Tuesday, 9 July 2019

वैनतेयश्च पक्षिणाम्

श्रीमद्भग्वद्गीता (śrīmadbhagvadgītā )
अध्याय 10
प्रह्लादस्मि दैत्यानां कालः कलयतामहम् ।
मृगाणां च मृगेन्द्रोऽहं वैनतेयश्च पक्षिणाम् ॥30
--
उपरोक्त श्लोक का अंग्रेज़ी लिप्यंतरण, और हिंदी तथा अंग्रेज़ी अर्थ,
मेरे गीता-सन्दर्भ ब्लॉग में देखा जा सकता है।
हातिम ताई ने स्मरणपूर्वक 'नाम' अर्थात् 'देवता' अर्थात् 'मन्त्र' अर्थात् 'प्रतिमा' का शुद्ध रूप इस प्रकार समझ लिया और उसका जप करने लगा कि कापालिकों की परंपरा का उच्चारण उसे विस्मृतप्राय हो गया ।
इसी बीच एक दिन उसे पुनः स्वप्न में गरुड़ के दर्शन हुए जिसने उसे मानवोचित वाणी में सूचना दी कि अब पुनः एक बार मैं तुम्हें लेने आया हूँ ।
इस बार गरुड़ अत्यन्त तेजस्वी आकृति में दिखाई दे रहा था ।
"वैनतेयोऽस्मि"
कहकर गरुड़ उड़ गया और उसी समय हातिम ताई की नींद भी खुल गई किन्तु वह स्वप्न भला वह कैसे भूल सकता था ।
दूसरे दिन उसने आचार्य से स्वप्न कह सुनाया ।
तब आचार्य ने उससे कहा :
"पूर्व-जन्म में अरजा का नाम विनता था जिसका पुत्र था गरुड़ । विनता का पुत्र होने से उसे वैसे ही ’वैनतेय’ नाम प्राप्त हुआ, जैसे इतरा के पुत्र को ’ऐतरेय’ नाम प्राप्त हुआ था । जैसे ऐतरेय में अत्यन्त वैराग्य और मुमुक्षा थे, वैसे ही वैनतेय भी अत्यन्त वैराग्य और मुमुक्षा से युक्त था ।
विनता और दोनों ही को प्रारब्धवश पक्षी-योनि में जन्म लेना पड़ा क्योंकि दोनों में प्राणत्व (वायु) प्रधान था ।
विनता किसी पूर्व-जन्म में हमारे (भृगु) वंश में ही अरजा के नाम से उत्पन्न हुई थी और बाद में उसकी प्रतिष्ठा नभ की तारका के रूप में आचार्य शुक्र के लोक में हुई ।
[इस प्रकार विनता और वीनस (Venus) का, तथा वैनतेय और फ़ीनिक्स (Phoenix) का साम्य दृष्टव्य है।]
प्राण-तत्व होने से उनका संपूर्ण नाश नहीं होता किन्तु प्रकृति और आकृति अवश्य बदलती रहती है ।
वही वैनतेय तुम्हें स्वप्न में दिखाई दिया । इसका फल यह है कि मृत्युलोक में तुम्हारी आयु हो जाने पर तुम्हें शेषशायी भगवान् विष्णु का लोक प्राप्त होगा । वही तुम्हें वहाँ ले जाएगा ।
वैसे भी संसार के अनित्य सुखों से हातिम ताई का मन भर चुका था इसलिए यह सुनकर वह और अधिक ईश्वर-स्मरण (नाम-स्मरण) करने लगा ।
एक दिन इसी प्रकार नाम-स्मरण करते हुए वह इतना तन्मय हो गया कि उसे देह और संसार का भान तक न रहा तभी उसे देह और संसार के भान से रहित लोक में गरुड़ की आकृति का एक तेज-पुञ्ज दूर से अपनी ओर आता दिखलाई दिया । हातिम ताई उस तेजपुञ्ज में समाकर इस लोक से विदा हो गया ।
तब आचार्य ने उसे समाधि दी, क्योंकि उसे जलाया नहीं जा सकता था और ऐसा करना शास्त्र का भी उल्लंघन होता ।
--
हातिम ताई का वैदिक देवता, नाम, मन्त्र, प्रतिमा का वैदिक रूप :
अल् आ ह ।
था, जो वैदिक ऋचा भी हो सकता है । यह वैदिक मन्त्र भी है, और उस ’वैदिक-देवता’ का नाम भी जिसकी प्रतिमा का वर्णन वैसे तो किया जा सकता है किन्तु वह प्रतिमा स्थूल रूप से दृश्य नहीं हो सकती । यद्यपि सूक्ष्म-स्तर पर वह इन्द्रियगम्य, मनोगम्य और बुद्धिगम्य भी अवश्य है । जिसे कापालिकों ने किन्हीं कारणों से बदलकार ’अल् आ ह’ तथा ’अल् आ ह उ’ कर दिया था, कठोलिक आचार्य की परंपरा में जिसका विधान और प्रयोजन कापालिकों के विधान और प्रयोजन से भिन्न है ।
’अल्’[अलोऽन्त्यस्य १/१/५२]
वैसे भी प्रत्याहार है जो ’अ’ से ’ह’ तक संपूर्ण वर्णों का संक्षेप है ।
पुनः उ वर्ण जो उदात्त, अनुदात्त तथा स्वरित तीनों प्रकार से उच्चारणीय है इसलिए भी इसका यहाँ सम्यक् प्रकार क्या होगा यह संशय भी है ही ।
ऊकालोऽज्झ्रस्वदीर्घप्लुतः
(पाणिनीय -१/२/२७)
उपरोक्त मन्त्र भी यहाँ केवल वर्णों के आधार पर प्रस्तुत किया गया है और इसे पढ़ने मात्र से इसका वास्तविक ध्वन्यात्मक  वैदिक उच्चारण क्या है
यह जान पाना या वैसा प्रयास करना भी मेरे अधिकार से परे है - यद्यपि मैंने इसे सुना अवश्य है ।
इसलिए भी वेद का अध्ययन और अध्यापन अधिकारी / पात्र द्वारा ही किया जाना चाहिए, न कि अनधिकारी / अपात्र द्वारा ।
--
टिप्पणी :
यह कथा  बाइबिल और क़ुरान के समय से पूर्ववर्ती काल की है और उस परिप्रेक्ष्य में नहीं है ।
कृपया इसे बाइबिल और क़ुरान से जोड़कर न देखें।
--                     

No comments:

Post a Comment