Saturday, 29 October 2016

वामावर्त-स्वस्तिक

वामावर्त-स्वस्तिक
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श्रुति और स्मृति
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विक्रमार्क ने हठ नहीं त्यागा । वह श्मशान की ओर चल पड़ा । निर्जन अंधकारपूर्ण वन में तारों का प्रकाश ही उसका मार्ग आलोकित कर रहा था और वह निर्भयचित्त पग-पग धैर्यपूर्वक चला जा रहा था । उल्लुओं की हू-हू, चर्मगात्रों (चमगादड़ों) की उड़ान उसे रोमांचित तो करते थे किंतु वह इनका अभ्यस्त था । कहीं दूर सिंह या व्याघ्र की दहाड़ या हाथियों की चिंघाड़ उसे क्षण भर को विचलित कर देते थे किंतु वह सतर्क भी था । 
जब वह पेड़ के समीप पहुँचा तो उसने वेताल को और उस शव को देखा, और बिना कोई प्रतिक्रिया किए शव को कंधे पर लादकर लौट पड़ा ।
जैसी कि उसे अपेक्षा थी, दो-चार कदम चला ही था कि शव में स्थित वेताल बोला :
"राजन् ! तुम्हारे अद्भुत् शौर्य और पराक्रम, निर्भयता और साहस प्रशंसनीय हैं । किंतु इन सद्गुणों के होते हुए भी दुर्बुद्धि होने पर मनुष्य अपने लक्ष्य से चूक जाता है । तुम्हारे श्रम के परिहार के लिए मैं तुम्हें अपनी कथा सुनाता हूँ ।
राजन् मैं स्वयं पह्लवन् नरेश के रूप में किसी काल में आर्यावर्त के पश्चिमी दिगंत पर स्थित उस राज्य का स्वामी था जिसकी सीमा कुरु-गांधार और सिन्धुकुश* (वर्तमान में हिन्दूकुश) से भी लगती थी । वैसे मैं क्षात्र-धर्म का पालन करता था, किंतु यज्ञों के अनुष्ठान और गौ-ब्राह्मणों के लिए दान करना मेरे प्रिय कर्म थे । मेरी सभा में कभी-कभी ब्राह्मण अतिथि भी आते थे और कभी-कभी वे परस्पर शास्त्र-चर्चा भी करते थे । ऐसे ही एक प्रसंग में वे वेदों में पशु-बलि के औचित्य पर परस्पर अपने-अपने पक्ष प्रस्तुत कर रहे थे ।
एक ब्राह्मण ने प्रश्न उठाया कि स्मृतियों और श्रुतियों के मत में परस्पर विरोधाभास पाए जाने पर उनकी व्याख्या और सामञ्जस्य कैसे किया जाए ?
उस दिन वह चर्चा अधूरी ही रही और सभा  की समाप्ति का समय हो गया ।
दूसरे-तीसरे दिन सभा तो प्रतिदिन की तरह हुई किंतु वे ब्राह्मण फिर सभा में नहीं उपस्थित हुए ।
किंतु उसके बहुत समय बाद दो बौद्ध भिक्षु देशाटन (विहार) करते हुए कुभा (The Kabul River पश्तो Pashto: کابل سیند‎, फ़ारसी, Persian: دریای کابل‎‎; उर्दू, Urdu: دریائے کابل‎ Sanskrit: कुभा ),वर्तमान काबुल नदी के तट पर आए । उस काल में  उसे कुभा नाम से जाना जाता था । सिंधुकुश (वर्तमान हिन्दुकुश) की संघलक्ष (Sanglakh) पर्वतश्रेणी में वे नित्य भिक्षा ग्रहण करते और कुछ दिन ठहरकर आगे बढ़ जाते । उनके बारे में सभा में चर्चा हुई तो जिज्ञासावश मैंने उन्हें आमंत्रित किया । उनके पास गांधारी धर्मपद (The Gāndhārī Dharmapada) नामक ग्रन्थ था, जिसकी प्रतिलिपि प्राप्त करने के लिए मैंने उनसे प्रार्थना की । चूंकि मेरी सभा में विद्वान् ब्राह्मण भी थे इसलिए उस संस्कृत ग्रन्थ की प्रतिलिपि करने में उन्हें कठिनाई नहीं हुई । चार-पांच पंडितों ने दो-तीन दिनों में उस ग्रन्थ की शुद्ध प्रतिलिपि बना दी । उन भिक्षुओं ने उसका ठीक से निरीक्षण किया और संतुष्ट होकर चले गए । तब कुछ और काल बीतने पर जब वे पुनः वहाँ आए तो उन ब्राह्मणों को अपने साथ बोधगया और वाराणसी की यात्रा पर ले गए । लौटने पर उन्होंने भगवान बुद्ध के मंदिरों के निर्माण का विचार मेरे समक्ष रखा ।
वैसे तो मेरी रुचि यज्ञों के अनुष्ठान में अधिक थी किंतु उन यज्ञों में पशु-बलि दी जाती थी जिससे ब्राह्मण किसी प्रकार भी राज़ी नहीं थे । यद्यपि क्षत्रिय के लिए पशु-बलि संभवतः वेद-विरुद्ध नहीं थी किंतु ब्राह्मणों के द्वारा इसके लिए असमर्थता व्यक्त करने पर धीरे-धीरे मेरी रुचि भी समाप्त हो गयी । ये वही ब्राह्मण थे जो श्रुतियों और स्मृतियों के परस्पर विरोधाभास पर मेरी सभा में उस दिन इस बारे में चर्चा कर रहे थे । इन बौद्ध-भिक्षुओं से प्रभावित होकर वे उनके मत के अनुयायी हो गए और उन्होंने बौद्ध-मत के 'हीनयान' तथा 'महायान' के समकक्ष अपने ब्राह्मी-यान (बामियान) नामक मत स्थापना की ।  सिंधु-कुश की गांधार पर्वत-श्रेणी में फिर तो बौद्ध-धर्म का ऐसा विस्तार हुआ की वेद-धर्म लुप्तप्राय होने लगा । आर्यान (ईरान) में, मेरे अपने राज्य में भी इसके प्रभाव से क्षत्रियों ने हिंसा त्याग दी और दुष्टों और शत्रुओं से प्रजा की रक्षा करनेवाला कोई न रहा ।
उधर भारत में भी क्षत्रियों द्वारा भगवान बुद्ध का मत ग्रहण कर लिए जाने से उनकी रानियों और अन्य स्त्रियों में भिक्षुणी के रूप में प्रव्रज्या लेने का आग्रह प्रबल हुआ । वह एक दूसरी कथा है कि किस प्रकार पूरे समाज का ताना-बाना इन सबके सम्मिलित प्रभाव से टूटकर बिखर गया । स्त्री की स्थिति में सर्वाधिक अंतर आया, और जहाँ स्त्री परिवार और समाज को एक सूत्र में बाँधती थी, वहीँ उसे नगरवधू तक होना पड़ा । उस कथा को भी तुमसे अवश्य कहूँगा, किंतु कल या जब अगले अवसर पर तुमसे मिलूँगा । और इसलिए आज मैं न तो तुमसे कोई प्रश्न करूँगा, न तुमसे उत्तर पाने की अपेक्षा करूँगा, और न इसके लिए तुम्हें कोई धमकी दूँगा ।
अच्छा, विदा ... .. ! "
इतना कहकर वेताल उड़ चला और राजा भी विस्मित और कुछ उदास सा अपने गुरु की कुटिया  की ओर चल  दिया ।
--क्रमशः--
(कल्पित )
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