Friday, 18 November 2016

सहस्रशः / 19/11/2016

सहस्रशः
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"पुत्र ! तुममें जो सर्वाधिक प्रखर विशेषता है वह है तुम्हारा प्रमादरहित होना । प्रमाद का अर्थ है मन पर किसी वृत्ति का हावी हो जाना, और प्रमादरहित होने का अर्थ है समस्त वृत्तियों में आधारभूत अहंवृत्ति के उद्भव, विलास और लय का सहज अवधान होना । और इसलिए मैंने तुम्हारी पात्रता देखकर ही तुम्हें शिष्य के रूप में स्वीकार किया है ।"
शतावधानी आचार्य के ये वचन सुनकर राजा विक्रमार्क ने निवेदन किया :
"आचार्यप्रवर! अष्टावधानी और दशावधानी में क्या भेद है?"
"पुत्र अष्टावधानी का अवधान दिक् (दिशाओं) में व्याप्त और उससे सीमित होता है जबकि दशावधानी का अवधान काल (दशा) में व्याप्त, और उससे सीमित होता है । दोनों ही इस तथ्य से अनभिज्ञ होते हैं कि दिक्-काल जिस चेतना में असंख्य देह-रूपों में उनके परिप्रेक्ष्य में व्यक्त अगत् की तरह भासित होते हैं वह चेतना स्वयं वैयक्तिक और समष्टि इन दो रूपों में तथा उन असंख्य देह-रूपों में व्यक्त होते हुए और उनका अधिष्ठान होते हुए भी उनसे विलक्षण है ।"
"गुरुवर! क्या इस प्रकार का बोध वैयक्तिक हो सकता है ?  क्या कोई व्यक्ति-विशेष इस अवधान का विषय हो सकता है? या यह अवधान किसी व्यक्ति-विशेष के द्वारा ग्रहण किया जा सकनेवाला विषय हो सकता है?"
"व्यवहार में जब ऐसा होता है तो वह व्यक्ति इस चेतना के दोनों रूपों को पहचानता है और उस विलक्षण मनःस्थिति में जगत् को जाग्रत्-स्वप्न की तरह अनुभव कर सकता है । इसलिए वह सारा प्रपञ्च उसके लिए केवल औपचारिक होता है ।"
"आचार्य ! जब मैं किसी प्रेत को आपकी आज्ञा होने पर बाँधकर यहाँ लाता हूँ तो वह मेरा ध्यान विचलित करने के लिए मुझसे कोई कथा कहता है जिससे अंत में कोई कठिन प्रश्न मेरे समक्ष प्रस्तुत करता है । पुनः वह कहता है कि यदि मैंने जानते-हुए भी उसके प्रश्न का उत्तर नहीं दिया तो मेरे सिर के सैकड़ों टुकड़े हो जाएँगे । यद्यपि मुझे उसके शब्दों से भय नहीं लगता किंतु यह कौतूहल अवश्य होता है कि यदि मैंने जानते-हुए भी उसके प्रश्न का उत्तर नहीं दिया तो क्या सचमुच मेरे सिर के सैकड़ों टुकड़े हो जाएँगे ?"
"हाँ वत्स, यह तो सत्य है । वास्तव में प्रेत, पितर और देवता भूत, भविष्य और वर्तमान को उसी प्रकार देख सकते हैं जैसे किसी स्फटिक-गोल (crystal-ball) से तान्त्रिक भूत, भविष्य और वर्तमान को देख लेते हैं । किंतु यह भूत, भविष्य और वर्तमान ’व्यक्ति’-चेतना के ही परिप्रेक्ष्य में आभासी स्तर पर सत्य प्रतीत होता है । ऐसे असंख्य व्यकि-चेतनाओं के असंख्य भूत, भविष्य और वर्तमान होने से उन सबका कोई सर्वनिष्ठ आश्रय नहीं है, अर्थात् ऐसे किसी स्वतंत्र जगत् का अस्तित्व नहीं है जिसे हर कोई ’संसार’ के रूप में अनुभव करता है ।"
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