Saturday, 13 July 2019

॥ तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥

प्रेरणा, संकल्प और कामना 
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कार्य / कर्म (का होना) कर्ता पर अवलंबित होता है ।
कर्म प्रकृति से होते हैं :
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः ।
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥२७
(गीता, अध्याय ३)
’प्रकृति’ स्त्रीलिङ् के रूप ’मति’ के समान होते हैं ।
’प्रकृतेः’ इकारान्त स्त्रीलिङ् पञ्चमी / षष्ठी एकवचन रूप है ।
पञ्चमी अपादान कारक है ।
तात्पर्य है : प्रकृति से,
जैसे हिमालय से गंगा निकलती है : ’हिमालयात्’ पञ्चमी एकवचन रूप है ।
’गुणैः’ ’गुण’ - अकारान्त नपुं.लिङ् तृतीया बहुवचन रूप है ।
तात्पर्य है : गुणों के माध्यम से ।
अर्थात् गुण ही कर्ता हैं जबकि प्रकृति / मति / बुद्धि माध्यम (instrument) है ।
किन्तु गुण तो प्रकृति का अदृश्य रूप (abstract form) है,  इसलिए उस रूप में प्रकृति / (सत्व, रज, तम आदि) गुणों को प्रत्यक्षतः नहीं देखा जाता ।
प्रत्यक्षतः जिसे जाना और इस अर्थ में देखा जा सकता है वह है प्रेरणा, संकल्प और कामना ।
निस्सन्देह; - प्रेरणा, संकल्प और कामना तो प्रत्यक्षतः ही जान लिए जाते हैं, और मनुष्य जिस किसी भी कार्य में संलग्न होता है, उसके लिए इन्हीं तीन में से एक या अधिक, उसे कार्य करने के लिए प्रेरित (प्रेरणायुक्त), आग्रहशील (संकल्पयुक्त) और बाध्य (कामनायुक्त) करते हैं ।
जैसे ही किसी कार्य में संलग्न होने की प्रेरणा, संकल्प या कामना होती है मनुष्य में कर्तृत्व-भावना जन्म लेती है अर्थात् ’मैं’ कर्ता हूँ इस प्रकार से ’मैं’ नामक अहङ्कार पैदा होता है, जिसे बुद्धि ’कर्ता’ की तरह ग्रहण कर लेती है । (भय भी कामना का विपरीत प्रकार मात्र है।) 
इसी मोहित बुद्धि को यहाँ ’विमूढबुद्धि’ कहा गया है और इस बुद्धि से युक्त मनुष्य को विमूढात्मा ।
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सङ्कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः ।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः ॥२४
(गीता, अध्याय ६)
शनैः शनैरुपरमेद्बुद्ध्या धृतिगृहीतया ।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत् ॥२५
(गीता, अध्याय ६)
यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरं ।
ततो ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ॥२६
(गीता, अध्याय ६)
प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम् ।
उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम् ॥२७
(गीता अध्याय ६)
उपरोक्त ४ श्लोकों में स्पष्ट किया गया है :
’संकल्प से पैदा हुई समस्त कामनाओं को संपूर्णतः त्यागकर’
’त्याग’ क्या संकल्प से संभव होगा?
यदि ऐसा है तो यह तो एक अन्तहीन दुष्चक्र हुआ और इस तर्क में विसंगति है, यह भी देखा जा सकता है ।
इसलिए केवल इतना जान / देख लेने से कि प्रकृति के (तीनों) गुणों से ही मन तथा इन्द्रियाँ प्रेरित होते हैं जिनसे (किसी कार्य / कर्म) को करने का संकल्प (तथा अपने-आपके स्वतन्त्र कर्ता होने का भ्रामक और मिथ्या विचार) पैदा होता है । अतः मन एवं इन्द्रियों को अच्छी तरह से हर प्रकार से संयमित करते हुए ,
धीरे धीरे क्रमशः बुद्धि से धृति (समझ) में धारण करते हुए,
मन को आत्मा (मैं-विचार या मैं स्फुर्णा, या वह स्फुर्णा जहाँ से आती है उस आत्मा) में स्थिरतापूर्वक स्थित कर, किसी भी विषय का चिन्तन (चित्त को विषय से संलग्न) न करे । और,
चित्त स्वभाव से ही चञ्चल होने से जहाँ जहाँ, जिस किसी भी हेतु (कारण या प्रयोजन) से अस्थिर होता है, उसे वहाँ वहाँ से लौटाकर आत्मा  (मैं-विचार या मैं स्फुर्णा, या वह स्फुर्णा जहाँ से आती है उस आत्मा) में स्थिर करे ।
इस प्रकार से शान्त हुआ मन ही, जो योगी का श्रेष्ठतम सुख है, - रजोगुण की शान्ति होने पर उसे तमोगुण (कल्मष) से रहित ब्रह्म (परब्रह्म / आत्मा) में प्रतिष्ठित करता है ।       
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॥ तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ 
(गीता, अध्याय २, श्लोक -५७, ५८, ६१, ६८)       
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