था कि कवि वर्ड्स्वर्थ ने स्वयं भी इस पर ज़ोर देकर कहा था कि ये पँक्तियाँ सत्य से उनके एकात्म होने की गहनतम अनुभूति को व्यक्त करती हैं ।
आस्थारूपी कठिनाई तो इससे भी अधिक दुर्लंघ्य जान पड़ती है । कुछ तो ईश्वर की सत्ता को ही नकार देते हैं, जबकि कुछ (जैसा कि वे कहते हैं, शायद) इसकी झलक कभी-कभी पा लेते हैं, परन्तु साथ ही यह भी ज़रूर कहते हैं कि वह सिंहासन रिक्त है । कुछ अन्य, आवेशपूर्वक कहते हैं कि उस सिंहासन पर एक महिमामयी सत्ता विराजित है । रहस्यवाद से जो शिक्षा मिल सकती है, वह लगभग ’सम्राट के नए वस्त्रों’ की कथा का ही एक रूप मालूम होती है ।
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... निरंतर ....      

The Quintessence of Wisdom / उपदेशसार

द् क्विन्टसेन्स ऑफ़ विज़्डम
(महर्षि श्रीरमणकृत उपदेशसार : अंग्रेज़ी अनुवाद)
- एम.अनंतनारायणन्
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०५-०२-२००० को उज्जैन से सदा के लिए अनिश्चित समय और गंतव्य के लिए निकला था।
१३-११-०३ से कुछ माह पहले पुनः उसी स्थान पर, किन्तु उस मकान के सामनेवाले उस 'घर' में 'रहने' की योजना ईश्वर ने बना रखी थी, जहाँ से ०५-०२-२००० को उज्जैन को अलविदा कह, सदा के लिए अनिश्चित समय और गंतव्य के लिए निकला था। ०५-०२-२००० से १३-११-०३ के बीच जे. कृष्णमूर्ति की दो पुस्तकों का अनुवाद किया, जिनमें से एक वर्ष २००३ के आसपास प्रकाशित हुई थी। वैसे पहले और बाद में भी, बहुत सी पुस्तकों का अनुवाद किया, जिनमें से सबसे पहले और सबसे महत्वपूर्ण था -'अहं ब्रह्मास्मि'; जो श्री निसर्गदत्त महाराज के मूलतः मराठी में दिए गए प्रवचनों (निरूपणों) का श्री मॉरिस फ्रीडमन द्वारा किए गए अंग्रेज़ी रूपांतर 'I AM THAT' का मेरे द्वारा किया गया हिंदी अनुवाद था। रोचक तथ्य यह भी है कि इन मूल मराठी प्रवचनों (निरूपणों) का प्रकाशन 'सुखसंवाद' शीर्षक से, उसके  अंग्रेज़ी अनुवाद 'I AM THAT' के कुछ समय बाद ही हो पाया।
पुनः एक पुस्तक 'The Quintessence of Wisdom' पर दृष्टि पड़ी, जो महर्षि श्रीरमण के 'उपदेश सार' का श्री एम.अनंतनारायणन् द्वारा किया गया अंग्रेज़ी रूपांतर था।  किसी अज्ञात प्रेरणा से उसका हिंदी अनुवाद-कार्य शुरू किया।  अभी कुछ दिनों पहले उस पांडुलिपि पर नज़र पड़ी तो लगा इसे 'नेट' पर 'पोस्ट' किया जा सकता है। यहाँ केवल उस प्रस्तावना को पोस्ट किया जा रहा है।
भगवान ने चाहा तो ग्रंथ को भी पोस्ट करूँगा।
उसके आदेश के बिना कहाँ कोई पत्ता भी खड़कता है !        
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प्रस्तावना --डॉ. सर्वेपल्ली राधाकृष्णन)
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धर्म का सारतत्व है --आत्मज्ञान । यह चेतना का ऐसा एक अभियान है जो तात्विक सिद्धान्तों, पूर्वाग्रहों और बोझ बन चुकी प्रथाओं के बंधन से मुक्ति के लिए किया जानेवाला एक निरंतर प्रयास होता है, -जो वास्तविक और अन्तर्निहित की खोज है । सच्चे धर्म की जड़ें अन्ररंग-अनुभव में होती हैं, आत्मा के अपूर्व अनुभव में हुआ करती हैं ।
श्रीरमण-विरचित "उपदेश-सार" के तीस श्लोक जिसे अब श्री अनंतनारायणन् ने अंग्रेज़ी में भाषांतरित किया है, चेतना के उसी धर्म को प्रदान करते हैं जो एक ओर तो भारतीय आध्यात्मिक ग्रन्थों पर आधारित है, वहीं दूसरी ओर आधुनिक मानव-मन को भी स्वीकार्य है । यह एक ऐसी नीतिसंगत और विधिसम्मत प्रक्रिया है जो बाह्य संसार की समस्याओं को आन्तरिक आस्था एवं समझ के परिप्रेक्ष्य से हल करती है । एक ऐसे समय में जब विचार-जगत् का वातावरण सण्देह और मतभेदों से आच्छन्न है, समस्त बातों के प्रति अपने वैयक्तिक अन्तरंग अनुभव को प्रमाण के रूप में स्वीकार करने का अनुरोध पूर्णतः वैध है और व्यक्तियों और राष्ट्रों की भी आध्यात्मिक विमुक्ति के संबंध में उपयुक्त है, इसमें कोई सन्देह नहीं किया जा सकता ।
श्री अनंतनारायणन् द्वारा लिखित भूमिका, अंग्रेज़ी भाषन्तर एवं टिप्पणियाँ इत्यादि न सिर्फ़ श्रीरमण की शिक्षाओं और उनके जीवन के परति उनकी भक्ति का द्योतक हैं, बल्कि उनसे पाश्चात्य रहस्यवाद और साहित्य का उनका गहरा अध्ययन भी प्रमाणित होता है और जिसके कारण उन्होंने प्रायः अपनी विवेचनाओं को अधिक ज्ञनवर्धक एवं रोचक बनाने का सफल प्रयत्न किया है ।
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Saturday, 27 October 2018

दैहिक-दैविक-भौतिक तापा

त्रिताप / तापत्रयी 
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॥श्रीहरिः॥
निवेदनम्

निखिलेऽस्मिन् पञ्चतत्त्वाञ्चिते वैरिञ्चप्रपञ्चेऽनादिकालतो बन्धनमुपेत्य प्रारब्धपरिणितिं भुञ्जानानां जनानामाध्यात्मिकादितापत्रयचिन्ताचक्रव्यूहोत्पाटनपटीयो ज्ञानमेवामनन्ति मोक्षोपायतया निःश्रेयससाधनैकमतयो यतयो महर्षयश्च ।
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(निखिले अस्मिन्  पञ्चतत्त्व अञ्चिते वैरिम् च प्रपञ्चे अनादिकालतः बन्धनम् उपेत्य प्रारब्ध-परिणितिं भुञ्जानानां जनानां आध्यात्मिक आदि तापत्रय-चिन्ताचक्रव्यूह-उत्पाटन पटीयः ज्ञानं एव आमनन्ति मोक्ष-उपायतया निःश्रेयस-साधन-एकमतयः यतयः महर्षयः च।)
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अर्थ :
इस पंचतत्व से बने प्रारब्धरूपी, प्रपञ्चरूपी शत्रु से अनादिकाल से बँधे प्रारब्ध का भोग करते हुए जीवों के आध्यात्मिक आदि तीनों तापों का उच्छेद करने के लिए और मोक्षप्राप्ति के लिए ज्ञान ही एकमेव साधन है, ऐसा निष्कर्ष चिंतन-मनन से प्राप्तकर ज्ञानियों यतियों, महर्षियों ने यह उपदेश दिया है।         
गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित "लघुसिद्धान्तकौमुदी" (पुस्तक संख्या ११६) की भूमिका पढ़ते हुए इस प्रथम वाक्य में जिन तीन तापों से जीव त्रस्त होता है उनका उल्लेख क्रमशः 'आध्यात्मिक', 'आधिदैविक', तथा 'आधिभौतिक' इन तीन प्रकारों से किया गया है।
याद आया पहले कभी;
'दैहिक-दैविक-भौतिक तापा, 
रामराज नहिं काहुँहि व्यापा। ... 
पढ़ा था। 
संस्कृत में आत्मा का एक अर्थ तनु, देह भी होता है ऐसा समझें तो 'दैहिक' का अर्थ 'आध्यात्मिक' है यह समझा जा सकता है। वैसे भी जीव के तीन प्रकार के शरीर क्रमशः स्थूल, सूक्ष्म, तथा कारण कहे गए हैं। 
तीनों ही आत्मा के शुद्ध स्वरूप पर आवरण हैं। 
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Friday, 26 October 2018

ऐतरेय-10

श्रीमद्भग्वद्गीता १०/२२, 
श्रीमद्भग्वद्गीता १३/६
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सर्वत्व का सिद्धान्त और सिद्धान्त का सर्वत्व
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ऐतरेय ने कहा :
".... नारायण 'नृषु' अर्थात् समस्त भूतों में प्रविष्ट होने से ’विष्णु’ हैं ।
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अध्याय 10, श्लोक 22,

वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः
इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना
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(वेदानाम् सामवेदः अस्मि देवानाम् अस्मि वासवः ।
इन्द्रियाणाम् मनः च अस्मि भूतानाम् अस्मि चेतना ॥)
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भावार्थ :
वेदों में सामवेद हूँ, देवताओं में वासव / इन्द्र हूँ, इन्द्रियों में मन हूँ, तथा भूतमात्र में चेतना हूँ ।
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टिप्पणी : ( ... सदावसन्तम् हृदयारविन्दे, ....)

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’वासवः’ / ’vāsavaḥ’ - Indra, the king of celestial divine beings,

Chapter 10, śloka 22,

vedānāṃ sāmavedo:'smi
devānāmasmi vāsavaḥ |
indriyāṇāṃ manaścāsmi
bhūtānāmasmi cetanā ||
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(vedānām sāmavedaḥ asmi
devānām asmi vāsavaḥ |
indriyāṇām manaḥ ca asmi
bhūtānām asmi cetanā ||)
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Meaning :
Among the veda-s, -I AM the sāmaveda. Among the celestial divine beings -I AM  vāsava vAsava (Indra, the king of celestial divine beings). Among the senses, -I am the mind. And in all the beings, I AM present as consciousness.
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अध्याय 13, श्लोक 6,

इच्छाद्वेषः सुखं दुःखं सङ्घातश्चेतना धृतिः ।
एतत्क्षेत्रंसमासेन सविकारमुदाहृतम् ।
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(इच्छा द्वेषः सुखम् दुःखम् सङ्घातः चेतना धृतिः ।
एतत् क्षेत्रम् समासेन सविकारम्-उदाहृतम् ॥)
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भावार्थ :
इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, पञ्चतत्त्वों के सङ्घात (संयुक्त होने) से निर्मित देह, चेतना, तथा धृति, इन सब को सम्मिलित रूप से, इन विकारों सहित संक्षेपतः ’क्षेत्र’ कहा जाता है ।

टिप्पणी : साँख्य-दर्शन के अनुसार, पुरुष ही एकमात्र चेतन, अविकारी तत्व है, जबकि प्रकृति नित्य विकारशील, नाम-रूप के साथ परिवर्तन से युक्त जड तत्व है ।
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Chapter 13, śloka 6,

icchādveṣaḥ sukhaṃ duḥkhaṃ
saṅghātaścetanā dhṛtiḥ |
etatkṣetraṃsamāsena
savikāramudāhṛtam |
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(icchā dveṣaḥ sukham duḥkham
saṅghātaḥ cetanā dhṛtiḥ |
etat kṣetram samāsena
savikāram-udāhṛtam ||)
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Meaning :
Desire, repulsion, joy, sorrow, the gross body as the composite of 5 elements, consciousness, and just or unjust conviction, In brief, these all together are named 'kṣetra' / the field (where-in all activities take place).
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Note :
According to sāṅkhya, the puruṣa is the only conscious (cetana), immutable underlying principle (Subjective Reality, Brahman) of the Whole Existence. In comparison prakṛti is the insentient objective Reality that keeps undergoing change all the time. So prakṛti is said to be vikārī, vikāraśīla, -subject to mutation, while  puruṣa is ever avikārī principle, - ever unaffected by change.
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१०/२२,
वे ही इन्द्र के रूप में स्थूल आधिभौतिक जगत् में जीव-भाव से समस्त भूतों में प्रविष्ट हैं ।
इस प्रकार नाराय़ण जगत् का अन्न (आहार) हुए ।
वे ही चेतना की भाँति, इन्द्र / वासव के रूप में पुनः सूक्ष्म आधिदैविक जगत् (इन्द्रियों) प्रविष्ट में हुए ।
और वे ही चेतना के अधिष्ठान के रूप में जीव तथा स्थूल-सूक्ष्म जगत् में प्रविष्ट हैं ।
इस प्रकार नारायण ही नारायण का आहार हैं ।
इस प्रकार चेतना ही चेतना का आहार है ।
इस प्रकार जीव ही जीव का आहार है ।
वे ही प्राण के रूप में चेतना का आहार / आधार हैं ।
और वे ही चेतना के रूप में प्राण आहार / आधार हैं ।
पुनः अनुभव और क्रिया इन्द्रियों के आहार / आधार हैं ।
इन्द्रियाँ अनुभव और क्रिया के आहार / आधार हैं ।
स्थूल / आधिभौतिक इन्द्रियाँ स्थूल अनुभव और क्रिया के आहार / आधार हैं ।
सूक्ष्म इन्द्रियाँ / आधिदैविक इन्द्रियाँ स्थूल अनुभव और क्रिया के आहार / आधार हैं ।
अशना-पिपासा को अन्ततः जब कहीं स्थान न मिला तो जीव (नारायण) के ही स्थूल तथा सूक्ष्म पिंडों में उन्हें स्थान प्राप्त हुआ ।
प्रकृति के इस कार्य-विभाजन के पश्चात् प्रकृति की प्रतिकल्पा-सृष्टि अर्थात् विकृति को कहीं स्थान न मिला तो अनुभव और क्रिया के मध्य ज्ञान और अज्ञान की तरह उसकी प्रतिष्ठा हुई ।
ज्ञान-अज्ञान के साथ उनके विकल्प विज्ञान को भी स्थान मिला ।
इसलिए सुख-दुःख, राग-द्वेष, शीत-ऊष्णता, को बुद्धि में स्थान मिला ।
बुद्धि के साथ उसकी छाया मोह-बुद्धि भी व्याप्त हुई ।
बुद्धि से जागृति का उद्भव हुआ और मोह से निद्रा का ।
जागृति और निद्रा से काल और काल के अधिष्ठाता 'यम' की प्रतिष्ठा हुई। 
इसलिए बुद्धि और जागृति एक-दूसरे का आहार / आधार हैं ।
इसलिए बुद्धि और मोह-बुद्धि एक दूसरे का आहार / आधार हैं ।
नारायण इस प्रकार अपने ही भीतर समाविष्ट होकर अपनी ही लीला से माया रचते हैं और माया से मोहित होते हैं ।
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संकेत / टिप्पणी :
आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः :
(आज के समय में) न तो ज्ञानेन्द्रियों का आहार और न कर्मेन्द्रियों का आचरण शुद्ध रह गया है ।
कर्मेन्द्रियों का कार्य स्थूल अनुभव तथा स्थूल क्रिया है,
ज्ञानेन्द्रियों का कार्य सूक्ष्म अनुभव तथा सूक्ष्म क्रिया है ।
इन दोनों का सामञ्जस्यपूर्ण मेल (synchronization) प्रकृति है ।
इनका अराजकतापूर्ण अपमिश्रण विकृति है ।
जब कर्मेन्द्रियों का कार्य ज्ञानेद्रियाँ और ज्ञानेन्द्रियों का कार्य कर्मेन्द्रियाँ करने की चेष्टा करती हैं तब विकार उत्पन्न होता है ।
ज्ञानेन्द्रियों के अनुभव तथा क्रिया एवं कर्मेन्द्रियों के अनुभव तथा क्रिया परस्पर भिन्न प्रकार के हैं ।
एक का कार्य दूसरे नहीं कर सकते ।

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(कल्पित)
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Thursday, 25 October 2018

’क़सीदे-काढ़ना’ - विवेचना

’क़सीदे-काढ़ना’
- विवेचना
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कः शेते? के शेरते ? केशराः ।
कः प्रविष्टो?
विष्णुः नारायणोऽपि ।
के व्यापृमाणाः प्रविष्टाः? केशवाः ।
नृषु नारायणो केशवो वा केशैः ।
के सिताः ? केषिताः कर्षिताः वा ।
को सरति / के सरन्ति ?
केसराः पुंकेसराः वा स्त्रीकेसराः ।
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कौन सोता है? कौन सोते हैं?
केशर ।
कौन व्याप्त / प्रविष्ट है / हैं ?
नारायण / केशव मनुष्यों (नरों) में,
केशों (के मार्ग) से । अर्थात् सूक्ष्म-नाड़ियों से ।
कौन तीक्ष्ण हैं ?
केश की भाँति मार्ग बनाते हुए, खींचे हुए ।
केषिता / कर्षिता से बना कसीदा काढ़ना
कर्षिता-कारिता ..... ।
कौन चलता / गति करता है / करते हैं ?
जीव / प्राणी / प्राण / इन्द्र ।
केसर की तरह तृणों में श्रेष्ठ काश्मीर के रूप में ।
इन्द्र ही अन्न के माध्यम से स्थूल रूप में जीवों में प्रविष्ट होकर उनके मन-बुद्धि में ’अहं’ का रूप लेता है .
इन्द्र ही वायु (मरुत् / मरुत्त) के रूप में पाँच प्राणों के रूप में उनका ऐहिक जीवन सुनिश्चित करता है ।
इन्द्र ही केशों से दिति के गर्भ में प्रविष्ट हुआ और उसने उस गर्भ को सात टुकड़ों में खंडित किया ।
वह गर्भ जब इन्द्र के आघात से रोने लगा तो इन्द्र ने उससे कहा :
"मा रुद् !,
-रोओ नहीं !"
दिति जब वर्ष भर की तपस्या में संलग्न थी, तब इन्द्र ने, जो उसकी बहन अदिति का ज्येष्ठ पुत्र था, ’मौसी’ की सेवा के बहाने उसकी रक्षा करने का कार्यभार स्वीकार किया, और एक दिन जब दिति बैठे-बैठे ही ऊँघने लगी थी, और उसके केश शिथिल होकर खुलकर बिखरकर धरती से जा लगे थे तो इन्द्र अवसर देखकर धरती से उठकर उसके केशों के रास्ते उसके गर्भ में जा पहुँचा और उस गर्भ को, जिसे इन्द्रहन्ता के रूप में जन्म देने हेतु दिति ने धारण कर रखा था, सात टुकड़ों में खंडित कर दिया ।
गर्भ में स्थित शिशु के पीड़ा से त्रस्त होकर चिल्लाने और रोने की आवाज़ से जब दिति की नींद खुली तो वह इन्द्र पर पहले तो क्रुद्ध हुई, किंतु जब इन्द्र ने उसे बतलाया कि इसके लिए उसकी ही असावधानी का दोष है, तब वह हँसने लगी ।
वे सात खण्ड ही सात ’मरुत्’ हुए जो इन्द्र (मघवा / मघवन् / मेघ) के साथ भ्रमण करते हुए धरती पर वर्षा करते हैं ।
वैसे इस रूप में यह कथा ’वाल्मीकि-रामायण’ में पाई जाती है, किंतु इसका आधार वैदिक है ।
’कसीदे-काढ़ना’ का उद्भव यहाँ से है ।
ऐतिहासिक ’सिल्क-रूट’ / ’शल्क-ऋतु’ जिसे रेशम का रास्ता भी कहा जाता है, पर वर्तमान चीन में एक पड़ाव आता है - ’काशगर’ जो काशगृह या काशकर का सज्ञाति (cognate) है । काश का अर्थ जहाँ काँस अर्थात् ’तृण’ होता है, वहीं इस स्थान का एक अन्य नाम ’काशी’ भी है ।
शल्क अर्थात् शल / शल्य / शल्क काँटे का पर्याय है, और 'शल्कीयम्' 'शल्क' से उद्भूत है।  'शल्क' अर्थात छिलका या कठोर आवरण, 'शल्कीयम्' से calcium की व्युत्पत्ति समझी जा सकती है, क्योंकि calcium ही शंख-सीपी जैसे जलीय जीवों का आवरण बनाता है।  (shell , sea-shell ....)
यह कहा जाता है कि 'काशी' ही शिव का स्थान है और यह ’हृदय’ का ही पर्याय है ।
’केशव’ केश से ही 'काशी' से निकलकर ’जगत्’ के रूप में अभिव्यक्त होते हैं ।
’काश्मीर’, केशर / केसर, केशव की ही श्रेष्ठतम / सर्वोत्तम अभिव्यक्ति है ।
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केशर से Caesar और Cesarean का क्या संबंध हो सकता है इस पर फ़िर कभी किंतु यह तो स्पष्ट ही है कि सम्राट Caesar, 'केसरी' का सज्ञाति / cognate जान पड़ता है और हनुमान को मरुत्पुत्र तथा केसरीनन्दन भी  कहा जाता है।
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जैसे वैदिक अब्रह्म और अब्राहम / Abraham का साम्य दृष्टव्य है, वैसे ही ...  वेदवर्णित 'यह्व', यहोवा और हिब्रू 'यॉड्-हे-वौ-हे'  से व्यक्त किए जानेवाले YHVH -  יהוה. / The Sacred Word की समानता भी दृष्टव्य है।
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अहं ब्रह्माब्रह्मणी  वेदितव्ये।
(देवी अथर्वशीर्ष ३) :
"I AM" also known as 'Brahma', and also as 'A-Brahma' both.
(devI-atharva-sheerSha, 3 ... a Veda-text) 
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(नोट :
उपरोक्त ’पोस्ट’ न तो किसी मत की स्थापना, पुष्टि, विरोध या समर्थन हेतु; और न ही इस बारे में किसी बहस के उद्देश्य से लिखी गई है ।)
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Tuesday, 23 October 2018

ललाटे काश्मीरं / lalāṭe kāśmīraṃ

The Saffron Valley.
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ānandalaharī (śrīśaṅkarācāryakṛtā)
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bhavāni stotuṃ tvāṃ prabhavati caturbhirna vadanaiḥ
prajānāmīśānastripuramathanaḥ pañcabhirapi |
na ṣaḍbhiḥ senānīrdaśaśatamukhairapyahipati-
stadānyeṣāṃ keṣāṃ kathaya kathamasminnavasaraḥ ||1
ghṛtakṣīradrākṣāmadhumadhurimā kairapipadai-
viśiṣyānākhyeyo bhavati rasanāmātraviṣayaḥ |
tathā te saundaryaṃ paramaśivadṛṅmātraviṣayaḥ
kathaṅkāraṃ brūmaḥ sakalanigamāgocaraguṇe ||2
mukghe te tāmbūlaṃ nayanayugale kajjalakalā
lalāṭe kāśmīraṃ vilasati gale mauktikalatā |
sphuratkāñcīśāṭī pṛthukaṭitaṭe hāṭakamayī
bhajāmi tvāṃ gaurīṃ nagapatikiśorīmaviratam ||3
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आनन्दलहरी (श्रीशङ्कराचार्यकृता)
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भवानि स्तोतुं त्वां प्रभवति चतुर्भिर्न वदनैः
प्रजानामीशानस्त्रिपुरमथनः पञ्चभिरपि ।
न षड्भिः सेनानीर्दशशतमुखैरप्यहिपति-
स्तदान्येषां केषां कथय कथमस्मिन्नवसरः ॥१
घृतक्षीरद्राक्षामधुमधुरिमा कैरपिपदै-
विशिष्यानाख्येयो भवति रसनामात्रविषयः ।
तथा ते सौन्दर्यं परमशिवदृङ्मात्रविषयः
कथङ्कारं ब्रूमः सकलनिगमागोचरगुणे ॥२
मुक्घे ते ताम्बूलं नयनयुगले कज्जलकला
ललाटे काश्मीरं विलसति गले मौक्तिकलता ।
स्फुरत्काञ्चीशाटी पृथुकटितटे हाटकमयी
भजामि त्वां गौरीं नगपतिकिशोरीमविरतम् ॥३
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Above are the first 3 stanzas of a Hymn आनन्दलहरी / ānandalaharī composed by the Great sage śrīśaṅkarācārya / श्रीशङ्कराचार्य, in praise of Goddess  gaurīṃ / गौरी .
śrīśaṅkarācārya / श्रीशङ्कराचार्य was born in a village in Kerala; -the extreme southern-end of India, and He wrote this Hymn in praise of  नगपतिकिशोरी / nagapatikiśorī --Goddess  gaurī / गौरी.
gaurī / गौरी, Consort of Lord  शिव / śiva , the Mother Goddess who is daughter of the Great Himalayan (हिमालय / himālaya) Mountain Range. Here, नगपति-किशोरी / nagapati-kiśorī is thus an address to Her.
The word Saffron literally means काश्मीर / kāśmīra which is the Saffron Valley.
ललाटे / lalāṭe in संस्कृत / saṃskṛta, means 'upon the forehead'.
This is indicated that the Goddess gaurī / गौरी is  ललिता / lalitā  / लल्लेश्वरी / lalleśvarī .
By the way historically too, there was a Kashmiri woman sage named लल्लेश्वरी / lalleśvarī
We can see How śrīśaṅkarācārya / श्रीशङ्कराचार्य addressed the Goddess  gaurī / गौरी, Who is at the Ethereal level Consort of Lord  शिव / śiva , at the Geographical level the Spirit of India as a nation as well.
Some might have scared of saffron-phobia (?), and yet talk of Sovereignty of काश्मीर / kāśmīra, but isn't 'Saffron' itself the True identity and the 'real' name of काश्मीर / kāśmīra ?
Could we destroy, or separate काश्मीर / kāśmīra from India?
It is time we stand for and in favor of काश्मीर / kāśmīra and कश्मीरियत / kāśmīriyat.
And to the Historical fact that India and काश्मीर / kāśmīra are and have been inseparable since the times immemorial. 
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मनोग्रन्थि / psychosomatic memory

स्मृति और संस्कार
Location of the memory in the body:
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Introduction - In the beginning, this post was written in Hindi as is given below.
Let me summarize the same in English here :
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When 'Perception' happens the consciousness is bifurcated into the two as :
Ego / संस्कृत : एको ; and Id संस्कृत  : इदं or
simply into 'I' and 'this'.
I am not going in details how this day Psychology explains this.
This 'Phenomenon' creates two poles in which lies the field of perception.
the animal mind learns through experience and an apparent pattern is worked out because repeated experiences of the similar kinds are grouped together. This is how the brain 'maps' the memory in the first instance.
In the case of animals, as they don't seem to have evolved 'thought' and 'language' that is so developed in humans, the animals learn through repeated experiences. They do create a pattern of memory also. It is only with man that he gradually learns the language of spoken words and certain meanings attached to them. Thought in us exists (really; -'takes place') in words and thought and language are interdependent.  Existence of one depends on the other.
So there exists a certain mapping network in brain either associated with a corresponding mapping depending upon thought in case of man.
Animals have a limited need for learning the skills that are required to maintain their life.
Man has however a great opportunity in terms of 'knowledge' that he acquires during the life-time.
Animals, again 'learn' through play as is seen in their babies. The young-ones of mouse, cat, dog, apes, and many birds take joy in playing in their own way. Gaming too is a skill and to dodge the enemy and protect / save oneself from them too is learned by them. Even certain birds also 'learn' this way. The body 'learns' by practice and the learning is so well-synchronized with the behavior that it becomes the 'second nature'. In Sanskrit this is perhaps what is called 'संस्कार' / 'samskAra'.
Humans, in comparison have far more a broader perspective because there is a 'thought'-focused verbal memory also.
This 'संस्कार' / 'samskAra', or the acquired tendency of behaving has its use and is enough to support the life-system of a living-being.
But 'man' has the faculty of 'mind' which deals with 'thought' and so 'language' too.
This 'mind' that is essentially a psychosomatic activity naturally affects the brain-cells and also the other cells and the 'information' inducted in them can mutate them in many ways. The most of the genetic disorders may be because of this.
Summarily, a mental clinical condition and a corresponding physical / bodily clinical condition are closely inter-related and unless both are attended to together we cannot hope to recover from them.
Thought is limited to verbal form only, while emotion and feeling function through a non-verbal mode that causes and is caused by cell-chemicals and the experienced as such.
This 'medium' constantly undergoes change and alters the 'experience'.
Though there is no a censor that could govern these psychological activities, thought through imposing a sense of continuity assumes the form of such a center that is again perceived as 'me' / Ego and holds supremacy as 'thinker' separate and different from the 'thought' itself.
This division in consciousness is the root cause of conflict.
This conflict too is annihilated when attention is given to the 'fact' of 'what Is'.
Obviously, there is no-one who can undertake this task, as all deliberation is but continuity of the thought-thinker notion.
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प्रतीति से अपने (अहं) और अपने से अन्य (इदं) का साक्षात्कार होता है।
यह प्रतीति पुनरावर्ती होने पर स्मृति बनती है और यद्यपि अपने (अहं) और अपने इस अहं के बोध में कोई भेद नहीं जान पड़ता, अपने से अन्य (इदं) निरंतर परिवर्तन से गुज़रता अनुभव होता है।
इस आभासी परिवर्तनशीलता में एक क्रम (pattern) की खोज 'अनुभव' को निरंतर पुनर्परिभाषित करने लगती है। इस प्रकार मस्तिष्क तथा मस्तिष्क के माध्यम से शरीर का जैव-तंत्र निरंतर 'सीखता' है।  कुछ नितांत स्थूल भौतिक प्रक्रियाएँ यांत्रिक ढंग से बार बार सटीक रीति से दुहराई जा सकती हैं जबकि जीवन की कुछ अन्य प्रक्रियाएँ सतत नई चुनौतियाँ सामने रखती हैं।  सामान्यतः प्रायः सभी जैव-प्रणालियाँ शरीर की इस सीखने की क्षमता की एक सीमा तक जाकर और अधिक कुछ सीखने की आवश्यकता और संभावना से मुक्त हो जाती हैं, लेकिन मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जो 'भाषा' को 'सीखने' के साथ अधिक जटिल रीति से 'विचाऱ' के माध्यम से विभिन्न चुनौतियों का सामना करने में समर्थ होता है, और विचार के विस्तार और विकास के साथ-साथ उसका जीवन अधिक बहुआयामी, विविध संभावनाओं भरी नई चुनौतियों से रूबरू होता है।
यदि भाषा समृद्ध और विकसित न हुई हो तो 'विचार' नई चुनौतियों को न तो देख पाता है, न समझ पाता है, तो उनका सामना करना तो और दूर की बात है।
खेल की भावना मनुष्येतर प्राणियों में मनुष्य से अधिक न भी हो, तो भी भिन्न रीति से अधिक जटिल रूप में हुआ करती है। यदि आप पक्षियों, चूहे, बिल्ली, बंदर या कुत्ते के बच्चों को देखें तो प्रायः बहुत से प्राणी खेल-खेल में शिकार करना और शिकार होने से बचना सीख लेते हैं।  पूरी एक रणनीति होती है हर प्राणी की जिसे वह सीख कर 'संस्कार' के रूप में स्मृति का हिस्सा बना लेता है।  सामान्य परिस्थितियों में इस कौशल की एक सीमा होती है, जिस तक पहुँचने के बाद प्राणिमात्र बस उसे दुहराता रहता है। चूँकि वैचारिक भाषा अन्य प्राणियों में इतनी विकसित नहीं होती जितनी की मनुष्य में होती है, और मनुष्य समाज में रहकर धीरे-धीरे मातृभाषा और कई भाषाएँ सीख लेता है और सरल 'विचार' के क्रम से क्रमशः अधिक कठिन और दुरूह विचार-प्रणालियों की ओर बढ़ता है इसलिए उसके सामने सीखने के अनेक या असंख्य विकल्प होते हैं।  वह निरंतर सीखता रह सकता है और यह 'सीखना' या तो केवल दोहराव हो सकता है, या नया आविष्कार भी हो सकता है। इस प्रकार मनुष्य 'ज्ञान' का एक ऐसा विशाल तंत्र निर्मित और विकसित कर लेता है जिसे  वह 'ज्ञात' शब्द तक सीमित होने की तरह देख  सकता है। इस ज्ञान में जो भी 'नया' सीखा जा सकता है वह वस्तुतः जान / सीख लिए जाने पर नया नहीं रह जाता जबकि जीवन सदा भविष्योन्मुख होने से 'अज्ञात' ही होता है। इस 'भविष्य' की असंख्य कल्पनाएँ हर मनुष्य अपने ढंग से कर सकता है लेकिन कुछ स्थूल भौतिक घटनाओं के अलावा उनमें से एक को भी वह न तो ठीक से अनुमानित या कल्पित कर सकता है और न ही वे जिस प्रकार से घटित होंगीं, इस बारे में निश्चयपूर्वक कुछ कह या देख सकता है।  फिर भी बुद्धिमान से भी भी बुद्धिमान मनुष्य भी अपना 'भविष्य'  'जानने' के लिए उत्सुक होता है।  शायद ही कोई ऐसा हो जो न मानता हो कि कोई आपका भविष्य न तो देख सकता है, न जान सकता है, बस किसी हद तक एक संभावना भर की तरह बता सकता है जो कभी सही तो अकसर गलत ही सिद्ध होती है। और यदि कोई आपका भविष्य जस का तस बता भी देता है तो उसे एक चमत्कार ही समझा जाता है।  हाँ, अगर कोई निरंतर सत्य भविष्यवाणियाँ करने लगे, तो उसे ईश्वरतुल्य मान लिया जाता है, और तब उससे अपेक्षाएँ की जाती हैं कि वह उस भविष्य के अवाँछित को किस प्रकार बदला जा सकेगा इसका उपाय भी बतलाये। चलिए मान लिया जाए कि वह ऐसा कोई उपाय बतला भी सकता है, तो क्या इससे वह उसके द्वारा बतलाये गए 'भविष्य' को बदल सकता है? इसका जवाब, अगर 'नहीं' में है, तो उससे उपाय पूछने का कोई मतलब नहीं और अगर इसका जवाब 'हाँ' है, तो ज़ाहिर है कि उसने जो भविष्य बतलाया था वह असत्य कथन था।  क्योंकि अगर वह भविष्य को 'बदल' सकता है, तो 'भविष्य' एक ऐसा अनिश्चित तत्व होगा जिसके बारे में पहले से कोई भविष्यवाणी संभव नहीं ....!
इसके और भी पहलू हैं लेकिन अभी हम मनोग्रन्थि क्या है इस पर विचार करें.
मनुष्येतर प्राणियों में जो स्मृति 'बनती' है वह तात्कालिक प्रतिक्रियाओं से व्यक्त होकर ग्रंथिरूप नहीं ले पाती, किंतु मनुष्य में किसी भी व्यावहारिक क्रिया (आचरण / बर्ताव) का मूल्यांकन होता है और तात्कालिक प्रतिक्रया संभव न होने पर 'सीखने' के रूप में 'मन' में संचित रहता है।
 इसा 'सीख़ने' को शरीर जैवकोशीय रूप में मनोशारीरिक / psychosomatic रूप में जैव-कोशों में सुरक्षित कर लेता है।  इस प्रकार जैव-कोश (body-cells) अनायास इस 'जानकारी' से प्रभावित होकर उत्परिवर्तित होने लगते हैं।
मनुष्य के साथ यह दुर्भाग्य है कि इस प्रकार 'सीखे' हुए व्यवहार का रूपांतरण जैव-कोशों तक जाकर मनोग्रंथि बन जाता है। मनुष्य के स्वतंत्र व्यवहार और सामाजिक-नैतिक-धार्मिक मान्यताओं के दबाव में अनेक भिन्न-भिन्न मनोग्रंथियाँ मनुष्य में बन जाती हैं और मनुष्य उनसे मुक्त नहीं हो पाता।  इतना ही नहीं, यहाँ तक कि एक मनोग्रंथि को दबाने के लिए किसी अन्य नई रीति से व्यवहार करने की एक और मनोग्रंथि पैदा हो जाती है।  उदाहरण के लिए भय (fear), शर्म (hesitation), बेचैनी (anxiety) का सामना करने के बजाये किसी कृत्रिम और तात्कालिक उपाय से उन्हें दबा दिया जाता है। 
expression-oppression-suppression-repression -
ये चारों  साथ-साथ कार्य करते हैं।
केवल मानसिक ही नहीं, मनोग्रंथिपरक याददाश्त / psychosomatic memory मूलतः कोशीय रचना को भी उत्परिवर्तित (mutate) कर सकती है इस बारे में सोचना अनुसंधान और शोध का विषय हो सकता है ।
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Saturday, 20 October 2018

सत्ता प्रकाश सुख / sattā prakāśa sukha

सारगीता
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सच्चिदानंद-पद-त्रय-विवरण
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सत्ता प्रकाश सुख । या तिहीं उणे लेख
जैसें विखपणेंचि विख । विखा नाहीं ॥
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(अमृतानुभव / प्रकरण ५, ओवी १ )
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saccidānandapadatrayavivaraṇa
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sattā prakāśa sukha | yā tihīṃ uṇe lekha |
jaiseṃ vikhapaṇeṃci vikha | vikhā nāhīṃ ||
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(amṛtānubhava, prakaraṇa 5, ovī 1)
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सत्ता प्रकाश सुख । इन तीनों से परे वर्णन ॥
जैसे विषाक्तता का विष, विष को नहीं विषप्रद  ॥
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भूमिका :
अमृतानुभव के अनुवाद का यत्न कुछ वर्षों पहले शुरू किया था। 
चार प्रकरण पूर्ण होने पर पांचवां प्रारम्भ किया तो प्रथम 'ओवी' का संतोषप्रद अनुवाद नहीं कर पा रहा था। इसलिए वह उपक्रम वहीं रुक गया।  इस बीते समय में अनेक बार इस 'ओवी' पर  चिंतन अनायास होता रहा।
शायद आज इसे ठीक ढंग से संतोषपूर्वक समझकर यथासंभव जैसा समझा लगभग वैसा ही व्यक्त कर पा रहा हूँ।
इसी का आधारभूत तुलनात्मक स्वरूप गीता के निम्न श्लोक में प्रतीत हुआ :
अध्याय 2, श्लोक 59,

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ॥
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(विषयाः विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।
रसवर्जम् रसः अपि अस्य परम् दृष्ट्वा निवर्तते ।)
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भावार्थ :
जो मनुष्य इन्द्रियों से विषयों का सेवन नहीं करता, उसकी विषयों से तो निवृत्ति हो जाती है (किन्तु विषयों से आसक्ति, अर्थात् उनमें सुख है ऐसी बुद्धि निवृत्त नहीं हो पाती) किन्तु जिसने परमात्मा का दर्शन कर लिया है, उसकी ऐसी सुख-बुद्धि अर्थात् लालसा (रसवर्जना) और आसक्ति भी उस दर्शन से सर्वथा निवृत्त हो जाती है ।
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टिप्पणी :
लालसा को रसवर्ज इसलिए कहते हैं, क्योंकि लालसा सुख के अभाव का ही द्योतक होती है ।  जब तक लालसा होती है, सुख नहीं होता । और लालसा तृप्त हो जाने पर भी  सुख नहीं रहता । केवल उसके पूर्ण होने की प्रतीति के समय में कभी कभी सुख का आभास होता है, और वह आभास भी बाद में शेष नहीं रहता ।
विकल्प से, यदि हम ’रसवर्जम्’ को कर्म अर्थात् द्वितीया विभक्ति के अर्थ में ग्रहण करें तो वह ’परम्’ के तुल्य होकर ’ब्रह्म’ का पर्याय है, चूँकि ’ब्रह्म’ स्वयं ही रसस्वरूप अद्वैत तत्व है जिसका आनन्द लेनेवाला उससे अन्य नहीं है, इसलिए उसमें इस दृष्टि से रस का भी अत्यन्त अभाव है ।
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Chapter 2, śloka 59,

viṣayā vinivartante
nirāhārasya dehinaḥ |
rasavarjaṃ raso:'pyasya
paraṃ dṛṣṭvā nivartate ||
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(viṣayāḥ vinivartante
nirāhārasya dehinaḥ |
rasavarjam rasaḥ api asya
param dṛṣṭvā nivartate |)
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Meaning :
One who abstains from objects (of the senses) is of course free from them, but his craving for the pleasures (and aversion to the pains) that seem to come from those (gross and subtle) objects ceases not. However, One who has realized the Supreme (Brahman that is Bliss), attains freedom from the cravings also.
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पिछली एक पोस्ट में वृत्ति के बारे में लिखा था कि किस प्रकार 'वृत्ति' में ध्यान की दिशा (बहिर्मुखता या अंतर्मुखता) के साथ चित्त का प्रमाद / अप्रमाद और बुद्धि की चंचलता (या एकाग्रता) का युग्म संबद्ध होता है। 
इस प्रकार इन्द्रियाँ और इन्द्रियों से वृत्ति के माध्यम से जुड़ा 'मन' ही विभिन्न विषयों से संपर्क में होता है। 
अष्टावक्र-गीता के प्रथम  श्लोक का उल्लेख यहाँ न किया जाए तो यह पूरा प्रसंग अधूरा ही होगा। 
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अष्टावक्र-गीता 
प्रथमोऽध्यायः 
अष्टावक्र उवाच :
मुक्तिमेच्छसि चेत्तात विषयान्विषवत्त्यज ।
क्षमार्जवदयातोष सत्यं पीयूषवद्भज ॥१
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aṣṭāvakra-gītā 
prathamo:'dhyāyaḥ 
aṣṭāvakra uvāca :
muktimecchasi cettāta viṣayānviṣavattyaja |
kṣamārjavadayātoṣa satyaṃ pīyūṣavadbhaja ||1
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इन्द्रियोंसहित मन की त्रिविध दशा / दिशा:
मन इस प्रकार जो स्वरूपतः 'वृत्ति' है तीन दशाओं / अवस्थाओं में हो सकता है :
बहिर्मुख, अन्तर्मुख और पराङ्गमुख।
विषयों से सम्बद्ध होने पर यह या तो बहिर्मुख या अन्तर्मुख होने पर भी विषयाभिमुख ही होता है।
किंतु पराङ्गमुख होने पर यह पर-तत्व से एकीभूत (identified) होता है।
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क्रमशः :
  पराङ्गमुखता 
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Friday, 19 October 2018

अथातो आत्मजिज्ञासा / The Spirit.

प्रतीति, अनुभूति, ज्ञान और स्मृति 
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एषो ह देवः प्रदिशो नु सर्वाः पूर्वो ह जातः स उ गर्भे अन्तः। 
स एव जातः स जनिष्यमाणः प्रत्यङ्जनास्तिष्ठति सर्वतोमुखः।
(शिवअथर्वशीर्षम्)
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यही आधिदैविक सत्ता 'देव' अर्थात्  कण-कण में प्रविष्ट 'देवता', -'विष्णु' के नाम से भी प्रख्यात होने से प्रभु या विभु भी कहा जाता है। चूँकि उसके अहम्-रूप से व्यक्त होते ही कण भी 'जीव' रूप में अपने अस्तित्व को कण में व्यक्त पाता है, इसलिए अहम्-रूप में वह स्वयंभू है। यही देवता तब उसकी अपनी सर्वात्मक प्रतीति को, वह जिसे 'ब्रह्म' के रूप में अपने से पृथक की तरह अनुभव करता है, स्वयंभू ब्रह्मा भी है।
इस प्रकार कारण-भेद से और कार्य-भेद से ही वह प्रभु, विभु, स्वयंभू और ईश्वर (शिव) विष्णु और ब्रह्मा होते हुए भी 'जीव' के रूप में भी 'अहम्' की तरह स्वप्रकाशित है, जिसे जाननेवाला उससे दूसरा कोई नहीं होता। इस प्रकार अकारण ही वह गर्भ में प्रविष्ट होकर कण-मात्र को अपने प्रकाश से प्राणित कर सीमित शक्ति युक्त 'जीव' कहलाता है। यह उसकी लीला है।  लीला हेतु वह स्वयं ही अपने स्वरूप को विस्मृत कर देता है।      
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कण-कण में विद्यमान प्रभु यूँ तो सदा समाधिस्थ होता है, इसलिए उसके संबंध में 'पहले' और 'बाद में' का सन्दर्भ निरर्थक है। 
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Perception, Experience, Knowledge and Memory.

eṣo ha devaḥ pradiśo nu sarvāḥ pūrvo ha jātaḥ sa u garbhe antaḥ |
sa eva jāto sa janiṣyamāṇaḥ pratyaṅjanāstiṣṭhati sarvatomukhaḥ ||
(śiva-atharvaśīrṣa)
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Because This conscious entity देवता / devatā स्फुरित / sphurita (cognate -- Spirit); that has entered and pervaded in each and every particle, is therefore called विष्णु / viṣṇu , Is manifest in His own splendor, is therefore called प्रभु / prabhu, is 'other' than all such many different entities, is therefore called विभु / vibhu
and has evolved from His own is therefore called स्वयंभू / svayaṃbhū also.
As शिव / śiva , ब्रह्मा / brahmā and  विष्णु / viṣṇu, He Himself just for play imposes upon Himself the 'ignorance' of oneself.
He 'becomes' many and enters the womb of Creation in the individual form and capacity.
At the level of His own world, He longs for becoming many and finds feels and experiences oneself as a unique individual.
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Thursday, 18 October 2018

चित्, चित्त और बुद्धि,

स्मृति-सरिता 
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स्मृति और विचार, -चित्त और बुद्धि के प्रवाह है।
दोनों परस्पर ऐसे घुले-मिले हुए होते हैं जैसे एक नदी के जल में दूसरी नदी का जल।
चित्त मोहग्रस्त अर्थात् प्रमादयुक्त होता है और बुद्धि भ्रम अर्थात् चंचलतायुक्त।
अंतःकरण में ये दोनों ऐसे घुल-मिल जाते हैं कि उनमें विद्यमान उनका मूल स्वरूप एक-दूसरे से कितना बहुत भिन्न है, यह समझ पाना कठिन होता है।
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वृत्ति ही मन है :
वृत्तयस्त्वहं-वृत्तिमाश्रिता ।
वृत्तयो मनो विद्ध्यहं मनः ॥
(वृत्तयः तु अहं-वृत्तिम्-आश्रिताः ।
वृत्तयः मनः विद्धि अहं मनः ॥)
मन केवल वृत्तिसमूह मात्र है । वे सभी वृत्तियाँ ’अहं-संकल्प’ के आश्रित
होती हैं । अतः ’अहं’ वृत्ति ही स्वरूपतः मन है, इसे जान लो ।
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The River.
The memory and the thought are streams of the mind (citta) and the intellect (buddhi).
The two are so entwined dissolved into each-another that it is not easy to distinguish between the two, which are essentially of different nature of their own.
The mind is associated with inattention (प्रमाद / pramāda)  / lack of attention, while the thought is ever so unsteady.
It is very difficult to distinguish one from the other, because the mind / psyche / the inner organ or the consciousness; - the two viz. citta and intellect get so merged into each-other as water in alcohol. This inseparable couple is  verily what is termed as :
The वृत्ति / vṛtti  
18. The mind is nothing but a series of thoughts / वृत्ति / vṛtti  .
Of all the  thoughts वृत्ति / vṛtti  the root is the 'I' thought अहं-वृत्ति / ahaṃ-vṛtti .
Hence the 'I' - the ego- is the mind.
(The next step becomes evident in the next verse.

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अध्याय 7, श्लोक 27,

इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत ।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप ॥
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(इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत ।
सर्वभूतानि सम्मोहम्  सर्गे यान्ति परन्तप ॥)
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भावार्थ :
हे भारत (अर्जुन) ! संसार में अपने जन्म ही से, संसार में सम्पूर्ण प्राणी, इच्छा तथा द्वेष से उत्पन्न हो रहे सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों से विभ्रम को प्राप्त हो रहे हैं ।
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Chapter 7, śloka 27,

icchādveṣasamutthena
dvandvamohena bhārata |
sarvabhūtāni sammohaṃ
sarge yānti parantapa ||
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(icchādveṣasamutthena
dvandvamohena bhārata |
sarvabhūtāni sammoham
sarge yānti parantapa ||)
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O  bhārata (arjuna) !, from the very birth all beings are subject to delusion caused by the dual, dilemma like desire and envy, pleasure and pain.
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The first realization is the realization : 'I am'.
This is spontaneous with no doubt or delusion.
Only after this, comes the world which is assumed to be a separate and different 'other' from 'I am'.
This is सर्ग / जन्म / birth in an apparent world.
Then 'citta' / the psyche becomes the victim of icchā-dveṣa (Desire and envy).
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'citta' is the very river, the riverbed; while the River is :
'Cit', -The timeless awareness of the 'Self' /  the आत्मन् / ātman.
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The Memory, the Recognition and the Past.

What stuff memory is made of ?
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संस्कृत में 'स्मृ' -- स्मरति -- (भ्वादि गण, परस्मैपदी) तथा 'मृ' -- (तुदादिगण, आत्मनेपदी) धातुओं के प्रथम पुरुष एकवचन लट् लकार रूप क्रमशः 'स्मरति' व 'म्रियते' होते हैं।  और इनके प्रथम पुरुष एकवचन लिट् लकार रूप क्रमशः 'सस्मार' / 'सस्मर' एवं 'ममार' / 'ममर' होते हैं।
स्मृति (याद) और मृति (मृत्यु) समानार्थी और सरूप हैं। 'memory' इसी  'ममार' / 'ममर' का cognate है।
इस प्रकार दोनों नित्य मिटते रहते हैं।
स्मृति, पहचान से होती है और पहचान स्मृति से। 
'अतीत' अर्थात् भूतकाल वह जानकारी है जो अनुभव या विचार के रूप में मस्तिष्क में संचित व सुरक्षित होती है।
आदि-स्मृति या प्रथम स्मृति पुनः दो तरह की हो सकती है -- यांत्रिक तथा जैविक।
भौतिक वस्तुएँ अस्तित्व के जिन नियमों / सिद्धांतों से संचालित होती हैं वे नियम / सिद्धांत किसी प्रकार की 'जानकारी' / information होते हों तो प्रश्न उठता है कि क्या वह भाषा 'जानकारी' / information हो सकती है? 'जानकारी' हमेशा डेटा के रूप में होती है और डेटा हमेशा किसी भाषा में होता है।  इस प्रकार भौतिक वस्तुओं के  अस्तित्व को परिचालित करनेवाला तत्व न तो भाषा के रूप में है न 'जानकारी' / डेटा / information , अनुभव तथा पहचान (recognition) अर्थात् स्मृति / memory के रूप में  हो सकता है जिसके आधार पर  भौतिक वस्तुएँ उन नियमों / सिद्धांतों का अचूक रीति से अनायास पालन करती हैं जिन्हें 'विज्ञान' / 'वैज्ञानिक' भाषा के माध्यम से 'जानकारी' / डेटा / information का रूप देता है। यह तो हुई यांत्रिक स्मृति।
दूसरी ओर जैविक स्मृति वह होती है जो किसी प्राणी में अंतःकरण / चेतना के स्तर पर 'अनुभव' के रूप में संचित होती है।  मस्तिष्क तुलना के द्वारा पहले उन स्मृतियों की पृथक-पृथक 'पहचान'  नोर्मिट / तय करता है और ऐसी अनेक विविध पहचानों के क्रम को पुनः विभिन्न वर्गों में बाँटता है।  यह जैव-प्रक्रिया मूलतः प्रकृति में ही अव्यक्त रूप में स्थिर है और व्यक्त रूप में आने पर उसे 'स्मृति'  कहा जाता है।  RNA तथा mRNA के अध्ययन से यह स्पष्ट है की किस प्रकार स्वसंचालित रीति से जैवकोषीय स्मृति का एक से दूसरे कोष में स्थानांतरण / transportation होता है। यह प्रक्रिया भी बहुत जटिल और रोचक होते हुए भी बहुत सटीक रीति से कार्यरूप लेती है। DNA--mRNA ---protein , pre-mRNA --- promoter -- coding strand -- template strand ... karyotic / eukaryotic ...exons / introns   karyotic / eukaryotic को कार्यतिक / अवकार्यतिक का सज्ञाति (cognate) समझा जा सकता है।
यह तो हुआ स्मृति का जैविक रूप जिसका अध्ययन वैज्ञानिक करते हैं।  दूसरी ओर स्मृति का वह रूप जो स्वयं मन mind, बुद्धि / intellect, विचार / thought, तथा बोध (attention) के माध्यम से यह अध्ययन करता है।
स्मृति का यह रूप जो अध्ययनकर्ता के भीतर सक्रिय है, वह एक ऐसा तत्व है जो मूलतः अपने-आपका अखंडित स्मरण है जिसे न तो विस्मृत किया जा सकता है, न अनुपस्थित / absent . किंतु पहचान जिस स्मृति की होती है, वह स्मृति मूलतः यांत्रिक होती है।  'अपने-आपकी स्मृति' जैसा कुछ होता ही नहीं क्योंकि हम  / अध्ययनकर्ता स्वयं स्मृति और विस्मृति का विषय नहीं है।  सत्य तो यह है कि उसका बोध स्वभाव ही है, न कि जानकारी या पहचान जैसी कोई आने-जानेवाली वस्तु।
इस स्वभाव का बोध, स्मृति से विलक्षण कोई तत्व है।
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विज्ञान आधिभौतिक स्मृति है,
व्यवहार अर्थात् जैविक स्मृति , आधिदैविक स्मृति है,
और, अपने-आपका अखंडित स्वाभाविक, अनायास और सहज बोध  आध्यात्मिक स्मृति है।
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अध्याय 18, श्लोक 72,

कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेणचेतसा ।
कच्चिदज्ञानसम्मोहः प्रनष्टस्ते धनञ्जय ॥
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(कच्चित् एतत् श्रुतम् पार्थ त्वया एकाग्रेण चेतसा ।
कच्चित् अज्ञानसम्मोहः प्रनष्टः ते धनञ्जय ॥)
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भावार्थ :
हे पार्थ (अर्जुन)! क्या तुमने इसे एकाग्रचित्त होकर सुना? हे धनञ्जय (अर्जुन)! क्या (इसे सुनकर) तुम्हारा अज्ञानजनित मोह मष्ट हुआ?
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Chapter 18, śloka 72,

kaccidetacchrutaṃ pārtha
tvayaikāgreṇacetasā |
kaccidajñānasammohaḥ
pranaṣṭaste dhanañjaya ||
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(kaccit etat śrutam pārtha
tvayā ekāgreṇa cetasā |
kaccit ajñānasammohaḥ
pranaṣṭaḥ te dhanañjaya ||)
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Meaning :
O  pārtha (arjuna) ! Did you hear this all with keen, undivided attention?
O dhanañjaya (arjuna)! and, (having heard this), Are your confusions and doubts born of the delusion cleared away?
--
 अध्याय 18, श्लोक 73,

अर्जुन उवाच :

नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादात्मयाच्युत ।
स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव ॥
--
नष्टः मोहः स्मृतिः लब्धा त्वत्प्रसादात् मया अच्युत ।
स्थितः अस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनम् तव ॥)
--
भावार्थ :
अर्जुन ने कहा :
हे अच्युत! आपकी कृपा से मेरा मोह (जिसने मेरी स्मृति को आवरित कर रखा था) नष्ट हो गया है, और उस स्मृति को पाकर मेरे संशय विलीन हो गए हैं और मैं पुनः आत्मा में अवस्थित (स्थितधी)* हो गया हूँ ।
--
’लब्धा’ / ’labdhā’  -- acquired, achieved, attained,  found, recollected, revived,

Chapter 18, śloka 73,

arjuna uvāca :

naṣṭo mohaḥ smṛtirlabdhā
tvatprasādātmayācyuta |
sthito:'smi gatasandehaḥ
kariṣye vacanaṃ tava ||
--
naṣṭaḥ mohaḥ smṛtiḥ labdhā
tvatprasādāt mayā acyuta |
sthitaḥ asmi gatasandehaḥ
kariṣye vacanam tava ||)
--
Meaning :
arjuna said : O acyuta! (Infallible One -śrīkṛṣṇa), My illusion is now removed. And by your Grace, I have recollected my composure (and remembered again the truth of my Real being). My doubts are cleared away and I am firmly stabilized in Wisdom. And shall act accordingly as you instruct me to do.
--

        

Wednesday, 17 October 2018

Another way of looking at 'Memory'.

What is the place of memory in man?
--
What is biological-memory?
How it is encoded into genes?
I was watching this video.
So, there is a 'process' that is quite 'mechanical' and could be viewed, studied and understood in this way.
This is stored in the genes / RNA / cells.
There is 'encoding' and transcription there are mRNA, and that 'hairpin-section' as described.
That is how the body as an organism, functions in totality as a process.
Could this memory be recorded in the same way like the memory of events is stored in the brain?
Ordered sequences of memory in terms of thoughts, words and images, sounds and feelings again in some abstract forms of all these kinds constitute what is named 'memory'.
The whole play is enacted repeatedly in many different ways.
And there is no fulcrum, a point around which these things revolve or hang upon.
Yet a fictitious center arises and appears as the monitor that governs and manages, controls and regulates the full play.
Is not this center really again a part of memory?
This is the paradox.
The same life that creates, nourishes, different innumerable organisms takes the sense of the individual-being in all them.
This individual appears and subsides moment to moment and derives an apparent sense of permanence and continuity. Assuming the physical body as itself it extends one's existence in an assumed past and an imagined future. This faculty of the mind is called intellect. And only after this intellect triggers the 'thought', the thought-based memory becomes important to such an extent that the fact that the sense of individual itself a notion is just ignored, and ultimately forgotten too.
Then the seeking of permanency of this individual, which comes into being and disappears moment to moment becomes the obsession. A greater and much more powerful individual / entity is then imagined Who controls all and the whole life, though where and how this Lord or the Master lives His or Her life is never questioned.
Is there a life of one who lives in isolation, away from the Life itself?
Is not all memory but the translation of past and the future in now only?
The memory that is in the form of information is not the thing that really exists.
And, What exist or just 'IS', is not subject to memory.
Nor could be ever made so.
But What 'IS' is not just dead matter.
It is the only Life that knows no 'other'.
It is the 'Otherness' no one ever comes across.
--
   

Tuesday, 16 October 2018

The Fabric of The Cosmos.

तत्तु समन्वयात्
tattu samanvayāt
( ब्रह्म-सूत्रम् / brahma-sūtram; 1.i.4)
ब्रह्म-सूत्रम् 
brahma-sūtram
--
अन्वय-व्यतिरेक 
anvaya-vyatireka . 
--------------------------
The subject-matter of the Vedanta is  Brahman / ब्रह्मन् .
The study of the way that helps attainment of  Brahman / ब्रह्मन्  is called ब्रह्मचर्य / brahmacarya .
There is the नैष्ठिक-ब्रह्मचर्य / naiṣṭhika-brahmacarya, which may be a state prior to the beginning of the stage of puberty, or one that is attained during and after this age.
जितेन्द्रिय / jitendriya is one who has acquired full control over the senses of pleasure.
This is the essential requisite for performing साधना / sādhanā, (the Spiritual practice) without exception, for all who aspire the attainment of Brahman / ब्रह्मन् .  
The child even as infant and before that as a fetus or even when is an embryo in the womb is at the stage of the manifest Brahman / ब्रह्मन् .  Brahman / ब्रह्मन् is the entity that keeps growing, expanding irrespective of external help.
A वृक्ष / vṛkṣa  / प्लवन्तः / plavantaḥ that is a tree or plant also grows in this way.
An egg or a seed is likewise a living potential either in the sleeping or in the waking mode.
The Mathematical tool in the form of a method as Laplace or Fourier Transformation is already in application in the study of Vedanta  Brahman / ब्रह्मन् . 
The very first chapter of the ब्रह्म-सूत्रम् / brahma-sūtram; - the prominent Vedanta-text is named :
 समन्वय / samanvaya that is translated in near-about terms as :
Reconciliation through proper inter-relation.
This is exactly the "Integration by Parts".
The next (the second) chapter of this book ब्रह्म-सूत्रम् / brahma-sūtram; is named :
अविरोध / avirodha; - that is equivalent to :
"Partial Differentiation".
The next 2 chapters are titled :
साधना / sādhanā, and  फलम् / phalam .
This makes this great text ब्रह्म-सूत्रम् / brahma-sūtram; - quite different in genre, to the other 2 great-texts namely :
श्रीमद्भग्वद्गीता / śrīmadbhagvadgītā and the  उपनिषद् / upaniṣad .  
Though in many other Vedanta-texts such as 
विवेक-चूडामणि / viveka-cūḍāmaṇi ,
अपरोक्षानुभूति / aparokṣānubhūti ,
पञ्चदशी / pañcadaśī ,
The same साधना / sādhanā, and  फलम् / phalam, have been explained along-side with :
अन्वय-व्यतिरेक / anvaya-vyatireka
--


  




Monday, 15 October 2018

Dr. Nagaswamy Explains How & Why Tamil Culture got Positioned as Anti-Sa...

आस्था और धर्म; .... और राजनीति

सोच का सच !
आस्था और धर्म; .... और राजनीति
आस्था और अस्थि दोनों क्रमशः दृढ और शक्ति-सामर्थ्य से पूर्ण होते हैं,
किंतु दोनों अस्थिरता के शिकार भी होते हैं। यदि वे दधीचि की आस्था या अस्थियाँ न हों तो दोनों किसी भी समय टूट सकते हैं ....
केरल के शबरीमला (शबरीमलाई) / ശബരിമല का वर्णन स्कन्द-पुराण तथा वाल्मीकि रामायण में भी है।
जब हनुमानजी समुद्र को लांघने के लिए सह्याद्रि पर्वत को पैरों से नीचे धकेलकर छलांग लगाते हैं तो समुद्र उनके लिए विश्राम करने हेतु मैनाक पर्वत को प्रेरित करता है।  मैनाक का शिखर वैसे तो समुद्र की गहराई में  छिपा रहता है क्योंकि जब इंद्र पर्वतों के पंख काट रहे थे तब पवनदेवता ने मैनाक को उड़ाकर समुद्र में उस स्थान पर डुबो दिया जहाँ समुद्र बहुत गहरा है।  तब मैनाक इंद्र के आघात से बच गया। इसीलिए समुद्र ने मैनाक से कहा "ये जो मारुतिनंदन हनुमान भगवान् श्रीराम के प्रयोजन को सिद्ध करने के लिए समुद्र पर से जा रहे हैं, उन्हें तनिक विश्राम का अवसर देकर तुम उनका श्रम हरो और इस प्रकार पवनदेव के ऋण से उऋण हो जाओ !  
सह्य पर्वत का नाम तब से ही सह्य हुआ और उसका यश हनुमान की सहायता करने से बाद में और भी अधिक बढ़ गया।  स्कन्द-पुराण तथा वाल्मीकि रामायण में वर्णित घटनाओं का कॅनवास (canvas) बहुआयामी है और न सिर्फ भौगोलिक और ऐतिहासिक बल्कि आधिदैविक प्रसंगों का भी वहाँ विस्तार से वर्णन है।
भगवान् स्कन्द के स्थान शबरीमला, और पंपा-सरोवर का वर्णन वाल्मीकि-रामायण के अरण्यकाण्ड सर्ग 74 में है।
शिंगणापुर में शनि-मंदिर में तथा सबरीमला के अय्यप्पा मंदिर में स्त्रियों के प्रवेश को लेकर बुद्धिजीवियों और राजनीतिक दलों के सोच में विभिन्न मत हैं।  जहाँ अय्यप्पा कुमार कार्त्तिकेय का ही रूप होने से ज्योतिषीय दृष्टि से 'मंगल' / भौम का विग्रह हैं वहीं शिंगणापुर के शनिदेवता भी दूसरी दृष्टि से वैराग्यदाता  हैं।  मंगल जहाँ युद्ध के देवता हैं इसलिए भी कुमार कार्त्तिकेय हैं, वहीं ज्योतिष के सिद्धांत के अनुसार विवाह के लिए उनकी जन्म के समय के ग्रहों की स्थिति में उनकी अनुकूलता और प्रतिकूलता विचारणीय है ही।
भगवान् शनि जहाँ सूर्यपुत्र हैं वहीं यम के सौतेले भाई भी हैं। यमराज सूर्य की पत्नी 'संज्ञा' के पुत्र हैं वहीं शनि सूर्यपत्नी छाया के पुत्र हैं।  संज्ञा 'आधिदैविक' स्वरूप की हैं, तो छाया उनकी आधिभौतिक प्रतिरूप है। और इसलिए शनि जहाँ इहलोक में अर्थात् भौतिक जगत में जीवों का न्याय को सुनिश्चित करते हैं, वहीं यमराज परलोक में जीवों के न्याय को, और स्वर्ग-नरक या आगामी जन्म का निर्धारण करते हैं। 
दोनों भाई इस प्रकार प्राणिमात्र के कर्म के अनुसार दोनों लोकों में उनका भाग्य तय करते हैं। 
इसलिए शनि का संबंध न्यायपालिका से है और शनि ही न्यायाधीशों की बुद्धि को प्रेरित करते हैं।
मंगल कुमार होने से 'पुत्र' के कारक हैं इसलिए स्त्रियों तथा विवाह-संबंधों में शुभ-अशुभ को तय करते हैं।
मार (कामदेव / Cupid)  और कुमार (कार्त्तिकेय) दोनों उसी प्रकार परस्पर परिपूरक हैं जैसे शनि और यमराज, संज्ञा और छाया, सूर्य और मार्तण्ड।
यह विचारणीय है कि न्यायाधीश यदि धर्मशास्त्र को ठीक से अध्ययन किए बिना, ठीक से समझे बिना ही आस्था से संबंधित विषयों पर न्याय का निर्णय करें तो वह प्रजा के लिए शुभ या अशुभ, -कुछ भी हो सकता है।किसी दक्षिण-भारतीय नेता द्वारा  दिया गया वक्तव्य जिसमें कोर्ट के जज को इडियट कहा गया अशोभनीय तो है ही, किन्तु उनके धर्मशास्त्र से अनभिज्ञ होने के अर्थ में शायद सत्य हो सकता है, और उन्होंने केवल भावुकता और आक्रोश के कारण जज को इडियट कह दिया हो।
एक सत्य (सोच?) यह भी हो सकता है कि शनि और मंगल दोनों ही राजनीति (और शासन-व्यवस्था तथा राजनीतिकों) को भी अपने-अपने तरीके से प्रभावित करते हैं दोनों ही उसी प्रकार न्याय तथा न्याय-प्रणाली को भी प्रभावित करते हैं, लेकिन देवताओं से मनुष्य का क्या मुकाबला ?
--  

Sunday, 14 October 2018

"Time and Space but exist in mind."

Time and Space have always fascinated my imagination.
Lured by imagination, I couldn't see that imagination too is but Time and Space.
At the Phenomenal level, this happened before those years 1980 when I was so deluded by the concepts of  Time and Space.
This was partly because at that time, I was infatuated with 'Science'.
Till that time (1980-84) I hadn't come across many Great Vedanta-texts, and so my knowledge of them may be perhaps scholarly to some extent, was superficial and book-learned.
Vedanta speaks candidly that only those who deserve the Supreme Truth can find out.
And Vedanta debars none, but stresses that mere indulging in intellectual pursuits could never help, and the same time keeps one away from this 'subject-matter' of Vedanta.
During those times I would try to understand what Sri Ramana Maharshi could have pointed out by His Teachings. And in a way, trying to meditate and contemplate, even inqire into The Self.
My key-note was :
श्रीरमण-गीता, अध्याय २, श्लोक २
--
हृदय कुहरमध्ये केवलं ब्रह्ममात्रम्
ह्यहमहमिति साक्षादात्मरूपेण भाति। ।
हृदि विश मनसा स्वं चिन्वता मज्जता वा,
पवनचलनरोधादात्मनिष्ठो भव त्वम् ॥
--
hṛdaya kuhara madhye kevalaṃ brahmamātram 
hyahamahamiti sākṣādātmarūpeṇa bhāti |
hṛdi viśa manasā svaṃ cinvatā majjatā vā
pavanacalanarodhādātmaniṣṭho bhava tvam ||
-Chapter 2, stanza 2.
--
By some deep interest in and attraction towards the Teachings of Sri J.Krishnamurti, I could never put Him away at the same time.
During those times I meditated for long stretches of time almost the whole day sometimes.
I literally tried to find out the purport of the sense of 'I', though only now that I find, I can express this satisfactorily well enough in words.
During last five-six years I performed a पाठ / pāṭha of several Vedanta-texts in the original.
The correct way of understanding Vedanta and the Spirituality taught through the ancient texts is 
 पाठ / pāṭha only, and there is no way one should try to translate and interpret the same.
This is so because Veda is Poetry of a kind (छन्दस् / chandas).
This is the Spirit of the Spiritual.
I used to Read J.Krishnamurti in the same vein.
The early writings of J.Krishnamurti bear an aura of Poetry, and I loved His work :
"The Poems and Parables".
There is a title :
"Time and Space but exist in mind."
In the later years He changed the style of His writings though we glimpse the same Poetic-shade in His "Note-book." again.
Because of my University-education, I was also interested in Mathematics and Science as well, I could just understand the complexity of this Trivial Knowledge.
Sri Nisargdatta Maharaj's Teachings however totally changed my perception to the core.
But again, while going through my regular पाठ / pāṭha of  
शिव-अथर्वशीर्षम् / śiva-atharvaśīrṣam ,
when I came across the lines :
मन्त्र : अक्षरात् सञ्जायते कालः कालाद्व्यापक उच्यते । व्यापको हि भगवान् रुद्रो, भोगायमानो, ...यदा शेते  रुद्रस्तदा संहार्यते प्रजाः । उच्छ्वसिते तमो भवति......
--
mantra : akṣarāt sañjāyate kālaḥ kālādvyāpaka ucyate | vyāpako hi bhagavān rudro, bhogāyamāno, ... yada śete rudrastadā saṃhāryate prajāḥ | ucchvasite tamo bhavati ...
-- 
Which at once drew my attention to the Phenomenal and the Latent Potential Reality of :
भगवान् रुद्र / bhagavān rudra.
And I could see what J.Krishnamurti might have wanted to say through 
"Time and Space but exist in mind."
--
But then, I started questioning myself :
Exactly, to Who / What pertain to Time and Space?
There is an entity that first 'knows' only and then only afterwards imagines and names the Phenomenal in the words such as Time, Space, (and matter, energy as well).
--
That was the End.
--
  

 



Saturday, 13 October 2018

Laplace and Fourier Transformations

Integration by Parts and Partial Differentiation.
--
This refers to the above link.
The above discourse is in Hindi, the subject elaborated therein is about the Manifestation and dissolution of the Existence with reference to the individual,, with reference to the collective as well as to the Causal (कारण) .
With reference to an individual, the collective, and the Causal, this at once is though a three-level process, with reference to the अद्वैत-सिद्धान्त / advaita siddhānta this applies to the Totality - समष्टि / samaṣṭi and व्यष्टि / vyaṣṭi  as well.
That is; how this whole exercise is an excellent model for me for studying this Knowledge Supreme
(ब्रह्म-विद्या).
This could also be a good example how we transform the subject of study into the expected goal first through Integration by Parts and then by Partial Differentiation of the same.
First I would like to explain a few key-words :
सृष्टि : Manifestation,
और प्रलय - and  Dissolution
उत्पत्ति - Creation,
और विनाश - Destruction.
तेजस् अंश (वीर्य) - cognate > सज्ञाति  semen (सं उपसर्ग)
ब्रह्मा - हिरण्यगर्भ - वैदिक आ-ब्रह्म -- ब्रह्मा ...brahmā.
श्रीमन्नारायण - श्रीमत् नारायण -- श्री = शक्ति, लक्षण, लक्ष्मी
नृ -- नर -- नारायण -- नृसिंह (नारायण का सिंहरूप अवतार)
नृ से अनेक शब्दों की व्युत्पत्ति दृष्टव्य है (मेरे अन्य ब्लॉग्स एवं पोस्ट्स में विस्तार से उल्लेख है)
सृष्टि और प्रलय का अर्थ उत्पत्ति और विनाश से भिन्न है।
जो आधिभौतिक स्तर पर रचना और विनाश जान पड़ता है वह आधिदैविक स्तर पर एक मध्य-क्रम की अवस्था है और कारण (Causal) के स्तर पर Manifestation और Dissolution है,
किंतु चैतन्य-परब्रह्म के अद्वैत के स्तर पर वह इन तीनों से परे सच्चिदानंद तत्व है जो अव्याख्येय है।
जहत् लक्षणा -- जहल्लक्षणा -- Partial Differentiation,
अजहत् लक्षणा -- अजहल्लक्षणा -- Integration by Parts.
सर्वजीव-घनात्मक ब्रह्मा -- sarva jīva ghanātmaka ब्रह्मा ...brahmā. -- The Compact form of Totality at 3 above-mentioned levels is  हिरण्यगर्भ / hiraṇyagarbha .
Is That which Manifests as आधिदैविक / ādhidaivika
श्रीमत्-नारायण / śrīmat-nārāyaṇa
-- श्रीमन्नारायण / śrīmannārāyaṇa
-- नारा / nārā -- is water that flows through नृ -- nṛ, or  श्रीमत्-नारायण / śrīmat-nārāyaṇa
-- श्रीमन्नारायण / śrīmannārāyaṇa,
When Manifestation (and not Creation) takes place.
This happening has again 3 points of reference as the individual, the collective-cosmic and the Causal (Cosmic as well as beyond too).
--
ब्रह्मा ...brahmā. The Consciousness as essence and substance, expresses itself in the 3 forms; namely -- The God, the world and the individual soul.The three are a single composite expression of
श्रीमन्नारायण / śrīmannārāyaṇa, which is seen by us.
--
The  हिरण्यगर्भ / hiraṇyagarbha aspect of ब्रह्मा ...brahmā that is also manifest as वेद / Veda ... शब्द-ब्रह्म / śabda-brahma is the reservoir of ब्रह्म-विद्या / brahma-vidyā and one who is fit for attaining this knowledge-body is the First वर्ण / varṇa  / ब्राह्मण / brāhmaṇa.
The four वर्ण / varṇa that originated from the हिरण्यगर्भ / hiraṇyagarbha aspect of  ब्रह्मा ...brahmā  respectively are
ब्राह्मण / brāhmaṇa ,
क्षत्रिय / kṣatriya,
वैश्य / vaiśya, and
शूद्र / śūdra, --respectively.
The four classes वर्ण / varṇa are the four pillars upon which stands the --
 धर्म / dharma or the  सनातन-धर्म / sanātana-dharma.
This धर्म / dharma or the  सनातन-धर्म / sanātana-dharma is not same as 'Religion' / 'faith' which is but the name of some tradition, -followed because one has born in certain society.
The tradition could be धर्म / dharma, अधर्म / adharma, विधर्म / vidharma, स्वधर्म / swadharma or even   परधर्म, which is elaborated in two ways in the गीता / gītā in the following way :
अध्याय  2, श्लोक 31,
--
स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि ।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ॥
--
(स्वधर्मम्-अपि च-अवेक्ष्य न विकम्पितुम्-अर्हसि ।
धर्म्यात्-हि युद्धात्-श्रेयः अन्यत् क्षत्रियस्य न विद्यते ॥)
--
भावार्थ : तुम्हारे अपने निज क्षत्रिय-धर्म की दृष्टि को ध्यान में रखते हुए भी, तुम्हें भय से व्याकुल नहीं होना चाहिए । क्योंकि क्षत्रिय के लिए धर्मानुकूल प्राप्त हुए युद्ध से बढ़कर अधिक श्रेयस्कर दूसरा कोई अवसर नहीं हो सकता ।
--
Chapter 2, śloka 31,

svadharmamapi cāvekṣya 
na vikampitumarhasi |
dharmyāddhi yuddhācchreyo
:'nyatkṣatriyasya na vidyate ||
--
(svadharmam-api ca-avekṣya 
na vikampitum-arhasi |
dharmyāt-hi yuddhāt-śreyaḥ 
anyat kṣatriyasya na vidyate ||)
--
Meaning :
Even if you look from the perspective of your own way of 'dharma', you need not get perturbed. Because, such a war for a noble cause, (that has been imposed upon you) is in perfect harmony with your own path of 'dharma'.
-- 
And as in :
अध्याय 3, श्लोक 35, 
--
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥
--
(श्रेयान्-स्वधर्मः विगुणः परधर्मात्-स्वनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मः भयावहः ॥
--
भावार्थ :
अच्छी प्रकार से  आचरण में लाये हुए दूसरे के धर्म से, अपने अल्प या विपरीत गुणवाले धर्म का आचरण उत्तम है, क्योंकि जहाँ एक ओर अपने धर्म का आचरण करते हुए मृत्यु को प्राप्त हो जाना भी कल्याणप्रद होता है, वहीं दूसरे के धर्म का आचरण भय का ही कारण होता है ।
--
Chapter 3, śloka 35, 

śreyānsvadharmo viguṇaḥ 
paradharmātsvanuṣṭhitāt |
svadharme nidhanaṃ śreyaḥ
paradharmo bhayāvahaḥ ||
--
(śreyān-svadharmaḥ viguṇaḥ 
paradharmāt-svanuṣṭhitāt |
svadharme nidhanaṃ śreyaḥ
paradharmaḥ  bhayāvahaḥ ||
--
Meaning :
Though has not merits, it is far better to follow one's own way of 'dharma', than to follow and act upon the duties of another's 'dharma'. Even the death while pursuing own 'dharma', results in the ultimate good, where-as practicing another's 'dharma' is just horrific.
--
Though  श्रीकृष्ण / śrīkṛṣṇa and अर्जुन / Arjuna क्षात्रधर्म / kṣātradharma both followed the  सनातन-धर्म / sanātana-dharma, ब्राह्मणधर्म / brāhmaṇadharma was विधर्म / vidharma for both as no-one of them was born in a ब्राह्मण / brāhmaṇa  lineage by वर्ण / varṇa or Social class.
The link talks of वर्ण-संकरत्वं / varṇa-saṃkaratvaṃ, the cross-breeding in different वर्ण / varṇa or Social classes. 
Interestingly, अर्जुन / Arjuna tooexpressed his suspicion by this logic :
अध्याय 1, श्लोक 43,

दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसङ्करकारकैः ।
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः ॥
--
(दोषैः एतैः कुलघ्नानाम् वर्णसङ्करकारकैः ।
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माः च शाश्वताः ॥)
--
भावार्थ :
कुल में वर्ण की संकरता (मिश्रण) होने पर, कुल के सदा से चलते चले आये पारंपरिक जातिधर्म एवं कुलधर्म इन वर्णसंकर कुलघातियों के दोषों के कारण अवश्य ही विनष्ट हो जाते हैं ।
--

doṣairetaiḥ kulaghnānāṃ
varṇasaṅkarakārakaiḥ |
utsādyante jātidharmāḥ
kuladharmāśca śāśvatāḥ ||
--
(doṣaiḥ etaiḥ kulaghnānām
varṇasaṅkarakārakaiḥ |
utsādyante jātidharmāḥ
kuladharmāḥ ca śāśvatāḥ ||)
--
Meaning :
Because of these evils, the mixing-up of the castes, the ritualistic, the traditional, orthodox religious customs that have been running in the family since ever, are also destroyed.
--
But as the Destiny dictated the Great war of  महाभारत / mahābhārata could not be averted for whatsoever reasons.
The essentials of the 4  आश्रम / āśrama , that form the backbone of सनातन-धर्म / sanātana-dharma, is also explained.
And here is the core point that emphasize the institutionalization of विवाह / marriage for maintaining and preserving the सनातन-धर्म / sanātana-dharma.
How an event takes place at the same moment in the 3 Realm of  Existence and is 'interpreted' at the level of  'Physical' only restricts the approach of 'Science'.
How Gandhi in His Book 'वर्ण-व्यवस्था' appreciated the way of  सनातन-धर्म / sanātana-dharma. in deciding the profession of a person according to His inclinations, attitudes and actions.
Gandhi suggested that if the cast is not defined according to 'Karma' (actions, profession, livelihood), one can not work properly in any society.
The viewpoint expressed by Sri Ramana Maharshi is also the same :
  
4 July, 1935
Talk 58.
Mr. Ranganathan, I. C. S: In Srimad Bhagavad Gita there is a passage:
One’s own dharma is the best; an alien dharma is full of risks.
What is the significance of one’s own dharma?
M.: It is usually interpreted to mean the duties of the orders and of
the different castes. The physical environment must also be taken
into consideration.
D.: If varnasrama dharma be meant, such dharma prevails only
in India. On the other hand the Gita should be universally
applicable.
M.: There is varnasrama in some form or other in every land. The
significance is that one should hold on to the single Atman and not
swerve therefrom. That is the whole gist of it.
sva = one’s own, i.e., of the Self, of the Atman.
para = the other’s, i.e., of the non-self, of the anatma.
Atma Dharma is inherence in the Self. There will be no distraction
and no fear. Troubles arise only when there is a second to oneself.
If the Atman be realised to be only unitary, there is no second and
therefore no cause for fear. The man, as he is now, confounds the
anatma (non-Self) dharma with atma (the Self) dharma and suffers.
Let him know the Self and abide in it; there is an end of fear, and
there are no doubts.
Even if interpreted as varnasrama dharma the significance is only
this much. Such dharma bears fruit only when done selflessly. That
is, one must realise that he is not the doer, but that he is only a tool
of some Higher Power. Let the Higher Power do what is inevitable
and let me act only according to its dictates. The actions are not
mine. Therefore the result of the actions cannot be mine. If one
thinks and acts so, where is the trouble? Be it varnasrama dharma
or loukika dharma (worldly activities), it is immaterial. Finally, it
amounts to this:
sva = atmanah (of the Self)
para = anaatmanah (of the non-self)
Such doubts are natural. The orthodox interpretation cannot be
reconciled with the life of a modern man obliged to work for his
livelihood in different capacities.
A man from Pondy interposed: Sarva dharmaan parityajya maamekam
saranam vraja (leaving all duties surrender to me only).
Sri Bhagavan: (All) Sarva is only anaatmanah (of the non-self);
the emphasis is on ekam (only). To the man who has strong hold
of the eka (one) where are the dharmas? It means, “Be sunk in
the Self.”.
गीता / gītā tells :
अध्याय 4, श्लोक 13,

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विध्यकर्तारमव्ययम् ॥
--
(चातुर्वर्ण्यम् मया सृष्टम् गुणकर्मविभागशः ।
तस्य कर्तारं अपि माम् विद्धि अकर्तारम्-अव्ययम् ॥)
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भावार्थ :
गुण तथा कर्म के विभाजन के अनुसार चार प्रकार की मूल प्रवृत्तियों का समूह (वर्ण्य), जिनसे समस्त भूत अनायास परिचालित होते हैं, मेरे ही द्वारा रचा गया है । उस समूह का रचनाकार (स्वरूपतः) अकर्ता तथा अव्यय मुझको ही जानो ।
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Chapter 4, śloka 13,

cāturvarṇyaṃ mayā sṛṣṭaṃ
guṇakarmavibhāgaśaḥ|
tasya kartāramapi māṃ
vidhyakartāramavyayam ||
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(cāturvarṇyam mayā sṛṣṭam
guṇakarmavibhāgaśaḥ |
tasya kartāraṃ api mām
viddhi akartāram-avyayam ||)
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Meaning :
According to the innate nature and tendencies for action of man, I have created the four-fold order in this world. Even though I AM the Imperishable, and the Creator of them, know for certain I AM as such ever, the non-doer. 
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This again affirms the fact that the सनातन-धर्म / sanātana-dharma says nothing about the Caste, but insists about the 'actions' and tendencies of man as is clear in  :
गुणकर्मविभागशः / guṇakarmavibhāgaśaḥ ,
as cited above.
A note about अश्वमेध / aśvamedha,  / गौमेध / gaumedha :
As the 'Creation' when seen as the Manifestation through an 'act' of ब्रह्मा ...brahmā, and this process is compared by the example of Horse the same performance / ritual  (यज्ञ / yajña) is called अश्वमेध / aśvamedha, and when seen as an example of 'cow', the same becomes 'गौमेध / gaumedha'.
अश्वमेध / aśvamedha implies assuming the Creation in the form of Horse.
Likewise गौमेध / gaumedha implies assuming the धर्म /'dharma' in the form of a cow.
And there is another word नरमेध / naramedha that could be interpreted as assuming the 'man' as the example of the 'Creation', but the meaning 'war' has somehow become prevalent.
The link also tells how a  ब्राह्मण / brāhmaṇa is unfit for performing an अश्वमेध / aśvamedha, and only a क्षत्रिय / kṣatriya deserves to do so. However a ब्राह्मण / brāhmaṇa can gain all the merits of this just because / if he understands the core of the process.
I wish to close this here at this point.
Enough for those who can't understand the Hindi Dialogue in the given Link.
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