Thursday, 25 July 2019

एक ज्वलन्त प्रश्न

 ... और एक बुनियादी सवाल :
क्या 1947 में भारतवर्ष का विभाजन हिन्दुओं तथा मुसलमानों के लिए दो अलग अलग राष्ट्रों की स्वीकृति के आधार पर ही नहीं किया गया था ? तब 'धर्मनिरपेक्षता' / Secularism कहाँ था?
पाकिस्तान ने खुद को 'इस्लामी' राष्ट्र घोषित किया तो भारत को खुद को 'हिन्दू' राष्ट्र क्यों नहीं घोषित किया गया? यह भी मान लिया कि भारत में सभी धर्मों को सम्मान दिया जाएगा तो फिर हिन्दुओं से अन्य धर्म के मतावलम्बियों के लिए 'विशेषाधिकार' और 'तुष्टिकरण' क्यों ?
और वह भी हिन्दू-हितों की कीमत पर?
क्या यह हिन्दुओं के साथ सरासर अन्याय नहीं है?
यदि यह जारी रहता है तो गजवा-ए-हिन्द से भारतवर्ष को बचाने की कोई उम्मीद करना मूर्खता ही है।   
सिर्फ़ जानकारी के लिए :
(यदि मैंने यह ’वीडियो’ न देखा होता तो इस पोस्ट को कभी प्रकाशित न करता । और कृपया ध्यान दें कि इस पोस्ट को किसी विद्वेष या दुर्भावना से प्रेरित होकर नहीं लिखा गया है  )
मैं यूँ भी किसी भी प्रकार का या वास्तविक या तथाकथित धर्म का धर्मगुरु नहीं हूँ किन्तु केवल सन्दर्भ के रूप में यह जानकारी प्रस्तुत करना चाहता हूँ :
ला इल आ हि इल अल् आह ।
केवल इतने ही वाक्य की व्याख्या इस प्रकार से की जा सकती है :
लृ आ इल आह इल इल आह ।
अण् प्रत्याहार -
१.विधीयमानोऽण् आदेशप्रत्यायागमरूपस्तद्भिन्नोऽण् उद्देश्यभूतः स स्वसवर्णस्य संज्ञा इत्यर्थः ॥
अत्रेदं प्रमाणम् --
परेणैवेण्ग्रहाः सर्वे पूर्वेणैवाण्-ग्रहा मताः ।
ऋतेऽनुदित्सवर्णस्येत्येतदेकं परेण तु ॥इति॥
उरण् रपरः ॥
(१/१/५१)
अणुदित्सवर्णस्य चाऽप्रत्ययः
(१/१/६९) लाकृतिः
लृ + आकृतिः = लाकृतिः
’लृकारस्य, आकृतिः स्वरूपम्’ अथवा लृ के आकार के समान जिसका आकार है वह, कृष्ण भगवान् ।
बाँसुरी बजाने के समय उनकी आकृति ’लृ’ के जैसी होती है ।

...ऋलृवर्णयोः सवर्णसंज्ञाविधायकं वार्त्तिकम्
ऋलृवर्णयोर्मिथः सावर्ण्यं वाच्यम्
जहाँ ’लृ’ के स्थान में अण् आदेश होगा, वहाँ लपर होगा ।
वाल्मीकि रामायण में ’पृथ्वी के एकमात्र परमेश्वर राजा इल’ का उल्लेख है ।
पश्चिम की परंपराओं में एकेश्वरवाद की संकल्पना वहीं से आई है ।
इसी की पुष्टि के रूप में मूलतः वैदिक संस्कृत का यह ’मन्त्र’ प्रमाण है ।
मैं नहीं कह सकता कि वास्तव में यह मन्त्र इस रूप में बैदिक ग्रन्थों में कहीं उपलब्ध है या नहीं किन्तु इतना तो तय है कि वेदों के कुछ अंश आज भी अनुपलब्ध हैं अतः इसे उनमें भी पाया जा सकता है ।
अब
’ला इल आ हि इल अल् आह ।’
का संभावित अर्थ यह है (जिसका प्रमाण वाल्मीकि रामायण में है) :
राजा इल के अतिरिक्त अन्य कोई ’ईश्वर’ पृथ्वी पर नहीं है ।
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निश्चित ही इस प्रथम मन्त्र को यथावत् रखकर दूसरा अंश
’मुहम्मद रसूल अल्लाह ।’
को अरबी भाषा में जोड़ दिया गया ।
अरबी वर्ण हम्जः की उत्पत्ति भी अहम्-जः अर्थात् आत्मा से जन्मा के अर्थ में स्पष्ट है ।
’म’ उपसर्ग लगाकर महम्मद या मोहम्मद बनाया गया ।
जैसे ’मक्का’ ’महा’ का अपभ्रंश है ।
अस् धातु से ’ल’ प्रत्यय जोड़कर अस्ल, असल, उसूल, वसूल, मुसल, रसूल, अरबी भाषा में ’सला’ (फ़ारसी तथा फ़ारसी से उर्दू में नमाज; -जो पुनः ’नम्’ तथा ’यज्’ धातु से प्राप्त होता है ) आदि शब्दावलि बनी है ।
अरबी भाषा की उत्पत्ति संस्कृत से ही ’उणादि’ प्रत्ययों के प्रयोग से सिद्ध होती है ।
इसीलिए उन्, उत्, उल्, उर्, उस्, उम्, आदि का प्रयोग संबंधवाची अर्थ में होता है ।
इसी के साथ ’अण्’ अर्थात् ’अ इ उ ण्’ इस प्रथम माहेश्वर सूत्र से अरबी भाषा में ये तीनों वर्ण परस्पर विनिमेय होते हैं ।
यहाँ तक कि ’संप्रसारण’ तथा ’गुण’ भी अरबी की संरचना का आधारभूत सिद्धान्त है । ’य’ का ’इ’ एवं ’व’ का ’उ’ या ’ओ’ हो जाना (गुण) तथा इससे विपरीत क्रम में ’इ’ का ’ये’/ ’य’, ’उ’ तथा ’ओ’ का ’व’ हो जाना (संप्रसारण) का ही प्रयोग है ।
यहाँ तक कि अंग्रेज़ी भाषा में भी वर्ण (आय) का (वाय) होना तथा (वाय) का ’आय) होना इसी कारण पाया जाता है ।
इसमें सन्देह नहीं कि अरबी भाषा का अस्तित्व इस्लाम के आगमन से बहुत पूर्व से है ।
फ़िनीशियन, आरामाइक तथा हिब्रू भाषाओं से ही अरबी भाषा की लिपि एवं व्याकरण अस्तित्व में आया ।
ऋग्वेद में अर्वण (अरबी भाषा या वंश, नस्ल) की उत्पत्ति के बारे में उल्लेख है कि यह या तो समुद्र से उत्पन्न हुई (अर्थात् यह भूमि पुरा काल में समुद्र में डूबी हुई हो सकती है, जो बाद में उठकर उभर आई), या फिर पुरीष  (’विस्थापन’ के अर्थ में भूमि के एक टुकड़े का धीरे-धीरे अपने स्थान से बहुत दूर चले जाना) से अस्तित्व में आई ।
संभवतः यहाँ पुरीष  का तात्पर्य ’मल’ नहीं है, जैसा कि समझा / माना जाता है ।
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