ध्यान / मेडिटेशन / Meditation.
--
ध्यान / मेडिटेशन / Meditation आजकल ऐसा एक बहुत प्रचलित शब्द हो चुका है जिसके अर्थ और प्रयोजन का अनुमान प्रत्येक व्यक्ति अपने ढंग से करता है । और ’ध्यान’ के उस अर्थ और प्रयोजन की अपनी समझ के आधार पर अपने लिए उसकी आवश्यकता और तथा उपयोगिता की ओर ध्यान दिए बिना ही, उसके पक्ष या विपक्ष में, या उसे ’कैसे’ किया जाए या न किया जाए, इस बारे में अपनी कोई मान्यता बना लेता है । ऐसे ही कुछ दूसरे शब्द ’ईश्वर’, ’धर्म’, ’संप्रदाय’, ’आस्तिकता’, ’दर्शन’, ’देवता’ तथा ’मन’ आदि भी हैं।
किंतु अभी तो हमें इस बारे में गौर करना है कि ध्यान मन की एक गतिविधि है और मन की अन्य कई गतिविधियों की तरह इसे अर्थात् ’ध्यान’ को भी दो प्रमुख रूपों में देखा-समझा जा सकता है । एक तरीका तो है अनैच्छिक, दूसरा है स्वैच्छिक । इन दो रूपों के बारे में और विस्तार से देखें तो ध्यान बाध्यतापूर्वक या स्वतंत्रतापूर्वक भी हो सकता है । जैसे, जब इच्छा, चिन्ता या भय हमें होते हैं, जैसे क्रोध या भय, भावुकता या कामावेग, निद्रा, उत्साह या अवसाद उत्साह आदि हममें आते हैं और परिस्थितियों या संस्कारों के कारण मन उनसे छूटने, उन्हें दूर कर पाने या उनका संतोषजनक समाधान पाने में असमर्थ होता है और उनसे प्रेरित हुई गतिविधि में संलग्न हो जाता है और इस प्रयास में कभी सफल तो कभी असफल होता है, तो मन उस समय अनचाहे ही उनका ध्यान करता है । और ’मन’ की इस प्रकार की गतिविधि भी ध्यान का ही एक प्रकार है, जो चाहने या न चाहने के बावज़ूद ’होता’ है, या होता हुआ प्रतीत होता है ।
इस प्रकार जिसे ’मन’ कहा जा रहा है, चूँकि वह स्वयं ही स्वयं की गतिविधि है, इसलिए इस प्रकार का अनैच्छिक ध्यान / यह गतिविधि ही वस्तुतः 'ध्यानकर्ता' / 'मन' भी होता है । अनैच्छिक को involuntary भी कहा जा सकता है ।
यही मन जब ’संकल्पपूर्वक’ (voluntarily) किसी ऐसी विशिष्ट गतिविधि में संलग्न होता है जिसे उसके द्वारा ध्यान कहा-समझा जाता है और वह किसी विधि या प्रक्रिया के रूप में उसे पूर्ण करने का प्रयास करता है, तो उसे ’स्वैच्छिक’ (voluntary) ध्यान कह सकते हैं ।
फिर, जैसा कि जब ’मेरा ध्यान नहीं लग रहा’, ’मेरा ध्यान बँट गया’ आदि कहा जाता है, तब ’ध्यान’ से हमारा तात्पर्य होता है : मन का उस ओर, उस दिशा में जाना और उस पर स्थिर रहना जिसके बारे में ध्यान दिया जाना आवश्यकता प्रतीत होता है । इस प्रकार ’ध्यान’ अर्थात् ’मन की गतिविधि’ के दो तात्पर्य हुए । पहला ऐसी एक गतिविधि जो कि यद्यपि मन के अन्तर्गत और मन के द्वारा ही संचालित होती है, फिर भी मन ’स्वयं’ को उस गतिविधि का ’करनेवाला’ / कर्ता समझकर उससे अपने-आपको बँधा या अलग या मुक्त भी समझ बैठता है । दूसरा ऐसी एक गतिविधि ’जो होती है या नहीं होती, या बँटी हुई होती है’ - अर्थात् मन का उस ओर, उस दिशा में जाना और उस पर स्थिर रहना जिसके बारे में ध्यान दिया जाना आवश्यकता प्रतीत होता है ।
ये दोनों गतिविधियाँ किसी चेतन सत्ता / (consciousness ) / मन में ही हो सकती हैं, किसी जड वस्तु में होती हैं या नहीं इस बारे में हमारे पास कोई सुनिश्चित और अकाट्य प्रमाण कभी नहीं हो सकता ।
किंतु चूँकि सामान्य तर्क और अनुभव से भी सिद्ध है कि ऐसा कोई नहीं है जो अपने अस्तित्व को अस्वीकार कर सके या उसका निषेध कर सके, और चूँकि सामान्य तर्क और अनुभव से ही यह भी सिद्ध है कि ’अपने’ अस्तित्व का बोध / भान और उसकी स्वीकृति किसी प्रकार की 'प्राप्त की गई' जानकारी / acquired knowledge / शाब्दिक ज्ञान या स्मृति (memory) नहीं है, इसलिए इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि ’मन’ की ये उपरोक्त दोनों गतिविधियाँ इस ’चेतनता’ (consciousness ) के आधार से ही प्रारंभ होती हैं, उसी ’चेतनता’ के अन्तर्गत व्यक्त और विलीन होती हैं ।
इसलिए प्रश्न यह नहीं है कि ध्यान कैसे करें? या ध्यान कैसे होता है? एकमात्र प्रश्न यह है कि जो ’किया जाता है’ उसे ’करनेवाला’ ऐसा कोई स्वतन्त्र मन (या ’मैं’) वास्तव में है भी या नहीं? और ’जो होता है’ क्या उसे ’जाननेवाला’ ही उसके होने या न-होने का प्रमाण या एकमात्र साक्षी नहीं होता? किन्तु, ’एकमात्र’ में जिसे ’एक’ कहा जा रहा है, क्या वह ’एक’ भी केवल गणितीय या वैचारिक धारणा / मान्यता अर्थात् विचारमात्र ही नहीं है? क्या उस चेतनता / साक्षी को ’जाननेवाला’ कोई दूसरा, उससे अन्य चेतनता / साक्षी होता है? इसलिए उसे एक अथवा अनेक कहना ही दोषपूर्ण है ।
--
--
ध्यान / मेडिटेशन / Meditation आजकल ऐसा एक बहुत प्रचलित शब्द हो चुका है जिसके अर्थ और प्रयोजन का अनुमान प्रत्येक व्यक्ति अपने ढंग से करता है । और ’ध्यान’ के उस अर्थ और प्रयोजन की अपनी समझ के आधार पर अपने लिए उसकी आवश्यकता और तथा उपयोगिता की ओर ध्यान दिए बिना ही, उसके पक्ष या विपक्ष में, या उसे ’कैसे’ किया जाए या न किया जाए, इस बारे में अपनी कोई मान्यता बना लेता है । ऐसे ही कुछ दूसरे शब्द ’ईश्वर’, ’धर्म’, ’संप्रदाय’, ’आस्तिकता’, ’दर्शन’, ’देवता’ तथा ’मन’ आदि भी हैं।
किंतु अभी तो हमें इस बारे में गौर करना है कि ध्यान मन की एक गतिविधि है और मन की अन्य कई गतिविधियों की तरह इसे अर्थात् ’ध्यान’ को भी दो प्रमुख रूपों में देखा-समझा जा सकता है । एक तरीका तो है अनैच्छिक, दूसरा है स्वैच्छिक । इन दो रूपों के बारे में और विस्तार से देखें तो ध्यान बाध्यतापूर्वक या स्वतंत्रतापूर्वक भी हो सकता है । जैसे, जब इच्छा, चिन्ता या भय हमें होते हैं, जैसे क्रोध या भय, भावुकता या कामावेग, निद्रा, उत्साह या अवसाद उत्साह आदि हममें आते हैं और परिस्थितियों या संस्कारों के कारण मन उनसे छूटने, उन्हें दूर कर पाने या उनका संतोषजनक समाधान पाने में असमर्थ होता है और उनसे प्रेरित हुई गतिविधि में संलग्न हो जाता है और इस प्रयास में कभी सफल तो कभी असफल होता है, तो मन उस समय अनचाहे ही उनका ध्यान करता है । और ’मन’ की इस प्रकार की गतिविधि भी ध्यान का ही एक प्रकार है, जो चाहने या न चाहने के बावज़ूद ’होता’ है, या होता हुआ प्रतीत होता है ।
इस प्रकार जिसे ’मन’ कहा जा रहा है, चूँकि वह स्वयं ही स्वयं की गतिविधि है, इसलिए इस प्रकार का अनैच्छिक ध्यान / यह गतिविधि ही वस्तुतः 'ध्यानकर्ता' / 'मन' भी होता है । अनैच्छिक को involuntary भी कहा जा सकता है ।
यही मन जब ’संकल्पपूर्वक’ (voluntarily) किसी ऐसी विशिष्ट गतिविधि में संलग्न होता है जिसे उसके द्वारा ध्यान कहा-समझा जाता है और वह किसी विधि या प्रक्रिया के रूप में उसे पूर्ण करने का प्रयास करता है, तो उसे ’स्वैच्छिक’ (voluntary) ध्यान कह सकते हैं ।
फिर, जैसा कि जब ’मेरा ध्यान नहीं लग रहा’, ’मेरा ध्यान बँट गया’ आदि कहा जाता है, तब ’ध्यान’ से हमारा तात्पर्य होता है : मन का उस ओर, उस दिशा में जाना और उस पर स्थिर रहना जिसके बारे में ध्यान दिया जाना आवश्यकता प्रतीत होता है । इस प्रकार ’ध्यान’ अर्थात् ’मन की गतिविधि’ के दो तात्पर्य हुए । पहला ऐसी एक गतिविधि जो कि यद्यपि मन के अन्तर्गत और मन के द्वारा ही संचालित होती है, फिर भी मन ’स्वयं’ को उस गतिविधि का ’करनेवाला’ / कर्ता समझकर उससे अपने-आपको बँधा या अलग या मुक्त भी समझ बैठता है । दूसरा ऐसी एक गतिविधि ’जो होती है या नहीं होती, या बँटी हुई होती है’ - अर्थात् मन का उस ओर, उस दिशा में जाना और उस पर स्थिर रहना जिसके बारे में ध्यान दिया जाना आवश्यकता प्रतीत होता है ।
ये दोनों गतिविधियाँ किसी चेतन सत्ता / (consciousness ) / मन में ही हो सकती हैं, किसी जड वस्तु में होती हैं या नहीं इस बारे में हमारे पास कोई सुनिश्चित और अकाट्य प्रमाण कभी नहीं हो सकता ।
किंतु चूँकि सामान्य तर्क और अनुभव से भी सिद्ध है कि ऐसा कोई नहीं है जो अपने अस्तित्व को अस्वीकार कर सके या उसका निषेध कर सके, और चूँकि सामान्य तर्क और अनुभव से ही यह भी सिद्ध है कि ’अपने’ अस्तित्व का बोध / भान और उसकी स्वीकृति किसी प्रकार की 'प्राप्त की गई' जानकारी / acquired knowledge / शाब्दिक ज्ञान या स्मृति (memory) नहीं है, इसलिए इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि ’मन’ की ये उपरोक्त दोनों गतिविधियाँ इस ’चेतनता’ (consciousness ) के आधार से ही प्रारंभ होती हैं, उसी ’चेतनता’ के अन्तर्गत व्यक्त और विलीन होती हैं ।
इसलिए प्रश्न यह नहीं है कि ध्यान कैसे करें? या ध्यान कैसे होता है? एकमात्र प्रश्न यह है कि जो ’किया जाता है’ उसे ’करनेवाला’ ऐसा कोई स्वतन्त्र मन (या ’मैं’) वास्तव में है भी या नहीं? और ’जो होता है’ क्या उसे ’जाननेवाला’ ही उसके होने या न-होने का प्रमाण या एकमात्र साक्षी नहीं होता? किन्तु, ’एकमात्र’ में जिसे ’एक’ कहा जा रहा है, क्या वह ’एक’ भी केवल गणितीय या वैचारिक धारणा / मान्यता अर्थात् विचारमात्र ही नहीं है? क्या उस चेतनता / साक्षी को ’जाननेवाला’ कोई दूसरा, उससे अन्य चेतनता / साक्षी होता है? इसलिए उसे एक अथवा अनेक कहना ही दोषपूर्ण है ।
--
No comments:
Post a Comment