Tuesday, 30 July 2019

यन्त्रचालित,

कर्म की प्रेरणा 
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वैसे तो किसी भी कर्म / कार्य के होने में समय और परिस्थिति सर्वाधिक महत्त्व रखते हैं लेकिन मूलतः तो कर्म किए जाने के लिए जिन्हें मूल कारण कह सकते हैं वे इस प्रकार हैं :
1 प्रेरणा
2 संकल्प
3 इच्छा
4 आवश्यकता
और
5 बाध्यता
मनुष्य की स्थिति में पहले चार कारण अधिक प्रभावशाली होते हैं।
अन्य जीव प्रायः बाध्यता के ही कारण कर्म में संलग्न होते हैं।
किसी समाचार, प्रसंग या घटना को टीवी पर देखते हुए इनमें से कोई भी एक या अधिक कारण हमें कर्म करने के लिए प्रवृत्त कर सकते हैं।  हो सकता है कि हम चाय पीते हुए, खाना खाते हुए टीवी देख रहे हों या बस या ट्रेन में सफर करते हुए खिड़की से बाहर देख रहे हों, उपरोक्त चार कारणों में से किसी एक या अधिक कारण से हम किसी कर्म को करने के लिए तत्पर हो उठते हैं।
किसी कवि, लेखक या विचारक को जहाँ कोई नई कल्पना सूझती है तो किसी वैज्ञानिक को कोई नया विचार,  सिद्धांत।  किसी खिलाड़ी को खेल की नई तकनीक, तो राजनीतिक व्यक्ति को कोई नई ख़ुराफ़ात भी सूझ सकती है। यहाँ तक कि किसी संगीतज्ञ को कोई नई धुन भी। अच्छे या बुरे व्यक्ति को भी बैठे-बैठे ही कोई नया ख़याल आ सकता है जिसे वह वर्तमान में या निकट या सुदूर भविष्य में पूरा करने के बारे में सोच सकता है।
1 प्रेरणा प्रायः संस्कार से ही आती है और संस्कार अभ्यास से ही दृढ़ होता है।
2 संकल्प से ही अभ्यास होता है।
3 अभ्यास करने के लिए इच्छा होना ज़रूरी होता है।
4 इच्छा आवश्यकता अनुभव होने पर ही जाग्रत होती है।
5 बाध्यता इन चारों से भिन्न प्रकार का कारण है क्योंकि वह मनुष्य या किसी भी दूसरे जीव को भी यंत्र की तरह कार्य करने के लिए बाध्य करती है।
बाध्यता पहले चार कारणों
1 प्रेरणा
2 संकल्प
3 इच्छा
और
4 आवश्यकता
का मिला-जुला प्रभाव भी हो सकता है।
किसी भी कर्म या कार्य का औचित्य या अनौचित्य, उसे हेय या श्रेयस्कर समझा जाना भी व्यक्ति-व्यक्ति, समूह-समूह, समुदाय-समुदाय और वर्ग-वर्ग के अनुसार तय होता है इसलिए हर कोई किसी भी विशिष्ट कार्य का मूल्यांकन अपने अपने ढंग से निंदनीय, और कोई और कर्तव्य या उत्तरदायित्व के रूप में करता है।
मनुष्य चूँकि समूह में रहनेवाला एक प्राणी है और इसलिए समूह की मानसिकता ही यह तय करती है कि कौन सा कार्य किस प्रकार का है।
इसी आधार पर समाज में स्पष्ट या अस्पष्ट विभाजन-रेखाओं सहित  भिन्न-भिन्न दृष्टि, आचार-विचार, संस्कार आदि रखने वाले अनेक समूह होते हैं।  ये सभी समूह किसी न किसी सामूहिक प्रेरणा से प्रेरित होकर अस्तित्व में आते हैं और यह प्रेरणा ही उन्हें एकजुट बनाए रखती है।    
यन्त्रचालित, तन्त्रचालित, मन्त्रचालित 
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हर व्यक्ति, हर समूह, हर परिवार, हर वर्ग तथा हर समुदाय; जिसे राष्ट्र भी कहा जा सकता है, भिन्न भिन्न तलों और स्तरों पर अलग अलग तरह से परिभाषित किया जाता है इसलिए उनमें से किसी को सुनिश्चित रूप से परिभाषित या उनके स्वरूप का सही-सही और वास्तविक निर्धारण करना कठिन है।
इसलिए, या शायद इसीलिए कोई भी व्यक्ति या समूह कभी यन्त्रचालित, कभी तन्त्रचालित और कभी मन्त्र-चालित या इनके मिले-जुले ढंग से कार्य करता है फिर वह उसकी प्रेरणा, संकल्प, इच्छा या आवश्यकता हो।
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इसे प्रारब्ध incipient, नियति destiny, प्रकृति nature, स्वभाव behavior या चरित्र character भी कहा जाता है।
कर्म का वर्गीकरण पुनः अतीत, वर्तमान और आगामी के रूप में भी किया जाता है, और चूँकि ये तीनों परस्पर आश्रित जान पड़ते हैं इसलिए ये तीनों एक ही वस्तु (काल) के प्रतीत होनेवाले तीन प्रकार / पक्ष मात्र हैं। 
यह समझ पाना कठिन है कि किस प्रकार न केवल अतीत ही वर्तमान और भविष्य को प्रभावित करता है, बल्कि वर्तमान और भविष्य भी अतीत को, और वर्तमान भी शेष दोनों को उतना ही प्रभावित करते हैं।
इस प्रकार काल वही व्यतीत न होनेवाला तत्व (Principle) है जिसे हम व्यतीत होनेवाले समय की तरह -
अतीत, वर्तमान और आगामी के रूप में वर्गीकृत कर उसे ही पूर्ण सत्य समझ बैठते हैं। 
फिर भाग्य fate क्या है?
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