प्रसंगवश / अदृश्य, अदृष्ट और अज्ञात
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जीवन के इन तीन रूपों पर तब अनायास ही ध्यान गया जब जे. कृष्णमूर्ति के प्रशंसक एक मित्र ने पूछा कि जे. कृष्णमूर्ति को गुरु क्यों नहीं कहा जा सकता? मैं कृष्णमूर्ति के मंत्र को जपना चाहता हूँ । मुझे कृष्णमूर्ति से प्रेम है ।
मांधाता पर्वत की प्रदक्षिणा का वह मार्ग, पौराणिक दृष्टि से भी पर्वत की प्रदक्षिणा का मार्ग तो है ही, पता नहीं कितने काल से तीर्थयात्री उस मार्ग पर प्रायः अमावस्या, पूर्णिमा और दूसरी महत्वपूर्ण तिथियों पर प्रदक्षिणा करते आ रहे हैं, किन्तु इसे नर्मदा की 'आँतरिक प्रदक्षिणा' भी कहा जा सकता है । इसी का एक दूसरा रूप है नर्मदा नदी की प्रदक्षिणा / परिक्रमा । यह परिक्रमा उस वर्तुल मार्ग पर की जाती है जिस पर नर्मदा के चारों ओर ओर ऋषि-मुनि, आध्यात्मिक साधक और तपस्वी और तीर्थयात्री भ्रमण करते रहे हैं । वेद के अनुसार समस्त चर अचर व्यक्त जगत् परम-चेतन परमात्मा का ही आवर्त है और इसका प्रत्येक कण उसी की प्रदक्षिणा / परिक्रमा करता है । यह नित्य-सत्य है । व्यक्त जगत् में हम ग्रह-नक्षत्रों से लेकर भौतिक-विज्ञान के मूल-कणों में भी इसी सत्य का अनुकरण करने की प्रवृत्ति देखते हैं । कोई प्रश्न कर सकता है कि वे तो जड़ वस्तुएँ हैं उनमें ’प्रवृत्ति’ कैसे हो सकती है? हाँ इसीलिए वे मनुष्य की तरह प्रवृत्ति से प्रेरित होने के बजाय अपनी प्रकृति / स्वभाव से ही ऐसा अनायास करते हैं । इसलिए वे ’करते’ हैं ऐसा कहना भी सही न होगा । क्योंकि यह उनका ’धर्म’ है, न कि प्रवृत्ति । ’धर्म’ अर्थात् प्रकृति का वह विधान जो अदृश्य है किन्तु जिसे मनुष्य ने विज्ञान की सहायता से किसी सीमा तक आविष्कृत कर लिया है, -ऐसा वैज्ञानिकों और विचारकों का अनुमान है । यह ’विधान’ यद्यपि कहीं लिखित रूप में भी है या नहीं इस बारे में कहना भी अभी संभवतः एक हास्यास्पद विचार होगा ।
वे ग्रह-नक्षत्र और भौतिक-विज्ञानियों द्वारा खोजे गए पदार्थ के मूल-कण ’स्थान’ के अन्तर्गत अपने वर्तुल पथ पर सतत् गतिशील हैं यह गति उनका शील है, यह गति उनका ’धर्म’ है और वे भौतिक शास्त्र के मोमेन्ट ऑफ़ इनर्शिया (Moment of inertia) के सिद्धान्त की सत्यता का प्रदर्शन करते हुए तब तक ’धर्म’ का आचरण करते रहते हैं, जब तक कि कोई बाह्य-शक्ति उनके इस आचरण में हस्तक्षेप नहीं करती । (भौतिक-विज्ञान के इस नियम के अनुसार, संक्षेप में, जो वस्तु गतिशील है वह तब तक गति की अवस्था में तथा जो वस्तु स्थिर है वह तब तक स्थिरता की अवस्था में रहती है जब तक उस पर कोई बाह्य बल नहीं आरोपित किया जाता । इसे जडत्व-आघूर्ण भी कहा जाता है ।)
यहाँ एक प्रश्न यह उठता है कि जैसा हमें मनुष्यों और ’जीवों’ के बारे में लगता है, क्या ’जड’ समझी जानेवाली वस्तुओं में भी अपनी स्वतंत्र इच्छा या क्रिया शक्ति हो सकती है? इस अनुमान की सत्यता जाँचे बिना ही हम प्रायः इसे ’तथ्य’ की तरह स्वीकार कर लेते हैं । किंतु तब यह हमारा वैज्ञानिक-अंधविश्वास ही होगा इससे हम इनकार भी नहीं कर सकते । क्योंकि जिस ’चेतना’ में इच्छा और क्रिया शक्ति का उन्मेष होता है उसका स्वरूप क्या है, इस ओर तो हमारा कभी ध्यान ही कहाँ जाता है ? हमें लगता है कि ’मैं’ चेतन हूँ, और हमारा ध्यान इस सरल स्वतःप्रमाणित / स्वयंसिद्ध तथ्य की ओर नहीं जाता कि शरीर में चेतनता / जीवन होने से ही ’मैं’ का विचार, कल्पना हमें उठती / जन्म लेती है । इस प्रकार चेतना / चेतनता विचार की गतिविधि नहीं, बल्कि वह आधार / अधिष्ठान है जिसमें विचार की गतिविधि अदृश्य, अदृष्ट और अज्ञात रूप में अवस्थित होती है । जब यही व्यक्त रूप लेती है तभी हमें लगता है कि मैं ’चेतन’ हूँ । किन्तु इस ’मैं’ / विचार के आगमन के पश्चात ’तुम’ / ’यह’ / ’वह’ भी ’मेरे लिए’ व्यक्त रूप लेता है । क्या विचार की गतिविधि कभी उस चेतन / चेतना के स्वरूप के बारे में जानने / कहने में सक्षम हो सकती है, जहाँ से उसका आविर्भाव होता है? संक्षेप में, क्या बुद्धि / विचार अपने मूल को जान-समझ सकती है? क्या वह अधिष्ठान विचार के आगमन से पहले से ही विद्यमान नहीं है? क्या उसे विचार के माध्यम से जाना जा सकता है? उसका भान / दर्शन तो तभी होगा जब विचार शांत हो और उसे जानने की रुचि / तीव्र अभीप्सा हो । इनमें से एक भी कम हो तो उसका आविष्कार / दर्शन न तो होगा, और न मन की 'ज्ञात से मुक्ति' (Freedom from the known) हो सकेगी ।
विचार (ज्ञात) ध्यान में बाधक है, और इस ज्ञात-रूपी बाधा का निवारण ध्यान से ही होता है *।
जे.कृष्णमूर्ति इसी चेतन / चेतना के बारे में बात करते हैं न कि उस चेतन / चेतना के बारे में जिसे मनोविज्ञान परिभाषित करने का प्रयास करता है ।
दूसरी तरह से देखें तो वे ’धर्म’ के संबंध में चर्चा करते हैं, ’धर्म’ जो वस्तु-स्वभाव है, जड-चेतन सभी वस्तुओं का, जो नित्य, अविकारी, सनातन है, जिससे परंपराएँ उद्भूत होती हैं, और एक दिन विलीन हो जाती हैं । परंपराएँ ’धर्म’ नहीं हो सकतीं क्योंकि धर्म अविनाशी, जन्म-मृत्यु से रहित है ।
इसलिए 'धर्म' परंपरा का रूप नहीं ले सकता, परम्पराओं को ही 'धर्म' के अनुसार ढलना / होना होगा ।
जब मैं 'कृष्णमूर्ति' के बारे में 'मंत्र' बनाता या रचता हूँ तो यह मेरे अज्ञान का ही विस्तार होगा और मन को 'विचार' से परे नहीं ले जा सकता । किन्तु यदि मैं मंत्र को 'उद्घाटित' कर सकता हूँ तो ऐसा उद्घाटन (दर्शन) मन से परे के उस अज्ञात की प्रेरणा से ही होगा जिसमें 'मैं' और मेरा ज्ञात जगत् सनातन काल से नित्य प्रकट और अप्रकट होता रहता है । किन्तु क्या मैं यह मंत्र, इस 'मंत्र' (की दीक्षा) दूसरों को 'दे' सकता हूँ? क्या यही उचित और अधिक अच्छा नहीं होगा कि वे स्वयं ही उनका अपना मंत्र खोज लें । वे स्वयं ही तय करें कि यह उनके मन की कल्पना है या उन्हें अज्ञात से प्राप्त हुआ अमूल्य उपहार है ! किन्तु इस आधार पर नए संप्रदाय / आश्रम / संगठन / मिशन / स्थापित करना मनोविलास ही होगा न कि मन से परे :
'गरुड़ की उड़ान' / "The Flight of The Eagle"!
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*जे.कृष्णमूर्ति की पुस्तक "Krishnamoorti's Note-book" से ।
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जीवन के इन तीन रूपों पर तब अनायास ही ध्यान गया जब जे. कृष्णमूर्ति के प्रशंसक एक मित्र ने पूछा कि जे. कृष्णमूर्ति को गुरु क्यों नहीं कहा जा सकता? मैं कृष्णमूर्ति के मंत्र को जपना चाहता हूँ । मुझे कृष्णमूर्ति से प्रेम है ।
मांधाता पर्वत की प्रदक्षिणा का वह मार्ग, पौराणिक दृष्टि से भी पर्वत की प्रदक्षिणा का मार्ग तो है ही, पता नहीं कितने काल से तीर्थयात्री उस मार्ग पर प्रायः अमावस्या, पूर्णिमा और दूसरी महत्वपूर्ण तिथियों पर प्रदक्षिणा करते आ रहे हैं, किन्तु इसे नर्मदा की 'आँतरिक प्रदक्षिणा' भी कहा जा सकता है । इसी का एक दूसरा रूप है नर्मदा नदी की प्रदक्षिणा / परिक्रमा । यह परिक्रमा उस वर्तुल मार्ग पर की जाती है जिस पर नर्मदा के चारों ओर ओर ऋषि-मुनि, आध्यात्मिक साधक और तपस्वी और तीर्थयात्री भ्रमण करते रहे हैं । वेद के अनुसार समस्त चर अचर व्यक्त जगत् परम-चेतन परमात्मा का ही आवर्त है और इसका प्रत्येक कण उसी की प्रदक्षिणा / परिक्रमा करता है । यह नित्य-सत्य है । व्यक्त जगत् में हम ग्रह-नक्षत्रों से लेकर भौतिक-विज्ञान के मूल-कणों में भी इसी सत्य का अनुकरण करने की प्रवृत्ति देखते हैं । कोई प्रश्न कर सकता है कि वे तो जड़ वस्तुएँ हैं उनमें ’प्रवृत्ति’ कैसे हो सकती है? हाँ इसीलिए वे मनुष्य की तरह प्रवृत्ति से प्रेरित होने के बजाय अपनी प्रकृति / स्वभाव से ही ऐसा अनायास करते हैं । इसलिए वे ’करते’ हैं ऐसा कहना भी सही न होगा । क्योंकि यह उनका ’धर्म’ है, न कि प्रवृत्ति । ’धर्म’ अर्थात् प्रकृति का वह विधान जो अदृश्य है किन्तु जिसे मनुष्य ने विज्ञान की सहायता से किसी सीमा तक आविष्कृत कर लिया है, -ऐसा वैज्ञानिकों और विचारकों का अनुमान है । यह ’विधान’ यद्यपि कहीं लिखित रूप में भी है या नहीं इस बारे में कहना भी अभी संभवतः एक हास्यास्पद विचार होगा ।
वे ग्रह-नक्षत्र और भौतिक-विज्ञानियों द्वारा खोजे गए पदार्थ के मूल-कण ’स्थान’ के अन्तर्गत अपने वर्तुल पथ पर सतत् गतिशील हैं यह गति उनका शील है, यह गति उनका ’धर्म’ है और वे भौतिक शास्त्र के मोमेन्ट ऑफ़ इनर्शिया (Moment of inertia) के सिद्धान्त की सत्यता का प्रदर्शन करते हुए तब तक ’धर्म’ का आचरण करते रहते हैं, जब तक कि कोई बाह्य-शक्ति उनके इस आचरण में हस्तक्षेप नहीं करती । (भौतिक-विज्ञान के इस नियम के अनुसार, संक्षेप में, जो वस्तु गतिशील है वह तब तक गति की अवस्था में तथा जो वस्तु स्थिर है वह तब तक स्थिरता की अवस्था में रहती है जब तक उस पर कोई बाह्य बल नहीं आरोपित किया जाता । इसे जडत्व-आघूर्ण भी कहा जाता है ।)
यहाँ एक प्रश्न यह उठता है कि जैसा हमें मनुष्यों और ’जीवों’ के बारे में लगता है, क्या ’जड’ समझी जानेवाली वस्तुओं में भी अपनी स्वतंत्र इच्छा या क्रिया शक्ति हो सकती है? इस अनुमान की सत्यता जाँचे बिना ही हम प्रायः इसे ’तथ्य’ की तरह स्वीकार कर लेते हैं । किंतु तब यह हमारा वैज्ञानिक-अंधविश्वास ही होगा इससे हम इनकार भी नहीं कर सकते । क्योंकि जिस ’चेतना’ में इच्छा और क्रिया शक्ति का उन्मेष होता है उसका स्वरूप क्या है, इस ओर तो हमारा कभी ध्यान ही कहाँ जाता है ? हमें लगता है कि ’मैं’ चेतन हूँ, और हमारा ध्यान इस सरल स्वतःप्रमाणित / स्वयंसिद्ध तथ्य की ओर नहीं जाता कि शरीर में चेतनता / जीवन होने से ही ’मैं’ का विचार, कल्पना हमें उठती / जन्म लेती है । इस प्रकार चेतना / चेतनता विचार की गतिविधि नहीं, बल्कि वह आधार / अधिष्ठान है जिसमें विचार की गतिविधि अदृश्य, अदृष्ट और अज्ञात रूप में अवस्थित होती है । जब यही व्यक्त रूप लेती है तभी हमें लगता है कि मैं ’चेतन’ हूँ । किन्तु इस ’मैं’ / विचार के आगमन के पश्चात ’तुम’ / ’यह’ / ’वह’ भी ’मेरे लिए’ व्यक्त रूप लेता है । क्या विचार की गतिविधि कभी उस चेतन / चेतना के स्वरूप के बारे में जानने / कहने में सक्षम हो सकती है, जहाँ से उसका आविर्भाव होता है? संक्षेप में, क्या बुद्धि / विचार अपने मूल को जान-समझ सकती है? क्या वह अधिष्ठान विचार के आगमन से पहले से ही विद्यमान नहीं है? क्या उसे विचार के माध्यम से जाना जा सकता है? उसका भान / दर्शन तो तभी होगा जब विचार शांत हो और उसे जानने की रुचि / तीव्र अभीप्सा हो । इनमें से एक भी कम हो तो उसका आविष्कार / दर्शन न तो होगा, और न मन की 'ज्ञात से मुक्ति' (Freedom from the known) हो सकेगी ।
विचार (ज्ञात) ध्यान में बाधक है, और इस ज्ञात-रूपी बाधा का निवारण ध्यान से ही होता है *।
जे.कृष्णमूर्ति इसी चेतन / चेतना के बारे में बात करते हैं न कि उस चेतन / चेतना के बारे में जिसे मनोविज्ञान परिभाषित करने का प्रयास करता है ।
दूसरी तरह से देखें तो वे ’धर्म’ के संबंध में चर्चा करते हैं, ’धर्म’ जो वस्तु-स्वभाव है, जड-चेतन सभी वस्तुओं का, जो नित्य, अविकारी, सनातन है, जिससे परंपराएँ उद्भूत होती हैं, और एक दिन विलीन हो जाती हैं । परंपराएँ ’धर्म’ नहीं हो सकतीं क्योंकि धर्म अविनाशी, जन्म-मृत्यु से रहित है ।
इसलिए 'धर्म' परंपरा का रूप नहीं ले सकता, परम्पराओं को ही 'धर्म' के अनुसार ढलना / होना होगा ।
जब मैं 'कृष्णमूर्ति' के बारे में 'मंत्र' बनाता या रचता हूँ तो यह मेरे अज्ञान का ही विस्तार होगा और मन को 'विचार' से परे नहीं ले जा सकता । किन्तु यदि मैं मंत्र को 'उद्घाटित' कर सकता हूँ तो ऐसा उद्घाटन (दर्शन) मन से परे के उस अज्ञात की प्रेरणा से ही होगा जिसमें 'मैं' और मेरा ज्ञात जगत् सनातन काल से नित्य प्रकट और अप्रकट होता रहता है । किन्तु क्या मैं यह मंत्र, इस 'मंत्र' (की दीक्षा) दूसरों को 'दे' सकता हूँ? क्या यही उचित और अधिक अच्छा नहीं होगा कि वे स्वयं ही उनका अपना मंत्र खोज लें । वे स्वयं ही तय करें कि यह उनके मन की कल्पना है या उन्हें अज्ञात से प्राप्त हुआ अमूल्य उपहार है ! किन्तु इस आधार पर नए संप्रदाय / आश्रम / संगठन / मिशन / स्थापित करना मनोविलास ही होगा न कि मन से परे :
'गरुड़ की उड़ान' / "The Flight of The Eagle"!
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*जे.कृष्णमूर्ति की पुस्तक "Krishnamoorti's Note-book" से ।
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