Wednesday, 5 October 2016

उच्छिष्ट-सेवन / नई वेताल-कथा

उच्छिष्ट-सेवन / नई वेताल-कथा
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विक्रमार्क ने हठ न छोड़ा । गुरु के आदेश का पालन करने के लिए वह उस घोर महाकाल-वन में थोड़ी दूर अवस्थित श्मशान की ओर चल पड़ा । नदी के तट पर कुछ चिताएँ अब भी जल रही थीं । उसे यह सोचकर कौतूहल नहीं हुआ कि एक साथ इतने लोगों की मृत्यु क्यों हुई होगी । प्रायः तो एक या कभी-कभी दो ही चिताएँ उस श्मशान में जलती दिखाई देतीं थी । उसने क्रम से जलती छः चिताओं पर एक दृष्टि डाली और सातवीं के समीप जा पहुँचा जिसे किसी कारणवश अभी अग्नि भी नहीं दी गई थी । फिर वहाँ से और आगे जाने पर उसे उस वृक्ष पर स्थित शव के दर्शन हुए जिसे केवल वही देख पाता था । गुरु के दिए हुए अञ्जन को नेत्रों में आञ्जकर ही वह सदैव इस या किसी दूसरे वृक्ष के समीप जाता, जिस पर स्थित शव और उसमें स्थित वेताल उस अञ्जन के न लगाने पर उसे भी नहीं दिखाई देते थे । किंतु इससे भी अधिक आश्चर्य उसे यह देखकर होता था कि जब वह शव को कंधे पर लादता तो वह किसी सद्यमृत मनुष्य जैसा ही भारी अनुभव होता था । और इसके बाद उस शव में स्थित वेताल की वाणी सुनने का साहस संपूर्ण पृथ्वी पर यदि किसी में हो सकता था तो वह बस एकमात्र राजा विक्रमार्क ही था । किंतु अब तक राजा विक्रमार्क कितने ही शवों को कंधे पर लादकर गुरु के समीप ले जा चुका था इसलिए उसके लिए यह कोई विशेष घटना कदापि नहीं थी । हाँ उसे विस्मय अब भी कभी-कभी होता था किंतु इस विलक्षण, रहस्यमय और भयानक प्रसंग को उसने अभी तक गुप्त ही रखा था ।
अभी उसने शव को कंधे पर रखा ही था कि शव में स्थित वेताल बोल उठा :
"राजन् तुम्हारे अध्यवसाय पर तो मुझे आश्चर्य होता ही है किंतु उससे भी अधिक आश्चर्य इस पर होता है कि तुम कितने समय तक इस कार्य में संलग्न रहोगे! क्या संसार के अन्य अत्यावश्यक कार्य और प्रलोभन, भय या उत्तेजनाएँ तुम्हें कभी इससे विरत नहीं कर देंगी? संसार में नित्य क्या है? मनुष्य जो भी कार्य करता है, सुख-दुःख भोगता है, संपत्ति, राज्य, वैभव, यहाँ तक कि दुर्लभ सिद्धियाँ भी पा लेता है, क्या सभी अनित्य नहीं होतीं? मेरा बात अच्छी तरह समझने के लिए ध्यान देकर यह कथा सुनो :
"अभी तुमने जिन सात चिताओं को जलते देखा वे अभी मृत हुए व्यक्तियों की नहीं बल्कि सैकड़ों वर्ष पहले मर चुके मनुष्यों की हैं जिनकी चिता अभी न तो पूरी तरह जल सकी है, न जलकर समाप्त हो सकी है । इनमें से दो तो मेरे दो भाई हैं और तीसरा मैं स्वयं हूँ । शेष चार हमारे मित्र हैं । हम सभी की मृत्यु भिन्न-भिन्न समय पर हुई और हमारे परिजनों ने उनकी मति के अनुसार हमारी अन्त्येष्टि भी कर दी किंतु हममें से कोई भी न तो उस देह से मुक्त हुआ न उसके कर्मों से । अधिक विस्तार में न जाते हुए मैं बस इतना कहूँगा कि हम सब शास्त्रवेत्ता कर्मकाण्ड में दक्ष ब्राह्मण थे किंतु हमारे शास्त्र-निषिद्ध आचरण के कारण हम इस दुर्दशा के भागी हुए ।
सोमदत्त, हममें से सबसे बड़ा लोभवश यज्ञकर्मों का अनुष्ठान करता था ।
इंद्रदत्त, निष्काम-भाव से प्राप्त कर्तव्य समझकर, यज्ञकर्मों का अनुष्ठान करता था ।
इसी प्रकार शेष सब भी भिन्न-भिन्न भावनाओं और बुद्धि से यज्ञकर्मों का अनुष्ठान करते थे ।
कुछ द्रव्य-यज्ञ, कुछ जप-यज्ञ, कुछ तप-यज्ञ, कुछ दान-यज्ञ आदि वेद के मुख से कहे गए भिन्न-भिन्न यज्ञों का अनुष्ठान करते थे । इन यज्ञों से उन्हें पुण्य-फल तो मिलने ही थे, परंतु कुछ वेद-अविहित कर्मों से, कुछ त्रुटियों से, वे सभी शुभ-कर्म अशुभ प्रभाव से युक्त होते थे । संक्षेप में प्रमादसहित किए जाने वाले कर्म । नित्य-अनित्य के विवेक का पर्याप्त अभ्यास न करना एक ओर प्रमाद का कारण था, तो प्रमाद के कारण उन्हें इस अभ्यास में रुचि नहीं थी । और विवेक के अभाव में वैराग्य का प्रश्न ही नहीं उठता था । वैसे तो सभी को अनेक शास्त्र कंठस्थ थे, किंतु जागतिक इन्द्रिय-विषयों के प्रति भोग-बुद्धि और भोग-बुद्धि होने से उनमें स्थित सुखों की अनित्यता की ओर उनका ध्यान ही नहीं जाता था । और वे इसलिए अभक्ष्य-भक्ष्य, अगम्या-गमन, और अनधिकारयुक्त धन-संपत्ति के संग्रह तथा उपभोग जैसी कुप्रवृत्तियों से लुब्ध और उनमें लिप्त भी हो जाते थे । उन्हें कभी-कभी इसकी ग्लानि भी होती थी किंतु विषयों के सम्मुख होने पर उनकी विवेक-बुद्धि मानों कुंठित हो जाती थी । और परिणाम-स्वरूप उनकी यह दशा हुई ।
राजन् हमारी मुक्ति कैसे होगी यदि जानते हुए भी तुमने इस प्रश्न का उत्तर नहीं दिया तो ...."
तब राजा विक्रमार्क ने वेताल के प्रश्न का सावधान होकर यह उत्तर दिया :
वेताल, सुनो! एक शब्द में कहूँ तो यह उच्छिष्ट-सेवन का दोष है । पर-धन, पर-स्त्री और पर-भूमि को भोग की दृष्टि से देखना ही अपने-आपमें मनुष्य के पतन के लिए पर्याप्त होता है किंतु भोग करना तो उच्छिष्ट-सेवन के तुल्य महान् अनिष्ट है । और मनुष्य को इसके अशुभ फल का भोग मृत्यु के बाद भी दीर्घकाल तक भोगना पड़ता है । मैं नहीं कह सकता कि तुम सबकी मुक्ति कब और कैसे होगी । यद्यपि यह भी सत्य है कि केवल शास्त्र का अध्ययन कर लेने से ही इस दोष का निवारण नहीं हो पाता । क्योंकि शास्त्र-निष्ठा के अभाव में मनुष्य अपनी तर्क-प्रवृत्ति और द्वेषबुद्धि के कारण शास्त्रों का दोषपूर्ण मूल्यांकन और त्रुटियुक्त विवेचना करने लगता है जो उसके पतन का एक और बड़ा कारण बन जाता है । किंतु ऐसा मनुष्य भी अपने दोष को जानकर शास्त्र से द्वेष न करता हुआ शुद्ध हृदय से यदि श्रवण-मात्र भी करे तो उसकी मुक्ति सुनिश्चित है । तुम्हारी मुक्ति के लिए मैं शीघ्र ही श्रीमद्भागवत-कथा का आयोजन करूँगा । वेद यद्यपि धर्म-अधर्म की विवेचना करते हैं, किंतु वह केवल अधिकारी के लिए ही, जबकि पुराण मनुष्य-मात्र के लिए कल्याणकारी हैं, उसकी श्रद्धा हो या न हो तो भी, किंतु  यह तो आवश्यक है ही कि उनके प्रति उसमें द्वेष या शंका भी न हो । तुम यहाँ-वहाँ न भटकते हुए अपने भाइयों और मित्रों सहित वहाँ आकर इसका लाभ ले सकते हो । मुझे ऐसा कोई और दूसरा उपाय नहीं दिखाई देता जिससे तुम्हारी मुक्ति सुनिश्चित हो सके ।"
राजा की बात पूर्ण होते ही वेताल ने सम्मान सहित उसे प्रणाम किया और शव को लेकर आकाश-मार्ग से जाते हुए शीघ्र ही दृष्टि से ओझल हो गया ।
(कल्पित)
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टिप्पणी : 
जर, (जड वस्तुएँ), जोरू / योषिता (नारी) और जमीन / ज्या (जमीन) नहीं बल्कि झगड़े की असली जड़ है मनुष्य की लोभ और भोग-वृत्ति जो उसके अपने और समस्त संसार के लिए भी विकट विपत्ति बन जाती है ।
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