संवेदनशील और असंवेदनशील मन
--
"मन सवाल करता है और मन ही उत्तर गढ़ लेता है !"
यह विचार किसका है? क्या विचार मन का ही नहीं होता? और, क्या विचार भी मन ही नहीं होता? या शायद विचार से भिन्न कोई और तत्व भी है मन का? स्पष्ट है कि ’मन’ नामक वस्तु में दो गतिविधियाँ संयुक्त होती हैं : एक तो होती है विचार की गतिविधि, दूसरी होती है ध्यान (अटेंशन) नामक गतिविधि । इस ध्यान / अटेंशन को गतिविधि कहना कहाँ तक सही है इस पर भी दृष्टि डालना महत्वपूर्ण है । क्योंकि कभी-कभी ’मन’ ’बँटा’ भी होता है, जब हम / मन किसी कार्य में लगे होने पर भी विचार की गतिविधि जारी रहती है । जैसे ड्राइविंग करते समय या कोई ऐसा कार्य करते समय जिसे याँत्रिक ढंग से किया जा सकता है, और जिस पर निरंतर ध्यान दिया जाना आवश्यक नहीं होता, हमारा ध्यान बँट जाता है किंतु हमें इस बारे में कभी-कभी तो पता होता है, पर प्रायः तो हम इस ओर से लापरवाह / असावधान हो जाते हैं, क्योंकि किसी याँत्रिक कार्य को अतिरिक्त ध्यान दिया जाना आवश्यक भी नहीं होता । किंतु जब हम किसी ऐसे नए कार्य को करना सीखते हैं जो किसी हद तक याँत्रिक भी होता है, तो यद्यपि शुरू में उस पर अतिरिक्त ध्यान लगाया जाना आवश्यक प्रतीत होता है, और यदि किसी कारण से, - रुचि, बाध्यता, लोभ, भय आदि से हम इस प्रकार इस कार्य को करना सीख लेते हैं और जब संतोषजनक ढंग से उसे करना हमारे लिए स्वाभाविक हो जाता है, तो हमारा ’मन’ उस अतिरिक्त ध्यान को उस कार्य से हटाकर किसी दूसरे कार्य में लगाने लगता है । इसलिए जिस / जब किसी कार्य में एकरसता या ऊब होने लगती है तो हमारे ’मन’ की प्रवृत्ति या तो किसी अतिरिक्त कार्य को करने की ओर, या ’सो’ जाने की होने लगती है । ऐसी स्थिति में अपने को जगाए रखने के लिए हमें या तो मनोरंजन अथवा किसी नशे की आवश्यकता अनुभव होने लगती है । ’मन’ की एक अद्भुत क्षमता यह भी है कि वह सुख-दुख का केवल काल्पनिक भोग भी कर सकता है और यह तथ्य संभवतः मनुष्य, और वह भी तथाकथित ’सभ्य’ कहे जानेवाले मनुष्य पर ही अधिक लागू होता है । क्योंकि मनुष्य का मन कल्पना से ही किसी ’अतीत’ और किसी ’भविष्य’ का सृजन कर लेता है, और यह ’कला’ उसने अपने समाज और परिवेश से ही सीखी होती है । इसलिए किसी ऐसे कार्य को करते समय जिसमें करने के लिए ’नया’ कुछ नहीं होता, मन या तो ऊबने लगता है, या किसी काल्पनिक वस्तु जैसे अतीत / भविष्य / स्थान / / व्यक्ति / स्मृति / स्थिति / घटना आदि के ’विचार’ में लिप्त होकर अनायास स्वप्न जैसी स्थिति में चला जाता है । इस स्थिति में कभी-कभी मनुष्य यद्यपि ऐसी आश्चर्यकारी वस्तुओं की रचना भी कर सकता है जिन्हें ’कला’, ’साहित्य’, ’आदर्श’, ’विज्ञान’ और ’प्रतिभा’ कहकर गौरवान्वित भी किया जाता है किंतु वह रचनात्मकता उस सृजनशीलता से बिलकुल भिन्न है जिससे / जिसमें मनुष्य अपने (?) मन की सावधानता / अनवधानता के प्रति सजग होता है । मन के स-अवधान और / अन्-अवधानपूर्ण होने के प्रति सजगता में मन में उठे इस सवाल का कोई उत्तर गढ़े जाने की आवश्यकता और मन द्वारा ऐसा उत्त्तर गढ़े जाने की उसकी क्षमता दोनों ही शेष नहीं रह जाते । जब तक ’मन’ इस तथ्य के प्रति असंवेदनशील रहता है तभी तक मन सवाल करता है और उत्तर गढ़ लेता है ! किंतु जब / जो मन इस तथ्य के प्रति संवेदनशील होता है वह हर क्षण ही नितांत नया, ऊर्जा और ताज़गी भरा जीवंत और प्राणवान होता है ।
--
--
"मन सवाल करता है और मन ही उत्तर गढ़ लेता है !"
यह विचार किसका है? क्या विचार मन का ही नहीं होता? और, क्या विचार भी मन ही नहीं होता? या शायद विचार से भिन्न कोई और तत्व भी है मन का? स्पष्ट है कि ’मन’ नामक वस्तु में दो गतिविधियाँ संयुक्त होती हैं : एक तो होती है विचार की गतिविधि, दूसरी होती है ध्यान (अटेंशन) नामक गतिविधि । इस ध्यान / अटेंशन को गतिविधि कहना कहाँ तक सही है इस पर भी दृष्टि डालना महत्वपूर्ण है । क्योंकि कभी-कभी ’मन’ ’बँटा’ भी होता है, जब हम / मन किसी कार्य में लगे होने पर भी विचार की गतिविधि जारी रहती है । जैसे ड्राइविंग करते समय या कोई ऐसा कार्य करते समय जिसे याँत्रिक ढंग से किया जा सकता है, और जिस पर निरंतर ध्यान दिया जाना आवश्यक नहीं होता, हमारा ध्यान बँट जाता है किंतु हमें इस बारे में कभी-कभी तो पता होता है, पर प्रायः तो हम इस ओर से लापरवाह / असावधान हो जाते हैं, क्योंकि किसी याँत्रिक कार्य को अतिरिक्त ध्यान दिया जाना आवश्यक भी नहीं होता । किंतु जब हम किसी ऐसे नए कार्य को करना सीखते हैं जो किसी हद तक याँत्रिक भी होता है, तो यद्यपि शुरू में उस पर अतिरिक्त ध्यान लगाया जाना आवश्यक प्रतीत होता है, और यदि किसी कारण से, - रुचि, बाध्यता, लोभ, भय आदि से हम इस प्रकार इस कार्य को करना सीख लेते हैं और जब संतोषजनक ढंग से उसे करना हमारे लिए स्वाभाविक हो जाता है, तो हमारा ’मन’ उस अतिरिक्त ध्यान को उस कार्य से हटाकर किसी दूसरे कार्य में लगाने लगता है । इसलिए जिस / जब किसी कार्य में एकरसता या ऊब होने लगती है तो हमारे ’मन’ की प्रवृत्ति या तो किसी अतिरिक्त कार्य को करने की ओर, या ’सो’ जाने की होने लगती है । ऐसी स्थिति में अपने को जगाए रखने के लिए हमें या तो मनोरंजन अथवा किसी नशे की आवश्यकता अनुभव होने लगती है । ’मन’ की एक अद्भुत क्षमता यह भी है कि वह सुख-दुख का केवल काल्पनिक भोग भी कर सकता है और यह तथ्य संभवतः मनुष्य, और वह भी तथाकथित ’सभ्य’ कहे जानेवाले मनुष्य पर ही अधिक लागू होता है । क्योंकि मनुष्य का मन कल्पना से ही किसी ’अतीत’ और किसी ’भविष्य’ का सृजन कर लेता है, और यह ’कला’ उसने अपने समाज और परिवेश से ही सीखी होती है । इसलिए किसी ऐसे कार्य को करते समय जिसमें करने के लिए ’नया’ कुछ नहीं होता, मन या तो ऊबने लगता है, या किसी काल्पनिक वस्तु जैसे अतीत / भविष्य / स्थान / / व्यक्ति / स्मृति / स्थिति / घटना आदि के ’विचार’ में लिप्त होकर अनायास स्वप्न जैसी स्थिति में चला जाता है । इस स्थिति में कभी-कभी मनुष्य यद्यपि ऐसी आश्चर्यकारी वस्तुओं की रचना भी कर सकता है जिन्हें ’कला’, ’साहित्य’, ’आदर्श’, ’विज्ञान’ और ’प्रतिभा’ कहकर गौरवान्वित भी किया जाता है किंतु वह रचनात्मकता उस सृजनशीलता से बिलकुल भिन्न है जिससे / जिसमें मनुष्य अपने (?) मन की सावधानता / अनवधानता के प्रति सजग होता है । मन के स-अवधान और / अन्-अवधानपूर्ण होने के प्रति सजगता में मन में उठे इस सवाल का कोई उत्तर गढ़े जाने की आवश्यकता और मन द्वारा ऐसा उत्त्तर गढ़े जाने की उसकी क्षमता दोनों ही शेष नहीं रह जाते । जब तक ’मन’ इस तथ्य के प्रति असंवेदनशील रहता है तभी तक मन सवाल करता है और उत्तर गढ़ लेता है ! किंतु जब / जो मन इस तथ्य के प्रति संवेदनशील होता है वह हर क्षण ही नितांत नया, ऊर्जा और ताज़गी भरा जीवंत और प्राणवान होता है ।
--
No comments:
Post a Comment