गीता
अध्याय 10
पवनः पवतामस्मि रामः शस्त्रभृतामहम् ।
झषाणां मकरश्चास्मि स्रोतसामस्मि जाह्नवी ।।31
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शांकरभाष्य में दिया गया अर्थ :
पवित्र करनेवालों में वायु और शस्त्रधारियों में दशरथपुत्र राम मैं हूँ, मछली आदि जलचर प्राणियों में मकर नामक जलचरों की जाति-विशेष मैं हूँ, स्रोतों में --नदियों में मैं जाह्नवी -- गङ्गा हूँ।
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एक शस्त्रभृत राम और हैं जिन्हें विष्णु का पाँचवा 'अवतार', 'भार्गव' कहा गया है।
वे भी शस्त्रभृत (शस्त्रधारी) अवश्य हैं।
रोचक तथ्य यह है कि भगवान् परशुराम एक ओर भृगु-कुल में उत्पन्न होने से ब्राह्मण वर्ण के हैं, जिन्होंने पृथ्वी को 21 बार क्षत्रियों से रहित कर दिया जबकि भगवान् श्रीराम ने क्षत्रिय-वंश में जन्म लेकर राक्षस-कुल के ब्राह्मण वर्ण के राजा रावण को युद्ध में परास्त किया।
आज भारत में आर्य-द्रविड, हिन्दू-मुसलमान को परस्पर भिन्न संस्कृतियों, सभ्यताओं (और धर्म) का भी कहकर राष्ट्रीय मानस को विखंडित करने का षड्यंत्र चल रहा है। आर्य-द्रविड सभ्यताओं में भिन्न-भिन्न परंपराएँ अवश्य हैं किन्तु वे सनातन-धर्म के ही भिन्न भिन्न प्रकार हैं, - आर्य न तो नस्ल है न जाति । आर्य-अनार्य मनुष्यमात्र में सिर्फ उसकी श्रेष्ठता और सद्गुणों, या दुर्गुणों-अवगुणों से तय होता है।
इसी प्रकार 'हिन्दू' शब्द को अपनी अस्मिता की पहचान माननेवाले इस तथ्य की जानबूझकर या प्रमादवश भी अवहेलना कर देते हैं कि यह शब्द मूलतः सनातन-धर्म के किसी भी ग्रन्थ में नहीं पाया जा सकता। यह शब्द तो भारत पर इस्लामी आक्रमण और आधिपत्य होने के बाद ही भारत के उन मूल निवासियों के लिए प्रचलित हुआ जो धर्म के रूप में सनातन-धर्म का पालन भिन्न-भिन्न रूपों में करते थे।
हिन्दू-मुसलमान के कृत्रिम विभाजन के बाद इस प्रकार धर्म के आधार पर मुसलमानों ने पाकिस्तान नामक एक इस्लामी देश बना लिया। अब विभाजित भारत जो अगर हिंदुस्तान होता, तो सिर्फ हिन्दुओं का ही होना चाहिए था, -न कि सेक्युलर / धर्मनिरपेक्ष। इस सरल से तथ्य को भीरुता या तुष्टिकरण आदि के कारण अब तक की सरकारें दबाती-छिपाती रहीं जिसमें 'वोट-बैंक' की भी बहुत बड़ी भूमिका थी।
इस प्रकार 1947 के बाद से भारत में उस वर्ग के अधिकारों का लगातार हनन होता रहा जो अपने-आपको 'हिन्दू' कहता है। साथ ही कुछ ऐसे लोग भी उभर आए जिन्होंने ऐसे 'हिन्दुओं' को राजनैतिक दलों के रूप में संगठित किया और 'हिन्दू-राजनीति' की आधारशिला रख दी।
दूसरी ओर भारत के लगभग सभी मुसलमान इस प्रकार से 'हिन्दुओं' के विरूद्ध संगठित हो गए भले ही ऊपरी तौर से वे कांग्रेसी, कम्युनिस्ट, समाजवादी या मुस्लिम-लीग तथा विभिन्न क्षेत्रीय दलों के झंडे तले खड़े हुए हों।
आज भी इस प्रकार से लगभग सभी मुसलमान अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए 'धार्मिक स्वतन्त्रता के अधिकार' को शस्त्र की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं।
'हिन्दुओं' में भी एक बड़ा विभाजन तब हुआ जब श्री बी.आर.आंबेडकर ने दलितों के लिए 'नवबौद्ध' आंदोलन प्रारम्भ किया। आज 'जय भीम'-'जय मीम' के नारे से दलितों को भ्रमित करनेवाले जानबूझकर भूल जाते हैं कि काश्मीर में बख़्शी, अब्दुल्ला और मुफ़्ती के शासन में मीम (मुस्लिम) ने दलित वाल्मीकियों को 35 A के ज़रिए किस प्रकार नागरिक और मूलभूत मानवीय अधिकारों से भी वंचित रखा। काश्मीरी पंडितों को 19 जनवरी 1990 से किस प्रकार काश्मीर से पलायन के लिए बाध्य किया क्रूरता से हत्याएँ और बलात्कार किए।
गाँधी और अम्बेडकर दोनों ही 'हिन्दू' शब्द से दिग्भ्रमित हुए और यह समझ ही न सके, कि मूलतः 'हिन्दू' अस्मिता या पहचान का न तो कोई ठोस या वास्तविक आधार है, न बुनियाद।
दूसरी ओर इसी हवा-हवाई शब्द 'हिन्दू' की रेतीली बुनियाद पर अनेक 'हिन्दू' राजनीतिक संगठन बने, खड़े हुए किन्तु उनमें से प्रत्येक केवल बचाव की मुद्रा में है क्योंकि 'हिन्दू' सहिष्णु है। 'हिन्दू' सतत संशयग्रस्त है।
गीता में कहा गया है :
"... संशयात्मा विनश्यति।"
(अध्याय 4, श्लोक 40)
इस्लाम को अपने लक्ष्यों के बारे में क़तई कोई संशय नहीं है।
उनकी क़िताब का हर लफ़्ज़ उन्हें उनकी तात्कालिक और दीर्घकालिक रणनीति क्या हो, - इस बारे में स्पष्ट दिशा-निर्देश देता है। इस प्रकार हिन्दू-मुसलमान का यह बेतुका संघर्ष पूरे राष्ट्र को टुकड़े-टुकड़े कर रहा है जिसका लाभ अंततः इस्लाम को ही होना है ऐसा कहना कोरी कल्पना नहीं है।
मुसलमानों से यह उम्मीद करना कि राष्ट्रहित को महत्व देकर वे इस्लाम की शिक्षाओं का पुनरावलोकन करें हमारी मूर्खता और बहुत बड़ी नासमझी भी होगी। क्योंकि उनकी शब्दावली में 'राष्ट्र' जैसी कोई चीज़ होती ही नहीं, बस सिर्फ 'दार-उल-इस्लाम' या 'दार-उल-हर्ब' होता है।
इसलिए हिन्दू-राष्ट्र की बात करना बहुत बड़ी भूल है जो आत्मघात से कम कुछ नहीं है।
यदि इस आधार पर कोई संगठन खड़ा किया जाता है तो ऐसा संगठन बिखरा-बिखरा ही होगा क्योंकि उन्हें एकजुट बनाए रखने के लिए कोई सुनिश्चित, तय लक्ष्य कहीं नहीं है। "इस्लाम के वैश्विक-विश्वव्यापी अन्याय का विरोध" अवश्य ही ऐसा एक लक्ष्य हो सकता है, लेकिन उसके लिए 'हिन्दू' संगठन रूपी कोई फ़्रेमवर्क / ढाँचा बनाने का मतलब होगा अपने हाथों अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मार लेना।
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पवनः पवतामस्मि रामः शस्त्रभृतामहम् ।
झषाणां मकरश्चास्मि स्रोतसामस्मि जाह्नवी ।।31
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शांकरभाष्य में दिया गया अर्थ :
पवित्र करनेवालों में वायु और शस्त्रधारियों में दशरथपुत्र राम मैं हूँ, मछली आदि जलचर प्राणियों में मकर नामक जलचरों की जाति-विशेष मैं हूँ, स्रोतों में --नदियों में मैं जाह्नवी -- गङ्गा हूँ।
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एक शस्त्रभृत राम और हैं जिन्हें विष्णु का पाँचवा 'अवतार', 'भार्गव' कहा गया है।
वे भी शस्त्रभृत (शस्त्रधारी) अवश्य हैं।
रोचक तथ्य यह है कि भगवान् परशुराम एक ओर भृगु-कुल में उत्पन्न होने से ब्राह्मण वर्ण के हैं, जिन्होंने पृथ्वी को 21 बार क्षत्रियों से रहित कर दिया जबकि भगवान् श्रीराम ने क्षत्रिय-वंश में जन्म लेकर राक्षस-कुल के ब्राह्मण वर्ण के राजा रावण को युद्ध में परास्त किया।
आज भारत में आर्य-द्रविड, हिन्दू-मुसलमान को परस्पर भिन्न संस्कृतियों, सभ्यताओं (और धर्म) का भी कहकर राष्ट्रीय मानस को विखंडित करने का षड्यंत्र चल रहा है। आर्य-द्रविड सभ्यताओं में भिन्न-भिन्न परंपराएँ अवश्य हैं किन्तु वे सनातन-धर्म के ही भिन्न भिन्न प्रकार हैं, - आर्य न तो नस्ल है न जाति । आर्य-अनार्य मनुष्यमात्र में सिर्फ उसकी श्रेष्ठता और सद्गुणों, या दुर्गुणों-अवगुणों से तय होता है।
इसी प्रकार 'हिन्दू' शब्द को अपनी अस्मिता की पहचान माननेवाले इस तथ्य की जानबूझकर या प्रमादवश भी अवहेलना कर देते हैं कि यह शब्द मूलतः सनातन-धर्म के किसी भी ग्रन्थ में नहीं पाया जा सकता। यह शब्द तो भारत पर इस्लामी आक्रमण और आधिपत्य होने के बाद ही भारत के उन मूल निवासियों के लिए प्रचलित हुआ जो धर्म के रूप में सनातन-धर्म का पालन भिन्न-भिन्न रूपों में करते थे।
हिन्दू-मुसलमान के कृत्रिम विभाजन के बाद इस प्रकार धर्म के आधार पर मुसलमानों ने पाकिस्तान नामक एक इस्लामी देश बना लिया। अब विभाजित भारत जो अगर हिंदुस्तान होता, तो सिर्फ हिन्दुओं का ही होना चाहिए था, -न कि सेक्युलर / धर्मनिरपेक्ष। इस सरल से तथ्य को भीरुता या तुष्टिकरण आदि के कारण अब तक की सरकारें दबाती-छिपाती रहीं जिसमें 'वोट-बैंक' की भी बहुत बड़ी भूमिका थी।
इस प्रकार 1947 के बाद से भारत में उस वर्ग के अधिकारों का लगातार हनन होता रहा जो अपने-आपको 'हिन्दू' कहता है। साथ ही कुछ ऐसे लोग भी उभर आए जिन्होंने ऐसे 'हिन्दुओं' को राजनैतिक दलों के रूप में संगठित किया और 'हिन्दू-राजनीति' की आधारशिला रख दी।
दूसरी ओर भारत के लगभग सभी मुसलमान इस प्रकार से 'हिन्दुओं' के विरूद्ध संगठित हो गए भले ही ऊपरी तौर से वे कांग्रेसी, कम्युनिस्ट, समाजवादी या मुस्लिम-लीग तथा विभिन्न क्षेत्रीय दलों के झंडे तले खड़े हुए हों।
आज भी इस प्रकार से लगभग सभी मुसलमान अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए 'धार्मिक स्वतन्त्रता के अधिकार' को शस्त्र की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं।
'हिन्दुओं' में भी एक बड़ा विभाजन तब हुआ जब श्री बी.आर.आंबेडकर ने दलितों के लिए 'नवबौद्ध' आंदोलन प्रारम्भ किया। आज 'जय भीम'-'जय मीम' के नारे से दलितों को भ्रमित करनेवाले जानबूझकर भूल जाते हैं कि काश्मीर में बख़्शी, अब्दुल्ला और मुफ़्ती के शासन में मीम (मुस्लिम) ने दलित वाल्मीकियों को 35 A के ज़रिए किस प्रकार नागरिक और मूलभूत मानवीय अधिकारों से भी वंचित रखा। काश्मीरी पंडितों को 19 जनवरी 1990 से किस प्रकार काश्मीर से पलायन के लिए बाध्य किया क्रूरता से हत्याएँ और बलात्कार किए।
गाँधी और अम्बेडकर दोनों ही 'हिन्दू' शब्द से दिग्भ्रमित हुए और यह समझ ही न सके, कि मूलतः 'हिन्दू' अस्मिता या पहचान का न तो कोई ठोस या वास्तविक आधार है, न बुनियाद।
दूसरी ओर इसी हवा-हवाई शब्द 'हिन्दू' की रेतीली बुनियाद पर अनेक 'हिन्दू' राजनीतिक संगठन बने, खड़े हुए किन्तु उनमें से प्रत्येक केवल बचाव की मुद्रा में है क्योंकि 'हिन्दू' सहिष्णु है। 'हिन्दू' सतत संशयग्रस्त है।
गीता में कहा गया है :
"... संशयात्मा विनश्यति।"
(अध्याय 4, श्लोक 40)
इस्लाम को अपने लक्ष्यों के बारे में क़तई कोई संशय नहीं है।
उनकी क़िताब का हर लफ़्ज़ उन्हें उनकी तात्कालिक और दीर्घकालिक रणनीति क्या हो, - इस बारे में स्पष्ट दिशा-निर्देश देता है। इस प्रकार हिन्दू-मुसलमान का यह बेतुका संघर्ष पूरे राष्ट्र को टुकड़े-टुकड़े कर रहा है जिसका लाभ अंततः इस्लाम को ही होना है ऐसा कहना कोरी कल्पना नहीं है।
मुसलमानों से यह उम्मीद करना कि राष्ट्रहित को महत्व देकर वे इस्लाम की शिक्षाओं का पुनरावलोकन करें हमारी मूर्खता और बहुत बड़ी नासमझी भी होगी। क्योंकि उनकी शब्दावली में 'राष्ट्र' जैसी कोई चीज़ होती ही नहीं, बस सिर्फ 'दार-उल-इस्लाम' या 'दार-उल-हर्ब' होता है।
इसलिए हिन्दू-राष्ट्र की बात करना बहुत बड़ी भूल है जो आत्मघात से कम कुछ नहीं है।
यदि इस आधार पर कोई संगठन खड़ा किया जाता है तो ऐसा संगठन बिखरा-बिखरा ही होगा क्योंकि उन्हें एकजुट बनाए रखने के लिए कोई सुनिश्चित, तय लक्ष्य कहीं नहीं है। "इस्लाम के वैश्विक-विश्वव्यापी अन्याय का विरोध" अवश्य ही ऐसा एक लक्ष्य हो सकता है, लेकिन उसके लिए 'हिन्दू' संगठन रूपी कोई फ़्रेमवर्क / ढाँचा बनाने का मतलब होगा अपने हाथों अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मार लेना।
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