धर्मयुद्ध, राजनीति, धर्म, भारत
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धर्म के बारे में राजनीति से प्रेरित बुद्धिजीवियों की दृष्टि 'राजसी' प्रकार की होती है।
गीता अध्याय 18 के श्लोक 29, 30, 31 तथा 32 में धृति-विषयक 'धर्म' के सात्त्विक, राजसी और तामसी प्रकारों को स्पष्ट किया गया है।
मनुष्य-जीवन के धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों में से धर्म प्रथम है।
धर्म का अर्थ है जीवन की प्रेरक शक्ति जो जीवमात्र का प्रकृतिप्रदत्त स्वभाव है।
जीवन जीने की अदम्य चाह, जीवन को बचाने और संरक्षित करने, फैलने-फूलने की प्रवृत्ति ही शरीर-धर्म है। प्राणिमात्र में यह जन्मजात होती ही है। इसी प्रवृत्ति से उसमें भूख-प्यास, जागृति-निद्रा आदि पैदा होते हैं। इसी प्रवृत्ति से इच्छा-द्वेष, राग-भय भी पैदा होते हैं। यही अर्थ (लाभ), काम -संतति की चाह, कामना तथा अंततः मुक्ति / मोक्ष ' ईश्वर-प्राप्ति में फलित होती है।
सुखानुशयी रागः।।7
दुःखानुशयी द्वेषः।।8
(पातञ्जल योगसूत्र साधनपाद)
इस प्रकार सुख-दुःख (जैसे प्रतीत होते हैं) उनसे जुड़ाव होने की या दूरी होने की भावना प्राणिमात्र में जन्मजात होती है। पर्याप्त जीवन जी चुकने के बाद ही उसे स्पष्ट हो पाता है कि सभी विषय सदा (नित्य) सुखद या दुःखद नहीं हो सकते। तब वह भिन्न-भिन्न तरीकों से जीवन में अधिकतम सुख कैसे पाया जाए और दुःख को कैसे न्यूनतम किया जाए इसका प्रयत्न करने लगता है। चूँकि वह इस सत्य से अनभिज्ञ होता है कि सुख और दुःख परस्पर अविच्छिन्न हैं इसलिए उसे सुख-दुःख की दुविधा से मुक्त नहीं हो पाता।
बुद्धिजीवी भी चाहे वह राजनीतिक हो या राजनीति से दूर रहनेवाला हो, इस दुविधा का शिकार होता है।
जैसा कि ऊपर कहा गया, गीता में 'बुद्धि की भिन्नता के कारण पैदा हुई धृति' (-धर्म की समझ) भी तीन प्रकार की कही गयी है जो इस प्रकार है :
बुद्धेर्भेदं धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविधं शृणु।
प्रोच्यमानमशेषेण पृथक्त्वेन धनञ्जय ।।29
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये।
बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी।।30
यया धर्ममधर्मं च कार्यं चाकार्यमेव च।
अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी।।31
अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसावृता।
सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी।।32
[उपरोक्त श्लोकों के अंग्रेजी लिप्यंतरण और हिंदी तथा अंग्रेजी अर्थ को देखना चाहें तो मेरे ही गीता-विषयक ब्लॉग https://geetaasandarbha.blogspot.com / में देख सकते हैं।]
भारतवर्ष पर विदेशियों ने 700 वर्षों से अधिक समय तक राज्य किया।
वर्ष 1947 में हमारे देश के शासन की बागडोर हमारे हाथों में आई।
देश के स्वघोषित राजनीतिज्ञ भाग्य-विधाताओं ने राष्ट्र के विभाजन की कीमत पर यह सौदा किया।
मुसलमानों को पाकिस्तान दिया गया, जबकि हिन्दुओं को भारतवर्ष की शेष भूमि हस्तांतरित की गयी।
पाकिस्तान ने इस्लाम को राज्य का धर्म घोषित किया और इस प्रकार उसे इस्लामिक राष्ट्र की पहचान दी, जबकि भारत (की सरकार) ने देश को हिन्दू-राष्ट्र घोषित करने से परहेज़ किया।
पाकिस्तान का निर्माण और भारत को हिन्दू-राष्ट्र की पहचान न दिया जाना, दोनों घटनाएँ मुस्लिमों के तुष्टिकरण (appeasement) के ही दो पक्ष हैं ।
इसके बाद पाकिस्तान अपने देश में धीरे-धीरे मुसलमानों के अतिरिक्त दूसरे हर समुदाय का दमन करता रहा जबकि वर्ष 1986 में भारत ने स्वयं को संवैधानिक रूप से भी 'धर्मनिरपेक्ष तथा समाजवादी' घोषित कर दिया।
धार्मिक स्वतन्त्रता के अधिकार के आधार पर अपने धर्म का प्रचार करने छूट सभी धर्मों के लोगों को दी गयी।किन्तु इस 'नीति' में इस तथ्य की जान-बूझकर या लापरवाही तथा असावधानी से उपेक्षा कर दी गयी कि यद्यपि भारत ने हिन्दू-मुस्लिम दो पृथक राष्ट्रों की मान्यता स्वीकार कर ली थी, पाकिस्तान के लिए यह विभाजन एक और बड़े कुचक्र की भूमिका था।
जिन्ना का दो राष्ट्रों का सिद्धान्त इस्लाम के 'दार-उल-इस्लाम' तथा 'दार-उल-हर्ब' के उसूल पर आधारित था जिसकी बुनियाद इस मान्यता और लक्ष्य से प्रेरित है कि पूरे विश्व को ही अंततः इस्लाम के शासन के दायरे में लाना है। जो स्थान / देश इस्लामिक हैं उन्हें 'दार-उल-इस्लाम' का हिस्सा माना जाता है जहाँ यह लक्ष्य प्राप्त हो गया, लेकिन जो स्थान / देश इस्लामिक नहीं हैं उन्हें 'दार-उल-हर्ब' कहा गया; -याने 'वे शत्रुदेश' जिनसे तब तक युद्ध करना है जब तक कि वहाँ इस्लामिक राज्य का शासन स्थापित नहीं हो जाता।
भारत में और दुनिया भर में इस्लाम का दो राष्ट्रों का सिद्धांत यही है जिससे आम हिन्दू तो क्या बड़े बड़े राजनीतिज्ञ और बुद्धिजीवी भी अनभिज्ञ हैं या अनभिज्ञ होने का नाटक करते हैं ताकि तात्कालिक रूप से 'हिन्दू-मुस्लिम भाई चारा', 'गंगा-जमनी तहजीब', और 'मिली-जुली संस्कृति' (composite-culture) का जोर-शोर से दावा करते हुए हिन्दुओं को मूर्ख बनाया जा सके, और वे छद्म रूप से मदरसों और राजनीति के माध्यम से 'दार-उल-इस्लाम' के लिए मुसलमानों को तैयार करते रहें। 'जेहाद' इस्लाम के पाँच बुनियादी उसूलों में से एक है जिसकी शिक्षा प्रत्येक मुसलमान को दी जाती है। जब तक इस्लाम में 'जेहाद' को उचित माना जाता है, काफ़िर, जेहाद, जिज़िया तथा धिम्मी जैसे शब्द इस्लाम का हिस्सा हैं, तब तक तब तक इस्लाम से कोई समझौता किया जाना राष्ट्र के लिए घोर विनाश का कारण है।
यद्यपि यह भी स्पष्ट है कि जो राष्ट्र अपने आपको इस्लामिक कहते हैं उन तमाम राष्ट्रों में भी आपस में और अपने-अपने देश के भीतर भी परस्पर घमासान हिंसक युद्ध बदस्तूर जारी हैं।
इस स्थिति में एक औसत आम भारतीय के लिए क्या करना श्रेयस्कर है ताकि साँप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे !
यही आज सभी भारतीयों और विशेष रूप से हिन्दुओं के लिए एक गंभीर चुनौती है।
निष्कर्ष यही है कि या तो मिट जाओ, या यद्ध करो, या इस्लाम को भारतवर्ष के और दूसरे भी सभी गैर-इस्लामिक देशों के लिए राष्ट्रहित के लिए जिस किसी प्रकार से संभव हो सके, अनुकूल बनाओ।
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यही वास्तविक आपद्धर्म है जो धर्मसंकट को दूर कर सकता है।
यह 'जेहाद' नहीं धर्मयुद्ध है।
गोस्वामी तुलसीदास जी की एक चौपाई याद आती है :
धीरज धरम मीत अरु नारी।
आपत्काल परखिए चारी।।
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धर्म के बारे में राजनीति से प्रेरित बुद्धिजीवियों की दृष्टि 'राजसी' प्रकार की होती है।
गीता अध्याय 18 के श्लोक 29, 30, 31 तथा 32 में धृति-विषयक 'धर्म' के सात्त्विक, राजसी और तामसी प्रकारों को स्पष्ट किया गया है।
मनुष्य-जीवन के धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों में से धर्म प्रथम है।
धर्म का अर्थ है जीवन की प्रेरक शक्ति जो जीवमात्र का प्रकृतिप्रदत्त स्वभाव है।
जीवन जीने की अदम्य चाह, जीवन को बचाने और संरक्षित करने, फैलने-फूलने की प्रवृत्ति ही शरीर-धर्म है। प्राणिमात्र में यह जन्मजात होती ही है। इसी प्रवृत्ति से उसमें भूख-प्यास, जागृति-निद्रा आदि पैदा होते हैं। इसी प्रवृत्ति से इच्छा-द्वेष, राग-भय भी पैदा होते हैं। यही अर्थ (लाभ), काम -संतति की चाह, कामना तथा अंततः मुक्ति / मोक्ष ' ईश्वर-प्राप्ति में फलित होती है।
सुखानुशयी रागः।।7
दुःखानुशयी द्वेषः।।8
(पातञ्जल योगसूत्र साधनपाद)
इस प्रकार सुख-दुःख (जैसे प्रतीत होते हैं) उनसे जुड़ाव होने की या दूरी होने की भावना प्राणिमात्र में जन्मजात होती है। पर्याप्त जीवन जी चुकने के बाद ही उसे स्पष्ट हो पाता है कि सभी विषय सदा (नित्य) सुखद या दुःखद नहीं हो सकते। तब वह भिन्न-भिन्न तरीकों से जीवन में अधिकतम सुख कैसे पाया जाए और दुःख को कैसे न्यूनतम किया जाए इसका प्रयत्न करने लगता है। चूँकि वह इस सत्य से अनभिज्ञ होता है कि सुख और दुःख परस्पर अविच्छिन्न हैं इसलिए उसे सुख-दुःख की दुविधा से मुक्त नहीं हो पाता।
बुद्धिजीवी भी चाहे वह राजनीतिक हो या राजनीति से दूर रहनेवाला हो, इस दुविधा का शिकार होता है।
जैसा कि ऊपर कहा गया, गीता में 'बुद्धि की भिन्नता के कारण पैदा हुई धृति' (-धर्म की समझ) भी तीन प्रकार की कही गयी है जो इस प्रकार है :
बुद्धेर्भेदं धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविधं शृणु।
प्रोच्यमानमशेषेण पृथक्त्वेन धनञ्जय ।।29
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये।
बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी।।30
यया धर्ममधर्मं च कार्यं चाकार्यमेव च।
अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी।।31
अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसावृता।
सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी।।32
[उपरोक्त श्लोकों के अंग्रेजी लिप्यंतरण और हिंदी तथा अंग्रेजी अर्थ को देखना चाहें तो मेरे ही गीता-विषयक ब्लॉग https://geetaasandarbha.blogspot.com / में देख सकते हैं।]
भारतवर्ष पर विदेशियों ने 700 वर्षों से अधिक समय तक राज्य किया।
वर्ष 1947 में हमारे देश के शासन की बागडोर हमारे हाथों में आई।
देश के स्वघोषित राजनीतिज्ञ भाग्य-विधाताओं ने राष्ट्र के विभाजन की कीमत पर यह सौदा किया।
मुसलमानों को पाकिस्तान दिया गया, जबकि हिन्दुओं को भारतवर्ष की शेष भूमि हस्तांतरित की गयी।
पाकिस्तान ने इस्लाम को राज्य का धर्म घोषित किया और इस प्रकार उसे इस्लामिक राष्ट्र की पहचान दी, जबकि भारत (की सरकार) ने देश को हिन्दू-राष्ट्र घोषित करने से परहेज़ किया।
पाकिस्तान का निर्माण और भारत को हिन्दू-राष्ट्र की पहचान न दिया जाना, दोनों घटनाएँ मुस्लिमों के तुष्टिकरण (appeasement) के ही दो पक्ष हैं ।
इसके बाद पाकिस्तान अपने देश में धीरे-धीरे मुसलमानों के अतिरिक्त दूसरे हर समुदाय का दमन करता रहा जबकि वर्ष 1986 में भारत ने स्वयं को संवैधानिक रूप से भी 'धर्मनिरपेक्ष तथा समाजवादी' घोषित कर दिया।
धार्मिक स्वतन्त्रता के अधिकार के आधार पर अपने धर्म का प्रचार करने छूट सभी धर्मों के लोगों को दी गयी।किन्तु इस 'नीति' में इस तथ्य की जान-बूझकर या लापरवाही तथा असावधानी से उपेक्षा कर दी गयी कि यद्यपि भारत ने हिन्दू-मुस्लिम दो पृथक राष्ट्रों की मान्यता स्वीकार कर ली थी, पाकिस्तान के लिए यह विभाजन एक और बड़े कुचक्र की भूमिका था।
जिन्ना का दो राष्ट्रों का सिद्धान्त इस्लाम के 'दार-उल-इस्लाम' तथा 'दार-उल-हर्ब' के उसूल पर आधारित था जिसकी बुनियाद इस मान्यता और लक्ष्य से प्रेरित है कि पूरे विश्व को ही अंततः इस्लाम के शासन के दायरे में लाना है। जो स्थान / देश इस्लामिक हैं उन्हें 'दार-उल-इस्लाम' का हिस्सा माना जाता है जहाँ यह लक्ष्य प्राप्त हो गया, लेकिन जो स्थान / देश इस्लामिक नहीं हैं उन्हें 'दार-उल-हर्ब' कहा गया; -याने 'वे शत्रुदेश' जिनसे तब तक युद्ध करना है जब तक कि वहाँ इस्लामिक राज्य का शासन स्थापित नहीं हो जाता।
भारत में और दुनिया भर में इस्लाम का दो राष्ट्रों का सिद्धांत यही है जिससे आम हिन्दू तो क्या बड़े बड़े राजनीतिज्ञ और बुद्धिजीवी भी अनभिज्ञ हैं या अनभिज्ञ होने का नाटक करते हैं ताकि तात्कालिक रूप से 'हिन्दू-मुस्लिम भाई चारा', 'गंगा-जमनी तहजीब', और 'मिली-जुली संस्कृति' (composite-culture) का जोर-शोर से दावा करते हुए हिन्दुओं को मूर्ख बनाया जा सके, और वे छद्म रूप से मदरसों और राजनीति के माध्यम से 'दार-उल-इस्लाम' के लिए मुसलमानों को तैयार करते रहें। 'जेहाद' इस्लाम के पाँच बुनियादी उसूलों में से एक है जिसकी शिक्षा प्रत्येक मुसलमान को दी जाती है। जब तक इस्लाम में 'जेहाद' को उचित माना जाता है, काफ़िर, जेहाद, जिज़िया तथा धिम्मी जैसे शब्द इस्लाम का हिस्सा हैं, तब तक तब तक इस्लाम से कोई समझौता किया जाना राष्ट्र के लिए घोर विनाश का कारण है।
यद्यपि यह भी स्पष्ट है कि जो राष्ट्र अपने आपको इस्लामिक कहते हैं उन तमाम राष्ट्रों में भी आपस में और अपने-अपने देश के भीतर भी परस्पर घमासान हिंसक युद्ध बदस्तूर जारी हैं।
इस स्थिति में एक औसत आम भारतीय के लिए क्या करना श्रेयस्कर है ताकि साँप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे !
यही आज सभी भारतीयों और विशेष रूप से हिन्दुओं के लिए एक गंभीर चुनौती है।
निष्कर्ष यही है कि या तो मिट जाओ, या यद्ध करो, या इस्लाम को भारतवर्ष के और दूसरे भी सभी गैर-इस्लामिक देशों के लिए राष्ट्रहित के लिए जिस किसी प्रकार से संभव हो सके, अनुकूल बनाओ।
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यही वास्तविक आपद्धर्म है जो धर्मसंकट को दूर कर सकता है।
यह 'जेहाद' नहीं धर्मयुद्ध है।
गोस्वामी तुलसीदास जी की एक चौपाई याद आती है :
धीरज धरम मीत अरु नारी।
आपत्काल परखिए चारी।।
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