Saturday, 27 July 2019

नृवंश का इतिहास : राक्षस-सभ्यता और मय-सभ्यता

वाल्मीकि रामायण,
उत्तरकाण्ड,
सर्ग ५८-५९,
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ययाति को शुक्राचार्य का शाप
श्रीराम के ऐसा कहने पर शत्रुवीरों का संहार करनेवाले लक्ष्मण ने तेज से प्रज्वलित होते हुए-से महात्मा श्रीराम को सम्बोधित करके इस प्रकार कहा --
’तपश्रेष्ठ ! राजा विदेह (निमि) तथा वसिष्ठ मुनि का पुरातन वृत्तान्त अत्यन्त द्भुत् और आश्चर्यजनक है ।
’परंतु राजा निमि क्षत्रिय, शूरवीर और विशेषतः यज्ञ की दीक्षा लिये हुए थे; अतः उन्होंने महात्मा वसिष्ठ के प्रति उचित बर्ताव नहीं किया’
लक्ष्मण के इस तरह कहने पर दूसरों के मन को रमाने (प्रसन्न रखने) वालों में श्रेष्ठ क्षत्रियशिरोमणि श्रीराम ने सम्पूर्ण शास्त्रों के ज्ञाता और उद्देप्त तेजस्वी भ्राता लक्ष्मण से कहा --
’वीर सुमित्राकुमार ! सभी पुरुषों में वैसी क्षमा नहीं दिखाई देती, जैसी राजा ययाति में थी । राजा ययाति ने सत्त्वगुण के अनुकूल मार्ग का आश्रय ले दुःसह रोष को क्षमा कर लिया था । वह प्रसंग बताता हूँ, एकाग्रचित्त होकर सुनो
’सौम्य ! नहुष के पुत्र राजा ययाति पुरवासियों, प्रजाजनों की वृद्धि करनेवाले थे । उनके दो पत्नियाँ थीं, जिनके रूप की इस भूतल पर कहीं तुलना नहीं थी .
’नहुषनन्दन राजर्षि ययाति की एक पत्नी का नाम शर्मिष्ठा था, जो राजा के द्वारा बहुत ही सम्मानित थी । शर्मिष्ठा दैत्यकुल की कन्या और वृषपर्वा की पुत्री थी ।
’पुरुषप्रवर ! उनकी दूसरी पत्नी शुक्राचार्य की पुत्रा देवयानी थी । देवयानी सुन्दरी होने पर भी राजा को अधिक प्रिय नहीं थी । उन दोनों के ही पुत्र बड़े रूपवान् हुए । शर्मिष्ठा ने पूरु को जन्म दिया और देवयानी ने यदु को । वे दोनों बालक अपने चित्त को एकाग्र रखनेवाले थे ।
’अपनी माता के प्रेमयुक्त व्यवहार से और अपन्र् गुणों से पूरु राजा को अधिक प्रिय था । इससे यदु के मन में बड़ा दुःख हुआ । वे माता से बोले --
"माँ ! तुम अनायास ही महान् (अक्लिष्ट) कर्म करनेवाले देवस्वरूप शुक्राचार्य के कुल में उत्पन्न हुई हो तो भी यहाँ हार्दिक दुःख और दुःसह अपमान सहती हो ।
"अतः देवि ! हम दोनों एक ही साथ अग्नि में प्रवेश कर जाय्ँ । राजा दैत्यपुत्री शर्मिष्ठा के साथ अनन्त रात्रियों तक रमते रहें ।
"यदि तुम्हें यह सब कुछ सहन करना है तो मुझे ही प्राणत्याग की आज्ञा दे दो । तुम्हीं सहो । मैं नहीं सहूँगा । मैं निःसन्देह मर जाऊँगा ।
’अत्यन्त आर्त् होकर रोते हुए अपने पुत्र यदु की यह बात सुनकर देवयानी को बड़ा क्रोध हुआ और उन्होंने तत्काल अपने पिता शुक्राचार्यजी का स्मरण किया ।
’शुक्राचार्य अपनी पुत्री की उस चेष्टा को जानकर तत्काल उस स्थान पर आ पहुँचे, जहाँ पर देवयानी विद्यमान थी ।
’बेटी को अस्वस्थ, अप्रसन्न और अचेत-सी देखकर पिता ने पूछा --’वत्से ! यह क्या बात है?’
’उद्दीप्त तेजवाले पिता भृगुनन्दन शुक्राचार्य जब बारंबार इस प्रकार पूछने लगे, तब देवयानी ने अत्यन्त कुपित होकर उनसे कहा -- ’मुनिश्रेष्ठ ! मैं प्रज्वलित अग्नि या अगाध जल में प्रवेश कर जाऊँगी अथवा विष खा लूँगी; किंतु इस प्रकार अपमानित होकर जीवित नहीं रह सकूँगी
"आपको पता नहीं है कि मैं यहाँ कितनी दुःखी और अपमानित हूँ । ब्रह्मन् ! वृक्ष के प्रति अवहेलना होने से उसके आश्रित फूलों और पत्तों को ही तोड़ा और नष्ट किया जाता है (इसी तरह आपके प्रति राजा की अवहेलना होने से ही मेरा यहाँ अपमान हो रहा है ।
"भृगुनन्दन ! राजर्षि ययाति आपके प्रति अनादर का भाव रखने के कारण मेरी भी अवहेलना करते हैं और मुझे अधिक आदर नहीं देते हैं ’
’देवयानी की यह बात सुनकर भृगुनन्दन शुक्राचार्य को बड़ा क्रोध हुआ और उन्होंने नहुषपुत्र ययाति को लक्ष्य करके इस प्रकार कहना आरम्भ किया --
"नहुषकुमार ! तुम दुरात्मा होने के कारण मेरी अवहेलना करते हो, इसलिए तुम्हारी अवस्था जरा-जीर्ण वृद्ध के समान हो जायगी -- तुम सर्वथा शिथिल हो जाओगे’
’राजा से ऐसा कहकर पुत्री को आश्वासन दे महायशस्वी ब्रह्मर्षि शुक्राचार्य पुनः अपने घर को चले गये
’सूर्य के समान तेजस्वी तथा ब्राह्मणशिरोमणियों में अग्रगण्य शुक्राचार्य देवयानी को आश्वासन दे नहुषपुत्र ययाति को ऐसा कहकर उन्हें पूर्वोक्त शाप दे फिर चले गये ’
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इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के उत्तरकाण्ड में अट्ठावनवाँ सर्ग पूरा हुआ ।
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पात्र-परिचय,
जैसा कि पिछले पोस्ट में संकेत किया गया, ’ययाति’ वही है जिसका वर्णन बृहदारण्यक उपनिषद् के द्वितीय अध्याय के प्रथम ब्राह्मण में अजातशत्रु और गार्ग्य के संवाद के अन्तिम भाग में ’विज्ञानमय पुरुष’ के रूप में किया गया । शुक्राचार्य भृगुपुत्र वही हैं जो दैत्यगुरु हैं । देवयानी शुक्राचार्य की पुत्री है और शर्मिष्ठा दैत्य वृषपर्वा की पुत्री अर्थात् दैत्यकुल की कन्या है । शर्मिष्ठा का अर्थ है शर्मि-स्था जो सुख-सुविधा के जीवन की अभ्यस्त है ।
देवयानी का अर्थ है देवतत्व के यान से संबद्ध जीवन-प्रवाह, प्राण और चेतना जो इन्द्रिय-संवेदन और ’मन’ का आधार है । पूरु शर्मिष्ठा का पुत्र है जबकि यदु देवयानी का । दैत्यकुल शारीरिक सुखों उपभोगों में प्रवृत्त बुद्धि है । ’यदु’ मन के विषयों चिन्ता, भय, मान-सम्मान, अभिमान और विशेष रूप से स्मृति तथा स्मृति से संबद्ध ’परिचय’ ’पूरु’ और ’यदु’ दोनों को ही ’समाहित-चित्त’ कहा गया है क्योंकि इन्द्रियाँ स्वभाव से ही अपने-अपने विषयों के प्रति समाहित-चित्त अर्थात् एकाग्रचित्त होती हैं । जब मन किसी एक इन्द्रिय से प्रवृत्त होकर किसी विषय का उपभोग करता है तो किसी दूसरी इन्द्रिय के किसी भी विषय से पूर्णतः अनभिज्ञ होता है । जैसे मन द्वारा जब नेत्रों से देखने का कार्य लिया जाता है तो श्रवण, स्वाद, स्पर्श, घ्राण आदि अन्य चार स्थूल इन्द्रियाँ स्तब्ध रहती हैं । इसी प्रकार ये पाँचों इन्द्रियाँ अर्थात् पूरु समाहित-चित्त है । इसी प्रकार जब मन सूक्ष्म-इन्द्रिय की तरह किसी विषय से संलग्न होता है अर्थात् कल्पना या स्मृति से संलग्न होता है तो किसी भी विषय के ऐसे चिन्तन में अनायास एकाग्र अर्थात् समाहित-चित्त होता है । इस प्रकार पूरु का कार्य स्थूल शारीरिक तल पर होता है जबकि यदु का मानस तल पर । इसलिए कला, काव्य, संगीत आदि का संबंध देवयानी अर्थात् शुक्र (की पुत्री) से है, जबकि स्थूल इन्द्रिय उपभोगों का दैत्य वृषपर्वा की पुत्री से ।
जब राजा ययाति को शुक्राचार्य (जीवन की उस गतिविधि का अधिष्ठाता ’देवता’ जिससे स्थूल शरीर जन्म लेता, युवा होता, और संतति उत्पन्न करता है,) द्वारा जराग्रस्त होने का शाप दिया जाता है और ययाति अपने पुत्र यदु से कहता है कि उसे कुछ काल के लिए अपना यौवन दे दे क्योंकि अभी उसका मन जीवन के भोगों से तृप्त नहीं हुआ और यदु इसे अस्वीकार कर देता है, और पूरु इसके लिए प्रसन्नता से राजी हो जाता है तो इसका अर्थ यही है कि यदु (मन) सदा युवा रहता है और रहना चाहता भी है, कभी बूढ़ा (जराग्रस्त) नहीं होता जबकि पूरु (स्थूल शरीर) बिना आपत्ति किये बूढ़ा होता है । देवयानी के द्वारा पिता शुक्राचार्य को स्मरण किया जाना तथा ब्रह्मर्षि शुक्राचार्य (उशनस् / उशना) का तत्काल उपस्थित होना मनो-आकाश की घटना है किन्तु आधिदैविक रूप से वह कल्पना मात्र नहीं है क्योंकि मन की गति वैसे भी समय से अधिक तीव्र है ।
वह विज्ञानमय पुरुष (पुरे शेते यः - जो पुर अर्थात् अस्तित्व में सर्वत्र व्याप्त स्थान / आकाश में शयन करता है वही पुरुष है) वही ब्रह्म है जो सुषुप्ति में ’मैं कुछ नहीं जानता’ इस ज्ञान से युक्त होता है, जो स्वप्न में स्व्प्न-शरीर और मनो-आकाश में सूक्ष्म-इन्द्रियों का उपभोग करता है, और जागृति में स्थूल तथा सूक्ष्म दोनों इन्द्रियों का । पूरु तथा यदु जिसकी संतान हैं । इस प्रकार यह कथा आधिभौतिक, आधिदैविक तथा आध्यात्मिक तीनों तलों को अपने में समाहित किए हुए है और उसी परिप्रेक्ष्य में ग्रहण की जानी चाहिए । किन्तु इतना ही नहीं यह मनुष्य के नृवंश के इतिहास का एक ठोस वर्णन भी है क्योंकि इस कथा में राक्षस तथा यातुधान (माया) सभ्यताओं का उद्भव भी स्पष्ट किया गया है । सत्यं तु समग्रं भवति ।
यातुधान, जातुधान, धातुयान की समानता भी दृष्टव्य है ।
आज की भौतिक प्रगति और विकास राक्षसों (राक्षस-सभ्यता) और यदुवंश के वंशजों यातुधानों (मय-सभ्यता) तथा यादवों की ही देन है । 
इस प्रकार अजातशत्रु क्षत्रिय होते हुए भी जिस ’विज्ञानमय पुरुष’ का परिचय गार्ग्य (ब्राह्मण) को देता है वह यद्यपि शास्त्र से विपरीत है किन्तु ब्रह्म-विद्या के गौरव का सूचक ही है ।
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वाल्मीकि रामायण,
उत्तरकाण्ड,
सर्ग ५९
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ययाति का अपने पुत्र पुरू को अपना बुढ़ापा देकर बदले में उसका यौवन लेना और भोगों से तृप्त होकर पुनः दीर्घकाल के बाद उसे उसे उसका यौवन लौटा देना, पूरु का अपने पिता की गद्दी पर अभिषेक तथा यदु को शाप
शुक्राचार्य के कुपित होने का समाचार सुनकर नहुषकुमार ययाति को बड़ा दुःख हुआ । (उन्हें ऐसी अवस्था प्राप्त हुई, जो दूसरे की जवानी से बदली जा सकती थी ।) उस विलक्षण जरावस्था को पाकर राजा ने यदु से कहा --
’यदो ! तुम धर्म के ज्ञाता हो । मेरे महायशस्वी पुत्र ! तुम मेरे लिये दूसरे के शरीर में संचारित करने के योग्य इस जरावस्था को ले लो ।
मैं भोगों द्वारा रमण करूँगा -- अपनी भोगविषयक इच्छा को पूर्ण करूँ ।
’नरश्रेष्ठ ! अभी तक मैं विषयभोगों से तृप्त नहीं हुआ हूँ । इच्छानुसार विषयसुख का अनुभव करके प्गिर अपनी वृद्धावस्था मैं तुमसे ले लूँगा ।’
उनकी यह बात सुनकर यदु ने नरश्रेष्ठ ययाति को उत्तर दिया -- ’आपके लाड़ले बेटे पूरु ही इस वृद्धावस्था को ग्रहण करें ।
’पृथ्वीनाथ ! मुझे तो आपने धन से तथा पास रहकर लाड़प्यार पाने के अधिकार से भी वञ्चित कर दिया है; अतः जिनके साथ बैठकर आप भोजन करते हैं, उन्हीं लोगों से युवावस्था ग्रहण कीजिये’
यदु की यह बात सुनकर राजा ने पूरु से कहा --
’महाबाहो ! मेरी सुख-सुविधा के लिये तुम इस वृद्धावस्था को ग्रहण कर लो’
नहुष-पुत्र ययाति के ऐसा कहने पर पूरु हाथ जोड़कर बोले -- ’पिताजी ! आपकी सेवा का अवसर पाकर मैं धन्य हो गया । यह आपका मेरे ऊपर महान् अनुग्रह है । आपकी आज्ञा का पालन करने के लिए मैं हर तरह से तैयार हूँ’
पूरु का यह स्वीकारसूचक वचन सुनकर नहुषकुमार ययाति को बड़ी प्रसन्नता हुई । उन्हें अनुपम हर्ष प्राप्त हुआ और उन्होंने अपनी वृद्धावस्था पूरु के शरीर में संचारित कर दी । तदनन्तर तरुण हुए राजा ययाति ने सहस्रों यज्ञों का अनुष्ठान करते हुए कई हजार वर्षों तक इस पृथ्वी का पालन किया । इसके बाद दीर्घकाल व्यतीत होने पर राजा ने पूरु से कहा -- ’बेटा ! तुम्हारे पास धरोहर के रूप में रखी हुई मेरी वृद्धावस्था को मुझे लौटा दो ।
’पुत्र ! मैंने वृद्धावस्था को धरोहर के रूप में ही तुम्हारे शरीर में संचारित किया था, इसलिए उसे वापस ले लूँगा । तुम अपने मन में दुःख न मानना ।
’महाबाहो ! तुमने मेरी आज्ञा मान ली, इससे मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई । अब मैं बड़े प्रेम से राजा के पद पर तुम्हारा अभिषेक करूँगा ’
अपने पुत्र पूरु से ऐसा कहकर नहुषकुमार राजा ययाति देवयानी के बेटे से कुपित होकर बोले --
’यदो ! मैंने दुर्जय क्षत्रिय के रूप में तुम-जैसे राक्षस को जन्म दिया । तुमने मेरी आज्ञा का उल्लङ्घन किया है,अतः तुम अपनी संतानों को राज्याधिकारी बनाने के विषय में विफल-मनोरथ हो जाओ ।’मैं पिता हूँ, गुरु हूँ; फिर भी तुम मेरा अपमान करते हो, इसलिए भयंकर राक्षसों और यातुधानों को तुम जन्म दोगे
’तुम्हारी बुद्धि बहुत खोटी है । अतः तुम्हारी संतान सोमकुल में उत्पन्न वंशपरम्परा में राजा के रूप से प्रतिष्ठित नहीं होगी । तुम्हारी संतति भी तुम्हारे ही समान उद्दण्ड होगी’
यदु से ऐसा कहकर राजर्षि ययाति ने राज्य की वृद्धि करनेवाले पूरु को अभिषेक के द्वारा सम्मानित करके वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश किया ।
तदनन्तर दीर्घकाल के पश्चात् प्रारब्ध-भोग का क्षय होने पर नहुषपुत्र राजा ययाति ने शरीर को त्याग दिया और स्वर्गलोक को प्रस्थान किया
उसके बाद महायशस्वी पूरु ने महान् धर्म से संयुक्त हो काशिराज की श्रेष्ठ राजधानी प्रतिष्ठानपुर में रहकर उस राज्य का पालन किया ।
राजकुल से बहिष्कृत यदु ने नगर में तथा दुर्गम क्रौञ्चवन में सहस्रों यातुधानों को जन्म दिया ।
शुक्राचार्य के दिये हुए इस शाप को राजा ययाति ने क्षत्रिय धर्म के अनुसार धारण कर लिया । परंतु राजा निमि ने वसिष्ठजी के शाप को सहन नहीं किया
सौम्य ! यह सारा प्रसंग मैंने तुम्हें सुना दिया । समस्त कृत्यों का पालन करनेवाले सत्पुरुषों की दृष्टि (विचार / प्रेरणा) का ही हम अनुसरण करते हैं, जिससे राजा नृग की भाँति हमें दोष न प्राप्त हो । चन्द्रमा के समान मनोहर मुखवाले श्रीराम जब इस प्रकार कथा कह रहे थे, उस समय आकाश में दो-ही-एक तारे रह गये । पूर्व दिशा अरुण किरणों से रञ्जित हो लाल दिखायी देने लगी, मानो कुसुम रंग रँगे हुए अरुण वस्त्र से उसने अपने अङ्गों को ढँक लिया हो ।
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इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के उत्तरकाण्ड में उनसठवाँ सर्ग पूरा हुआ ।
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