विचार का अतिक्रमण
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Duality is in thought,
Like-wise non-duality too.
When the thought was not,
When the thought is no more,
When the thought is not,
When thought just ceases,
Reality seems to shines forth,
Which was obscured by thought,
Though never absent nor lost.
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आता है मन में कई बार
विचार के न होने का विचार !
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प्रश्न विचार के ’होने’ या ’न-होने’ का नहीं, चेतना में विचार की भूमिका क्या है यह है । स्पष्ट है कि जो चेतना इस तथ्य से अनभिज्ञ नहीं है कि विचार आता और जाता है, विचार से भिन्न प्रकार की कोई वस्तु है । विचार के आने-जाने से एक नई कल्पना ’स्व’ की पैदा होती है जिसे स्वतन्त्र ’विचारकर्ता’ मान लिया जाता है । जबकि यह कल्पना भी मूलतः विचार का ही विशिष्ट प्रकार मात्र है । और इस तथ्य की ओर ध्यान नहीं जाता कि विचार मस्तिष्क में चलनेवाली स्मृति-आधारित और पहचान-आधारित एक गतिविधि है । इसलिए ’मैं सोचता हूँ’ यह वक्तव्य मूलतः त्रुटिपूर्ण है, क्योंकि ’मैं’ नामक ऐसी किसी स्वतन्त्र सत्ता का अस्तित्व नहीं है ।
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यह चेतना न तो विचार है न ही व्यक्ति और न 'स्व' / मैं ।
यह चेतना विचार के ’होने’ या ’न-होने’को अनायास जानती है किन्तु उसे ऐसा बोध विचार-रूप में 'जानकारी ' के रूप में नहीं होता । इस सरल तथ्य की ओर ध्यान जाना विचार अतिक्रमण है तब विचार कोलाहल या उत्तेजना नहीं आवश्यकता अनुसार इस्तेमाल किया जानेवाला उपकरण भर होता है ।
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Duality is in thought,
Like-wise non-duality too.
When the thought was not,
When the thought is no more,
When the thought is not,
When thought just ceases,
Reality seems to shines forth,
Which was obscured by thought,
Though never absent nor lost.
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आता है मन में कई बार
विचार के न होने का विचार !
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प्रश्न विचार के ’होने’ या ’न-होने’ का नहीं, चेतना में विचार की भूमिका क्या है यह है । स्पष्ट है कि जो चेतना इस तथ्य से अनभिज्ञ नहीं है कि विचार आता और जाता है, विचार से भिन्न प्रकार की कोई वस्तु है । विचार के आने-जाने से एक नई कल्पना ’स्व’ की पैदा होती है जिसे स्वतन्त्र ’विचारकर्ता’ मान लिया जाता है । जबकि यह कल्पना भी मूलतः विचार का ही विशिष्ट प्रकार मात्र है । और इस तथ्य की ओर ध्यान नहीं जाता कि विचार मस्तिष्क में चलनेवाली स्मृति-आधारित और पहचान-आधारित एक गतिविधि है । इसलिए ’मैं सोचता हूँ’ यह वक्तव्य मूलतः त्रुटिपूर्ण है, क्योंकि ’मैं’ नामक ऐसी किसी स्वतन्त्र सत्ता का अस्तित्व नहीं है ।
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यह चेतना न तो विचार है न ही व्यक्ति और न 'स्व' / मैं ।
यह चेतना विचार के ’होने’ या ’न-होने’को अनायास जानती है किन्तु उसे ऐसा बोध विचार-रूप में 'जानकारी ' के रूप में नहीं होता । इस सरल तथ्य की ओर ध्यान जाना विचार अतिक्रमण है तब विचार कोलाहल या उत्तेजना नहीं आवश्यकता अनुसार इस्तेमाल किया जानेवाला उपकरण भर होता है ।
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