Monday, 8 July 2019

Last days of Hatim Tai

हातिम ताई : अन्तिम समय
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ग्रीस (गिरीश) देश में रहते हुए हातिम ताई ने उतनी ही संस्कृत सीखी जितने से वह दूसरे लोगों से अच्छी तरह से बातचीत कर सकता था । वास्तव में उसने स्थानीय प्राकृत भाषा भर सीखी थी जो संस्कृत की सज्ञात -cognate मात्र थी । उसमें जिन शब्दों का प्रयोग किया जाता था उनकी उत्पत्ति संस्कृत के मूल शब्दों से हुई थी ऐसा लग सकता है, किन्तु यह सही नहीं है ।
क्योंकि पूरी धरती पर ही मनुष्य द्वारा बोली जानेवाली सभी भाषाएँ वाणी के व्याकरण का पालन करती हैं, -न कि संस्कृत के व्याकरण का । किसी भी भाषा का व्याकरण चूँकि ’पौरुषेय’ (मनुष्य-निर्मित) होता है, इसलिए उस भाषा के पर्याप्त विकसित हो जाने के बाद ही प्रचलित रूप से सर्वसामान्य नियमों और रूढ़ियों के आधार पर सुनिश्चित किया जाता है । दूसरी ओर संस्कृत का व्याकरण वेद की ही तरह ’अपौरुषेय’ (ईश्वर-रचित) होने से ईश्वर की ही तरह नित्य और सनातन, शाश्वत और अमर है ।
संस्कृत के इस व्याकरण को यद्यपि इन्द्र, चन्द्र, काशकृत्स्न, कुमार (स्कन्द), शाकटायन, सारस्वत, अपिशल एवं शकल ने अपने-अपने नियमों से अभिव्यक्त किया किन्तु मनुष्य लोक में उनका स्वरूप क्रमशः भौतिक स्थूल और सूक्ष्म विज्ञान (Physical Science- Physics), रसायन स्थूल और सूक्ष्म विज्ञान (Chemistry) इन दो रूपों में इन्द्र द्वारा ही प्रकाशित किया गया । यदु अर्थात् चन्द्र ने स्मृति के आधार पर इसका संकलन किया जो इन्द्रकृत ऐन्द्र-व्याकरण से नितान्त भिन्न रीति से हुआ । इस व्याकरण का ज्ञान सर्वप्रथम देवलोक में बृहस्पति से इन्द्र को प्राप्त हुआ, जबकि (मनुष्य के) मृत्युलोक में चन्द्र को यही ज्ञान सूर्य से प्राप्त हुआ । यद्यपि इन्द्र को अमर कहा जाता है किन्तु ऐसा कहना औपचारिक है । इन्द्र की आयु यद्यपि मनुष्य की आयु से कोटिगुनी अधिक है, किन्तु वह भी अन्ततः परमात्मा में एकीभूत हो जाता है, या पुण्यों के भोग के उपरान्त पुनः मनुष्य की तरह जन्म लेता है । चन्द्र का जन्म उसी तरह पृथ्वी से हुआ जैसे कुमार अर्थात् भौम का हुआ । मृत्युलोक में सूर्य ही इन्द्र है जबकि चन्द्र सूर्य से प्रकाश प्राप्त करता है और भौम स्व-ज्योतित है ।
शाकटायन उन राजाओं, व्यापारियों की भाषा का व्याकरण हुआ जो अनेक रथों से आवागमन अथवा बड़े-बड़े वाहनों / नौकाओं से वस्तुओं आदि का परिवहन (नौवहन -नौका से आना जाना, वहन -- बहना, जिससे अंग्रेज़ी के नेवी, नवल, नेविगेशन -Navy, naval, navigation, nautical आदि शब्द बनते हैं ।) करते हैं ।
सारस्वत ब्राह्मी तथा शारदा लिपियों में लिखी जानेवाली भाषाओं का व्याकरण है जिसका प्रयोग प्रायः उन सभी भाषाओं पर लागू होता है जिन्हें बाँए से दाईं ओर लिखा जाता है । इनमें से कुछ केवल स्वनिक (स्वर-आधारित अर्थात् Phonetic फ़ोनेटिक) तो शेष स्वरलिपि-आधारित (फ़ोनेटिक एवं रूपिम figurative) होती हैं ।
हातिम ताई का भाषा-ज्ञान केवल वाणी (के प्रयोग) -बोलने तक सीमित था ।
यद्यपि उस आश्रम में ताल-पत्र, भोज-पत्र और वस्त्र पर लिखे जानेवाले संस्कृत के अनेक ग्रंथ थे और ब्राह्मी लिपि में लिखी गई अनेक मृत्तिकामुद्राएँ (tablets, टेब्लेट्स) भी थीं, किन्तु वे सब हातिम ताई के लिए किसी उपयोग की नहीं थी । ब्राह्मी में लिखी चित्रलिपि के कुछ संकेतों को वह अवश्य समझ सकता था पर उससे अधिक कुछ नहीं । (इन्हीं वर्णों से बाद में भाषा लिखने की कोणीय-प्रणाली --कोनिकल-क्यूनिक- cuneiform  स्क्रिप्ट--बनी जिसका और विकास होकर फिनीशियन Phoenician-लिपि अस्तित्व में आई । ’अरजा’ के वीनस के रूप में हुए पुनर्जन्म से फ़ीनिक्स -- वीनस - सरस्वती - ब्राह्मी - शारदा -- विनीशियन - फिनीशियन / Phoenician से ही सुमेरियन Sumerian ही उन सारी लिपियों का आधार थी जो प्रागैतिहासिक काल में प्रयुक्त होती थीं और प्रायः सभी को दाएँ से बाएँ लिखा जाता था ।  फ़ीनिक्स (Phoenix) वही गरुड़ है जो मरकर अग्नि में जलकर भस्म होकर पुनः अग्नि से ही जन्म लेता है । संगीत की स्वरलिपि भी इसी लिपि और वर्णों / स्वरों के संकेत पर निर्धारित की गई जिसे ग्रथित / ’गोठिक’ Gothic रूप प्राप्त हुआ । यद्यपि  ग्रथित / ’गोठिक’ Gothic रूप में भाषा को बाएँ से दाएँ लिखा जाता रहा, क्योंकि वही वेद के लिखने की रीति है । वेद का ही एक प्रकार है ’साम’ जो ’सं’ से व्युत्पन्न है और इसी प्रकार संगीत का पर्याय है । इसी ’साम’ की वर्तनी spelling को कठोलिकों ने अपने प्रयोजन से परिवर्तित कर ’Psalm’ के रूप में लिखना प्रारंभ किया किन्तु इससे उच्चारण तथा अर्थ अपरिवर्तित ही रहा । यदि इस समय का युक्तपश्य-न्याय -- juxtapose-- कर काल-निर्धारण करें, तो वह संभवतः महाभारत युद्ध के कुछ सौ वर्षों के बाद का रहा होगा ।)
किन्तु इस बीच हातिम ताई के लिए सर्वाधिक रोमाञ्चक यदि कुछ था तो वह था उसका यज्ञोपवीत-संस्कार जिसमें आचार्य ने उसे एक साथ नाम-दीक्षा तथा मन्त्र-दीक्षा दी थी । जैसा कि किसी भी वैदिक देवता का स्वरूप नाम, मन्त्र, वर्ण (प्राण) और प्रतिमा इन चार प्रकारों में होता है, उसे जो नाम / मन्त्र दिया गया था यद्यपि वह कठोलिक संप्रदाय से उसे प्राप्त हुआ था किन्तु उसे बहुत आश्चर्य तब हुआ था जब उसे स्मरण हुआ कि इसे तो वह कापालिकों के बीच रहते हुए प्रायः सुना करता था । उसे स्मरण करते हुए और उसका उच्च्चारण करते हुए उसने आचार्य से जब प्रश्न किया कि जिसे उसने कापालिकों के बीच प्रायः सुना था क्या यह वही मन्त्र है?
जब उसने इस प्रकार कहते हुए आचार्य से इस मन्त्र के तात्पर्य की जिज्ञासा की तो उन्होंने उससे कहा :
"किसी भी मन्त्र के अर्थ की जिज्ञासा कभी मत करो । तन्त्र, मन्त्र और यन्त्र का विधान और प्रयोजन होता है । यही उनका महत्व है ।"
तब हातिम ताई ने पूछा :
"मुझे दिए गए मन्त्र का विधान और प्रयोजन क्या है?"
तब आचार्य ने हातिम ताई से मन्त्र का पुनः वैसा ही शुद्ध उच्चारण करने के लिए कहा जैसा कि उनके मुख से इसे उसने सुना था ।
हातिम ताई ने इसे निर्दोष रीति से यथावत् पुनः सुना दिया ।
अब तुम उस मन्त्र को भूल जाओ और पुनः कभी उसका उच्चारण भी मत करना ।
हातिम ताई को तुरंत ही स्पष्ट हुआ कि कापालिकों द्वारा प्रयुक्त किया जानेवाला उच्चार इस मन्त्र से बहुत कुछ मिलता जुलता है, फिर भी थोड़ा सा अलग भी अवश्य है ।
क्या था वह नाम, मन्त्र, देवता और देवता की प्रतिमा?
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--क्रमशः--             

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