Sunday, 13 November 2016

विस्मृत-कथा - 2.

विस्मृत-कथा - 2.
अष्टावधानी और शतावधानी
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(सिंहासन-बत्तीसी की कथा से प्रेरित, कल्पित और आधारित)
राजा विक्रमादित्य की सभा में दो पंडितों के बीच बड़ी स्पर्धा थी और दोनों ही राजा को प्रभावित करने के लिए हर संभव प्रयत्न करते थे ।
किंतु महाकवि कालिदास बिना किसी यत्न के ही राजा के प्रिय सभासद थे यह भी उन्हें अच्छी तरह ज्ञात था । इसका एक कारण यह भी था कि राजा और महाकवि दोनों माँ काली के भक्त थे ।
अष्टावधानी पंडित चौंसठ योगिनी की आराधना करता था जबकि दशावधानी शतयोगिनी की ।
अष्टावधानी पंडित ने आज सभा में एक नया कौतुक प्रस्तुत किया था ।
चतुःषष्टिवर्गरंजन नामक परंपरागत क्रीडा के नाम से प्रसिद्ध खेल को नए रूप में प्रस्तुत कर पाने के लिए वह राजा से न केवल पुरस्कार, बल्कि उसके मित्रवर्ग में सम्मिलित होने का सम्मान भी पाने की आशा रखता था ।
इस नए खेल की प्रेरणा उसे योगिनी-तंत्र के मण्डल की रचना से मिली थी ।
रचना-मण्डल के माध्यम से उसे योगिनी-तन्त्र के मूल-तत्वों का अनायास प्राकट्य हुआ ।
चार प्रमुख दिशाओं और उनके मध्य की दूसरी चार दिशाओं का ज्ञान तो प्रायः सभी वेदविदों और विद्वानों को होता ही है किंतु मातृका-सूत्र पर ध्यान करते हुए उसके समक्ष 64 दिशाओं की अधिष्ठात्री शक्तियों (योगिनियों) के बीजाक्षर जब प्रकट हुए तब वह विस्मय-विभोर और बहुत हर्षित हुआ । वे (बीजाक्षर) तत्काल ही उसे स्मरण भी हो गए क्योंकि वे मातृका के बीजाक्षरों से बने मंत्रों का विस्तार थे । इसे वह विशाला देवी कहता था । विशाला देवी का स्वरूप जब पुनः उसके स्वरूप प्रकट हुआ तो उसे अपने दर्शन की सत्यता पर संदेह करने का कारण भी न रहा ।
तब उसके चित्त में प्रचलित परंपरा के अनुसार उन 64 योगिनियों की आराधना करने का भाव जागृत हुआ और इस हेतु वह राजा विक्रम से आर्थिक सहायता पाने का अभिलाषी था ।
उसे नहीं पता था कि राजा को स्वयं भी उसके स्वप्न में उसकी इष्ट अधिष्ठात्री से इस ओर स्पष्ट संकेत प्राप्त हो चुका था किंतु वह उचित अवसर की प्रतीक्षा कर रहा था ।
अष्टावधानी और दशावधानी दोनों ही इस बारे में अनभिज्ञ थे कि राजा विक्रम के गुरु और काली-तन्त्र के आचार्य यद्यपि शतावधानी थे किंतु उन्होंने कभी इस रहस्य को किसी के समक्ष प्रकट नहीं होने दिया था ।
जिस समय अष्टावधानी अपनी सामग्री को लेकर सभा में आया और उसके प्रदर्शन के लिए राजा से अनुमति चाही तो राजा को वह स्वप्न स्मरण हो आया जिसमें उसने चारों दिशाओं में फैले उसके साम्राज्य के खण्डों (बलकों) को चतुःसृ फलकों के रूप में और अपने महल को उनके मध्य अवस्थित देखा था । राजा ने स्वयं ही चतुःसृ-यंत्र की योजना की और हर खण्ड (विशाल / वसाल / vassal) के विशपों पर उनके संचालन और परिरक्षण का दायित्व सौंपा । कालांतर में राजा ने इस यंत्र को कौतुकवश क्रीड़ा का रूप दिया जिससे चौसर का उद्भव हुआ ।
इस क्रीड़ा में सभी विशपों की रुचि थी क्योंकि वह राज्य के संचालन के लिए एक समग्र दृष्टिकोण सामने रखता था । विशपों को अपने अधिकार-क्षेत्र का स्वयं ही आकलन और निर्धारण करना होता था और एक खण्ड के विशप की मृत्यु हो जाने पर कोई अन्य योग्य विशप उसके पद पर नियुक्त किया जाता था । इस प्रकार विशपों की प्रोन्नति और उनके रिक्त पदों को सुनियोजित रीति से समझने में चतुःसृ-यंत्र राजा को बहुत उपयोगी था ।
यद्यपि राजा को स्वयं भी यह विदित न था कि इस यंत्र के सम्यक् स्थापना और पूजन से उसे पूरी पृथ्वी के साम्राज्य की भी प्राप्ति हो सकती थी किंतु राजा के शतावधानी गुरु से यह सच्चाई छिपी न थी ।
जब राजा ने अष्टावधानी पंडित की सामग्री और अनुष्ठान-विधि का अवलोकन किया तो उसे समझते देर न लगी कि अष्टावधानी के यंत्र-अनुष्ठान में और उसके चतुःसृ-यंत्र के मूल में एक ही प्रेरणा थी । इसलिए राजा ने हर्ष प्रकट करते हुए अष्टावधानी की प्रशंसा करते हुए उससे पूछा :
"मैं स्थूल स्वरूप में योगिनी-यंत्र की स्थापना और उसकी आराधना का अनुष्ठान करना चाहता हूँ । क्या तुम इसका पौरोहित्य करोगे?"
अष्टावधानी यह सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ और उसने राजा से आज्ञा लेकर महाकाल-वन क्षेत्र से बहुत दूर एक टीले (उत्तल) को इसके लिए उपयुक्त अनुभव किया और राजा से उस स्थल का निरीक्षण करने हेतु कहा ।
इस सारी गतिविधि पर दशावधानी की भी सूक्ष्म-दृष्टि थी और उसने विचार किया कि वह इसी तरह का एक उपक्रम रचेगा । संयोगवश राजा के सेनापति से उसकी निकटता थी और उसने अपने इस पूरे उपक्रम की योजना पर युद्ध-कौशल और रणनीति के संदर्भ में चिंतन किया । दशावधानी यद्यपि क्रमभंग का रूप था (क्योंकि ’9’ के अंक के पश्चात् अगला अंक 10 (1+9) एक क्रांति होता है जबकि ’आठ’ (2 x 2 x 2) का अंक पूर्ण होता है ।) किंतु उसकी दृष्टि अष्टावधानी के द्वारा प्रस्तावित मंडल-विधान से भिन्न थी । अष्ट-योगिनियों की मंडल-रचना का प्रयोजन उसके उद्देश्य के लिए पर्याप्त न था । वह ज्योतिष-योग के आधार पर 'काल' के सन्दर्भ में योगिनी-दशा की दृष्टि से योगिनी-तंत्र का प्रयोग करना चाहता था । इसलिए उसने तदनुसार शत -योगिनी मंडल का विधान योजित किया और उचित अवसर आने पर उसे राजा के समक्ष अवलोकन हेतु प्रस्तुत किया ।
राजा स्वयं भी ज्यौतिष का अभ्यास करता था और उसे अष्टावधानी के रचना-विधान और दशावधानी के रचना-विधान के बीच के अंतर और समानताओं को देखकर कौतूहल हुआ । जब उसने अपने आचार्य से इस बारे में निवेदन किया तो वे बोले :
विक्रम! दोनों के दृष्टिकोण भिन्न-भिन्न सन्दर्भों में ग्राह्य हैं ।  तुम्हारा कार्य यह सुनिश्चित करना है कि राज्य और प्रजा के हित के लिए कहाँ कौन सा उपयोगी है ।
तब राजा ने दोनों को पर्याप्त पुरस्कार दिया और दोनों को अपने-अपने तरीके से तंत्र-प्रयोग करने के लिए प्रोत्साहित किया ।
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पुत्तलिका ने राजा भोज से इतना कहकर प्रश्न किया :
"हे राजा ! क्या तुम्हारे लिए यह संभव होता कि तुम राजा विक्रम की तरह अपने दो परस्पर प्रतिस्पर्धी सभासदों के प्रति ऐसा निष्पक्ष न्याय कर पाते?"
पुत्तलिका के ये वचन सुनकर राजा भोज ने अपना पग पीछे खींच लिया और पुत्तलिका पुनः पूर्ववत काष्ठ-प्रतिमा सी निश्छल हो गयी ।
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(विशप > बिशप (bishop), बलक > बल-कः > bulk / block, कनिष्ठ > knight, वज्रीय > vizier , वज़ीर
राजा > इंद्र > वज्र > पायिक > pawn , रोध > rook >  A rook (♖ ♜ borrowed from Persian رخ, rokh),
The pieces in the play of chess.)
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