Tuesday, 16 July 2019

सत्य का सत्य

गार्ग्य-अजातशत्रु संवाद 
--
बृहदारण्यक उपनिषद् में द्वितीय अध्याय के प्रथम ब्राह्मण में गार्ग्य और अजातशत्रु का संवाद है ।
गार्ग्य गोत्रोत्पन्न बालाकि नामक एक पुरुष बहुत घमंडी था और बहुत बोलनेवाला था ।
उसने काशिराज अजातशत्रु के पास जाकर कहा : ’मैं तुम्हें ब्रह्म का उपदेश करूँ ।’
अजातशत्रु ने कहा, ’इस वचन के लिए  मैं आपको सहस्र [गौएँ] देता हूँ ;
लोग ’जनक, जनक’ यों कहकर दौड़ते हैं ।
(अर्थात् सब लोग यही कहते हैं  कि ’जनक बड़ा दानी है, जनक बड़ा श्रोता है ।’ ये दोनों बातें आपने अपने वचन से मेरे लिए सुलभ कर दी हैं । इसलिये मैं आपको सहस्र गौएँ देता हूँ ।)’॥१॥
...
...
॥१३॥
[उसे (गार्ग्य को) मौन देखकर] वह अजातशत्रु बोला, ’बस, क्या इतना ही है?’
गार्ग्य : ’हाँ, इतना ही है।’
अजातशत्रु :’इतने से तो ब्रह्म नहीं जाना जाता ।’
वह गार्ग्य बोला :
’मैं आपकी शिष्यभाव से शरण लेता हूँ ।’ ॥१४॥
अजातशत्रु ने कहा :
’ब्राह्मण क्षत्रिय के प्रति, इस उद्देश्य से कि यह मुझे ब्रह्म का उपदेश करेगा, शिष्यभाव से शरण हो -- ’यह तो विपरीत है, तो भी मैं आपको उसका ज्ञान कराऊँगा ही ।’
तब अजातशत्रु  उसके हाथ पकड़कर उठा और वे दोनों एक सोये हुए पुरुष के पास गये । अजातशत्रु ने उसे
 ’हे ब्रह्म ! हे पाण्डरवास ! हे सोम राजन् !'
 इन नामों से पुकारा ।
परंतु वह न उठा ।
तब उसे हाथ से दबा-दबाकर  जगाया तो वह उठ बैठा ॥१५॥
अजातशत्रु ने कहा --
’यह जो विज्ञानमय पुरुष है, जब सोया हुआ था, तब कहाँ था ? और यह कहाँ से आया ?’
किंतु गार्ग्य यह न जान सका ॥१६॥
उस अजातशत्रु ने कहा :
’यह जो विज्ञानमय पुरुष है, जब सोया हुआ था, उस समय यह विज्ञान के  द्वारा इन इन्द्रियों की ज्ञानशक्ति को ग्रहणकर, - यह जो हृदय के भीतर आकाश है उसमें शयन करता है । जिस समय यह उन ज्ञानशक्तियों को ग्रहण कर लेता है, उस समय इस पुरुष का ’स्वपिति’ (सोता या स्वप्न देखता हुआ) नाम होता है ।
उस समय घ्राणेन्द्रिय (नासिका)  लीन रहती है, चक्षु (नेत्र) लीन रहता है , श्रोत्र (कर्ण)  लीन रहता है,
 और मन भी लीन रहता है । जिस समय यह आत्मा स्वप्रवृत्ति से बर्तता है, उस समय इसके वे लोक (दृश्य) उत्पन्न होते हैं । वहाँ कभी यह महाराज होता है, कभी महाब्राह्मण होता है अथवा ऊँची-नीची [गतियों] - को प्राप्त होता है । जिस प्रकार कोई महाराज अपने प्रजाजनों को लेकर (अधीन कर) अपने देश में यथेच्छ विचरता है । इसके पश्चात् जब वह गाढ़ निद्रा में होता है, जिस समय कि वह किसी के विषय में कुछ भी नहीं जानता, उस समय 'हिता' नाम की जो बहत्तर हजार नाड़ियाँ हृदय से सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त होकर स्थित हैं, उनके द्वारा बुद्धि के साथ जाकर वह शरीर में व्याप्त होकर शयन करता है । जिस प्रकार कोई बालक अथवा महाराज किंवा महाब्राह्मण आनन्द की दुःखनाशिनी अवस्था को प्राप्त होकर शयन करे, उसी प्रकार यह शयन करता है ।॥१७-१९॥
जिस प्रकार वह ऊर्णनाभि (मकड़ा) तन्तुओं पर ऊपर की ओर जाता है तथा जैसे अग्नि से अनेकों क्षुद्र चिनगारियाँ उड़ती हैं, उसी प्रकार इस आत्मा से समस्त प्राण, समस्त लोक, समस्त देवगण और समस्त भूत विविध रूप से उत्पन्न होते हैं । ’सत्य का सत्य’ यह उस आत्मा का नाम है । प्राण ही सत्य हैं । उन्हीं का यह सत्य है ॥२०॥
--
The above anecdote reminds me of :
George, Georgia, Gorge, Gorgeous, Gorgon, ... Gordon's Knot, 72
गार्ग्य, जॉर्जिया, गॉर्ज, गॉर्जियस, गॉर्गन, ... गौरजां / गौर्यां ज्ञात .. ..
--     
     

No comments:

Post a Comment