Friday, 5 July 2019

योगो अनिर्विण्ण चेतसा

चेतसा 
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गीता में 'चेतसा' शब्द का प्रयोग 4 स्थानों पर प्राप्त होता है :
तं विद्याद्-दुःखसंयोग-वियोगं योगसञ्जितम् ।
सा निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा ।।23
 (अध्याय 6)
अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन् ।।8
(अध्याय 8)
चेतसा सर्वकर्माणि मयि सन्न्यस्य मत्परः ।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव ।।57
(अध्याय 18)
कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा ।
कच्चिदज्ञानसम्मोहः प्रनष्टस्ते धनञ्जय।।72
(अध्याय 18)
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उपरोक्त श्लोकों का हिंदी तथा अंग्रेज़ी अर्थ और लिप्यंतरण मेरे गीता से संबंधित ब्लॉग में देखा जा सकता है। लिंक मेरे प्रोफाइल से भी देख सकते हैं या लेबल 18/72 से भी उपलब्ध है।
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स्वादिगण की उभयपदी धातु चि - 'चिनोति' / 'चीयते' से बने चयन / चुनाव, चुनौती, चयित (चीज़), चैन (आराम, निश्चिन्त हो जाना) आदि शब्द हिंदी में बहुप्रचलित हैं।  वैसे तो इसका संबंध और उद्गम 'चित्' अर्थात् विशुद्ध बोधमात्र से है किन्तु 'निश्चय' के अर्थ में यह 'चुनावरहित' (choice-less) का द्योतक है।  स्पष्ट है कि 'choice' भी 'चयस्' का ही सज्ञात / cognate है।
चेत / चेतना का अर्थ है 'awareness' .
इसे भी अव-ऋ-न्यस् के सज्ञात / cognate की तरह समझा जा सकता है ।
यह चेतना चेत (consciousness) से इस अर्थ में भिन्न है कि कोई चेतन-सत्ता (conscious-entity) ही सचेत (conscious) अथवा अचेत (unconscious) हो सकती है। सोया हुआ मनुष्य भी अचेत (unconscious) हो सकता है और जागृत मनुष्य भी बिना सोए ही, (जैसा कि किसी कमज़ोरी या एकाएक होनेवाले मानसिक आघात से) हो सकता है।
जाग्रति की स्थिति में मनुष्य (या कोई भी चेतन-सत्ता) के द्वारा विचार के आगमन से पूर्व भी 'चुनाव' किया जा सकता है।  जैसा कि सभी प्राणी करते ही हैं।  यह 'चेतन' / चेतन अस्तित्व की स्वाभाविक गतिविधि है जिसे 'प्रवृत्ति' कह सकते हैं।  इससे भी पहले की अवस्था है 'वृत्ति' जिस पर महर्षि पतंजलि ने योग-शास्त्र लिखा है।
इस प्रकार जागृति की स्थिति में प्राणिमात्र किसी न किसी गतिविधि को चुनता है। यहाँ तक तो ठीक है किन्तु मनु की संतानों के पास भाषा-आधारित शब्दों से बनी 'विचार' नामक तकनीक होने से वह वैचारिक आधार पर भी 'चुनाव' करने लगता है।  मैं 'यह' करूँ या 'वह'; मैं 'करूँ' कि न करूँ? --इस प्रकार का विचार उठे इससे पहले ही वह अपने-आपको विचार के धरातल पर दो हिस्सों में बाँट लेता है। वह एक साथ स्वयं को ही किसी क्रिया का विषय एवं कर्ता समझ बैठता है। वह स्वयं ही उस क्रिया का विधेय -predicate और कर्ता / उद्देश्य subject मानने की भूल प्रमादवश (inattentive) होने से कर बैठता है जो विसंगतिपूर्ण है।
'निश्चय'  का अर्थ है चयन करने से पूर्व ही रुककर, विचार द्वारा चुनने की गतिविधि होने से पहले ही सावधान हो जाना।  यही सावधानता (स-अवधान होना) निर्विचार सजगता choice-less awareness है।  'विचार' के द्वारा उठाए जानेवाले समस्त मुद्दे मूलतः प्रमादजन्य होते हैं और सजगता की स्वाभाविक गतिविधि (movement) को अवरुद्ध करते हैं। प्रमाद (inattention) की अपनी एक (या असंख्य) गतिविधियाँ (movements) होती हैं।  सजगता की गतिविधि उससे बिलकुल भिन्न, अचूक और एकमेव (unique) होती है जब विचार की तकनीक को विश्राम मिलता है और फिर जब वह सक्रिय होता है तो उसमें एक नितान्त नई उमंग और तेजस्विता (ताज़गी) होती है।
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