तस्य प्रतिमा नास्ति
(श्वेताश्वतर उपनिषद्, 4 -4)
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देवता तत्व वैसे तो स्थूल आधिभौतिक शरीर की दृष्टि से अशरीरी है किन्तु आधिदैविक स्तर पर उसकी चार प्रतिमाएँ होती हैं जिनके माध्यम से ईश्वर के उस आधिदैविक स्वरूप 'देवता' से संपर्क किया जा सकता है।
गीता अध्याय 3 में कहा गया है :
देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः ।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ।। 19
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इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविता ।
तैर्दत्ता नप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः।। 20
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जिस प्रकार ईश्वर एक और अनेक होते हुए भी एक तथा अनेक से विलक्षण भी है, उसी प्रकार उसे किसी भी देवता के माध्यम से जाना तथा अनुभव किया जा सकता है क्योंकि ईश्वर व्यक्ति-विशेष ही नहीं कार्य तथा कारण भी है जिसे उपनिषद् ईशावास्य उपनिषद् - शांकरभाष्य की भूमिका में 'ईशिता' नाम दिया गया है।
'एक' और 'अनेक' ईश्वर नामक सत्ता के विशेषण हैं, जिसका विशेष्य है - ईश्वर नामक सत्ता।
क्या 'एक' और 'अनेक' भी प्रतिमा ही नहीं है?
ईशिता वै ईशानो,
यह ईशिता सबमें तथा सर्वत्र व्याप्त है किन्तु जब किसी देह-विशेष से संबद्ध चेतना उस देह को 'मेरा' जानते हुए भी प्रमादवश 'मैं' नाम देती है तो वही ईशिता इस प्रकार द्वैत-रूप लेती है।
द्वैत का अर्थ हुआ दो के बीच संबंध।
देवता के दो अवयव होते हैं 'प्राण' तथा 'चेतना' ।
छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा पिंड भी ईशिता से ओत प्रोत है और ईशिता प्रत्येक पिंड में।
स्थूल भौतिक आकाश भी इस प्रकार वैसा ही एक पिंड है, जैसा कि स्वप्न में अनुभव किया जानेवाला आकाश या जागृति की अवस्था में कल्पना में जाना-देखा जानेवाला कल्पित आकाश। इसी का एक अन्य रूप है वह आकाश, जिसमें सुषुप्ति के समय हम होते हैं। जाग उठने के बाद ही हमें स्थूल भौतिक आकाश में एक दृश्य संसार अनुभव होता है, जिसमें हम असंख्य लोगों आदि को अपने (अर्थात् अपने भौतिक शरीर) से अन्य के रूप में देखकर अनुमान करते हैं कि यद्यपि वे हमारी सुषुप्ति के समय नहीं होते फिर भी पुनः पुनः देखे जाने से स्पष्ट है कि उनकी सुषुप्ति में भी उनके लिए हम 'नहीं' हो जाते हैं।
वैदिक वर्ण-मातृका (Matrix of letters - vowels and consonants) में प्रत्येक बोले जा सकने वाले वर्ण (letter) को देवता कहा जाता है क्योंकि प्राण तथा चेतना के अभाव में किसी भी वर्ण का उच्चारण कर पाना संभव नहीं।
तात्पर्य यह कि वर्ण के उच्चारण के लिए किसी न किसी प्रकार से प्राण तथा चेतना का आधार होना आवश्यक है। वेद में इस प्रकार के मूल 33 वर्ण कहे गए हैं जिनकी भूमिका कार्य को सिद्ध करने में सहायक होती है।
इन्हें ही 33 कोटि (प्रकार के) देवता भी कहा जाता है।
कोटि का एक अर्थ करोड़ भी होता है इसलिए देवता को 33 करोड़ भी कहा जा सकता है।
वास्तव में ये सभी केवल मूलतः 33 देवताओं के ही अनेक ऐसे रूप हैं जिन्हें हर कोई अपने अपने तरीके से इष्ट और आराध्य मानता है।
इस मान्यता को वैदिक रीति से किसी नाम, मन्त्र, प्राण-चेतना तथा प्रतिमा (आकृति) इन चार तरीकों से साकार साक्षात रूप से जाना अनुभव किया जाता है।
भावना से ही प्रतिमा में प्राण-प्रतिष्ठा हो सकती है।
केवल मिट्टी, पत्थर, लकड़ी या सोने-चाँदी की स्थूल प्रतिमा ही नहीं किसी वृक्ष, पर्वत, नदी या स्थान में भीभावना के बल से ही मान्यता देवता की तरह जागृत हो उठती है।
वह देवता जो मूर्ति में मूर्च्छित चेतना की तरह अव्यक्त होकर अप्रकट छिपा रहता है, कार्य के माध्यम से अपने अस्तित्व का स्वयं प्रमाण होता है।
क्या नाम और मन्त्र की भी सुनिश्चित आकृति नहीं होती?
वर्ण ही नाम तथा मन्त्र की मूर्ति के अंग होते हैं।
क्या ईश्वर का कोई नाम नहीं है?
क्या उससे संपर्क मौन रहकर (वाणी से उच्चारण न करते हुए) किया जा सकता है?
क्या ईश्वर / देवता से संपर्क या उसकी उपासना-पूजा-ध्यान आदि करते समय उसका किसी न किसी रूप में स्मरण नहीं किया जाता ?
ऐसा ईश्वर निराकार कैसे हो सकता है?
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(श्वेताश्वतर उपनिषद्, 4 -4)
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देवता तत्व वैसे तो स्थूल आधिभौतिक शरीर की दृष्टि से अशरीरी है किन्तु आधिदैविक स्तर पर उसकी चार प्रतिमाएँ होती हैं जिनके माध्यम से ईश्वर के उस आधिदैविक स्वरूप 'देवता' से संपर्क किया जा सकता है।
गीता अध्याय 3 में कहा गया है :
देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः ।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ।। 19
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इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविता ।
तैर्दत्ता नप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः।। 20
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जिस प्रकार ईश्वर एक और अनेक होते हुए भी एक तथा अनेक से विलक्षण भी है, उसी प्रकार उसे किसी भी देवता के माध्यम से जाना तथा अनुभव किया जा सकता है क्योंकि ईश्वर व्यक्ति-विशेष ही नहीं कार्य तथा कारण भी है जिसे उपनिषद् ईशावास्य उपनिषद् - शांकरभाष्य की भूमिका में 'ईशिता' नाम दिया गया है।
'एक' और 'अनेक' ईश्वर नामक सत्ता के विशेषण हैं, जिसका विशेष्य है - ईश्वर नामक सत्ता।
क्या 'एक' और 'अनेक' भी प्रतिमा ही नहीं है?
ईशिता वै ईशानो,
यह ईशिता सबमें तथा सर्वत्र व्याप्त है किन्तु जब किसी देह-विशेष से संबद्ध चेतना उस देह को 'मेरा' जानते हुए भी प्रमादवश 'मैं' नाम देती है तो वही ईशिता इस प्रकार द्वैत-रूप लेती है।
द्वैत का अर्थ हुआ दो के बीच संबंध।
देवता के दो अवयव होते हैं 'प्राण' तथा 'चेतना' ।
छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा पिंड भी ईशिता से ओत प्रोत है और ईशिता प्रत्येक पिंड में।
स्थूल भौतिक आकाश भी इस प्रकार वैसा ही एक पिंड है, जैसा कि स्वप्न में अनुभव किया जानेवाला आकाश या जागृति की अवस्था में कल्पना में जाना-देखा जानेवाला कल्पित आकाश। इसी का एक अन्य रूप है वह आकाश, जिसमें सुषुप्ति के समय हम होते हैं। जाग उठने के बाद ही हमें स्थूल भौतिक आकाश में एक दृश्य संसार अनुभव होता है, जिसमें हम असंख्य लोगों आदि को अपने (अर्थात् अपने भौतिक शरीर) से अन्य के रूप में देखकर अनुमान करते हैं कि यद्यपि वे हमारी सुषुप्ति के समय नहीं होते फिर भी पुनः पुनः देखे जाने से स्पष्ट है कि उनकी सुषुप्ति में भी उनके लिए हम 'नहीं' हो जाते हैं।
वैदिक वर्ण-मातृका (Matrix of letters - vowels and consonants) में प्रत्येक बोले जा सकने वाले वर्ण (letter) को देवता कहा जाता है क्योंकि प्राण तथा चेतना के अभाव में किसी भी वर्ण का उच्चारण कर पाना संभव नहीं।
तात्पर्य यह कि वर्ण के उच्चारण के लिए किसी न किसी प्रकार से प्राण तथा चेतना का आधार होना आवश्यक है। वेद में इस प्रकार के मूल 33 वर्ण कहे गए हैं जिनकी भूमिका कार्य को सिद्ध करने में सहायक होती है।
इन्हें ही 33 कोटि (प्रकार के) देवता भी कहा जाता है।
कोटि का एक अर्थ करोड़ भी होता है इसलिए देवता को 33 करोड़ भी कहा जा सकता है।
वास्तव में ये सभी केवल मूलतः 33 देवताओं के ही अनेक ऐसे रूप हैं जिन्हें हर कोई अपने अपने तरीके से इष्ट और आराध्य मानता है।
इस मान्यता को वैदिक रीति से किसी नाम, मन्त्र, प्राण-चेतना तथा प्रतिमा (आकृति) इन चार तरीकों से साकार साक्षात रूप से जाना अनुभव किया जाता है।
भावना से ही प्रतिमा में प्राण-प्रतिष्ठा हो सकती है।
केवल मिट्टी, पत्थर, लकड़ी या सोने-चाँदी की स्थूल प्रतिमा ही नहीं किसी वृक्ष, पर्वत, नदी या स्थान में भीभावना के बल से ही मान्यता देवता की तरह जागृत हो उठती है।
वह देवता जो मूर्ति में मूर्च्छित चेतना की तरह अव्यक्त होकर अप्रकट छिपा रहता है, कार्य के माध्यम से अपने अस्तित्व का स्वयं प्रमाण होता है।
क्या नाम और मन्त्र की भी सुनिश्चित आकृति नहीं होती?
वर्ण ही नाम तथा मन्त्र की मूर्ति के अंग होते हैं।
क्या ईश्वर का कोई नाम नहीं है?
क्या उससे संपर्क मौन रहकर (वाणी से उच्चारण न करते हुए) किया जा सकता है?
क्या ईश्वर / देवता से संपर्क या उसकी उपासना-पूजा-ध्यान आदि करते समय उसका किसी न किसी रूप में स्मरण नहीं किया जाता ?
ऐसा ईश्वर निराकार कैसे हो सकता है?
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