प्रसंगवश / श्राद्ध क्यों ? -2
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श्रीमद्भगवद्गीता
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अध्याय 17, श्लोक 4,
यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः ।
प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जनाः ॥
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(यजन्ते सात्त्विकाः देवान् यक्षरक्षांसि राजसाः ।
प्रेतान् भूतगणान् च अन्ये यजन्ते तामसाः जनाः ॥)
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भावार्थ :
सात्त्विक मन-बुद्धि वाले मनुष्य तो देवताओं की उपासना करते हैं, राजस प्रवृत्तिवाले यक्ष और राक्षसों की, तथा तामस प्रवृत्ति से युक्त मनुष्य प्रेत और भूतगणों को पूजते हैं ।
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अध्याय 9, श्लोक 25,
यान्ति देवव्रता देवान्पितॄन्यान्ति पितृव्रताः ।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् ।
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(यान्ति देवव्रताः देवान् पितॄन् यान्ति पितृव्रताः ।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनः अपि माम् ॥)
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भावार्थ :
देवताओं की उपासना / पूजा करनेवाले देवताओं को प्राप्त होते हैं ( अर्थात् मृत्यु के बाद उनके लोक में स्थान पाते हैं), पितरों की उपासना / पूजा करनेवाले पितृलोक में, तथा भूतों की उपासना / पूजा करनेवाले भूतलोक अर्थात् मृत्युलोक को प्राप्त होते हैं, जबकि मेरा यजन अर्थात् भक्ति / उपासना, पूजन, आदि करनेवाला मुझे / मेरे ही लोक (धाम) को प्राप्त होता है ।
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टिप्पणी :
स्पष्ट है कि मृत्यु के अनन्तर किसी मनुष्य की क्या गति होती है, इस बारे में इस श्लोक के आधार से अनुमान लगाया जा सकता है ।
भगवान् श्रीकृष्ण के धाम का वर्णन संक्षेप में अध्याय 8, श्लोक 21 में इस प्रकार से वर्णित किया गया है :
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अध्याय 8, श्लोक 21,
अव्यक्तोऽक्षर इत्याहुस्तमाहुः परमां गतिं ।
यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥
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(अव्यक्तः अक्षरः इति उक्तः तम् आहुः परमाम् गतिम् ।
यम् प्राप्य न निवर्तन्ते तत् धाम परमम् मम ॥)
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भावार्थ :
अव्यक्त (अर्थात् जिसे इन्द्रिय, मन, बुद्धि, स्मृति आदि से किसी व्यक्त विषय की भाँति ग्रहण नहीं किया जा सकता, किन्तु इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, स्मृति आदि जो उसके ही व्यक्त रूप हैं और उसके ही द्वारा प्रेरित किए जाने पर अपना अपना कार्य करते हैं), अक्षर अर्थात् अविनाशी, इस प्रकार से (जिस) उस परम गति का वर्णन किया जाता है, जिसे प्राप्त होने के बाद कोई पुनः संसार रूपी दुःख में नहीं जन्म लेता, वह मेरा परम धाम है ।
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Chapter 17, śloka 4,
yajante sāttvikā devān-
yakṣarakṣāṃsi rājasāḥ |
pretānbhūtagaṇāṃś-
cānye yajante tāmasā janāḥ |
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(yajante sāttvikāḥ devān
yakṣarakṣāṃsi rājasāḥ |
pretān bhūtagaṇān ca anye
yajante tāmasāḥ janāḥ ||)
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Meaning :
Those of the sāttvika tendencies worship the spiritual entities of the divine nature, and those of the rājasa tendencies worship spiritual entities like yakṣa and rākṣasa, who possess occult powers. While those having tāmasa tendencies worship the spirits of physical elements, - of the departed souls.
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Note :
Here a reference to the śloka 25 of Chapter 9 is relevant :
Chapter 9, śloka 25,
yānti devavratā devān-
pitr̥̄nyānti pitṛvratāḥ |
bhūtāni yānti bhūtejyā
yānti madyājino:'pi mām |
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(yānti devavratāḥ devān
pitr̥̄n yānti pitṛvratāḥ |
bhūtāni yānti bhūtejyā
yānti madyājinaḥ api mām ||)
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Meaning :
Those who worship spiritual entities of the divine nature (deva, devatā), attain their place (swarga-loka), while those who worship the fore-fathers (pitaras), attain their abode (pitṛloka), Those who worship the physical elements ( bhūta-s / spirits) attain their state of being after the death of this physical body, And those who are devoted to ME attain Me / My abode only.
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Note :
What is śrīkṛṣṇa's abode, He is referring to, by saying 'MY'?
This has been pointed out in 21 of Chapter 8 of this sacred text śrīmadbhagvadgītā, in the following words :
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avyakto:'kṣara ityāhus-
tamāhuḥ paramāṃ gatiṃ |
yaṃ prāpya na nivartante
taddhāma paramaṃ mama ||
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(avyaktaḥ akṣaraḥ iti uktaḥ
tam āhuḥ paramām gatim |
yam prāpya na nivartante
tat dhāma paramam mama ||)
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Meaning :
'Immanent, not manifest, Imperishable, Eternal,...', the Supreme state, that is described in these words, is My abode ultimate, having attained this, no one ever returns (in the world of birth and rebirth of endless misery)
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Note : And though we fail to note the direct instruction given by śrīkṛṣṇa in śrīmadbhagvadgītā, this secret has been clearly and repeatedly, frequently revealed before us, by the sages and Guru-s like śrī ramaṇa maharṣhi and śrī nisargadatta mahārāja.
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उपरोक्त श्लोकों से पूजा और श्राद्ध का अंतर क्या है यह समझा जा सकता है । चूँकि पितर / पितृगण, दिवंगत आत्माएँ हमसे अपेक्षाएँ रखती हैं और उन अपेक्षाओँ के पूर्ण न होने पर अतृप्त रह जाती हैं इसलिए उनकी आत्मा की तृप्ति के लिए श्राद्धकर्म का अनुष्ठान (अपनी श्रद्धा हो तो) अवश्य करना चाहिए जबकि स्वयं अपने आध्यात्मिक कल्याण के लिए केवल परमेश्वर की ही उपासना पर्याप्त है । श्राद्धकर्म के अनुष्ठान से उनकी मुक्ति नहीं होती केवल उनके अशुभ कर्मों का क्षय भर होता है और मृत्युलोक से भिन्न उन लोकों में उन्हें क्लेश नहीं उठाने पड़ते ।
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It is evident from the above passages in Srimad-bhagvadgita that though one should offer the due respects to the departed souls and try to fulfill their wishes, what they might have had expected from us. But for our own spiritual benefit and goal we should worship the Lord Supreme only.
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