श्रीभृगु-संहिता (मूल)
आत्मतया तदा गुरोः भृगोः वा इत्युक्तवान् ।
प्रभो ब्रूहि कथां बलेः वामनस्य ममश्रुणुवे ॥
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तब आत्मतया (हातिम ताई) ने आचार्य भृगु से कहा :
"हे प्रभो ! मुझसे कृपया राजा बलि तथा वामन की कथा कहें । मैं आपके मुख से इस कथा का श्रवण करना चाहता हूँ ।"
ऋषि भृगु ने तब कहना प्रारंभ किया :
पुराकल्प में किसी समय दैत्यराज बलि ने अत्यन्त पराक्रम से तीनों लोकों को युद्ध में परास्त कर सम्पूर्ण पृथ्वी सहित सर्वस्व दान कर दिया ।
किन्तु दान देने के गर्व से उसका अहंकार और भी अत्यन्त दृढ तथा प्रबल हो उठा ।
तब भगवान् नारायण ब्राह्मण बटुक (वामन) वेश धारण कर उसके समक्ष आ खड़े हुए ।
उस समय हमारे पूर्वकुल में हुए आचार्य भृगु जो उस काल में राजा बलि के राजपुरोहित एवं भी राजगुरु भी थे,
ने बलि को चेताते हुए कहा :
"यह बटुक ब्राह्मण कोई और नहीं, ब्राह्मण के वेश में साक्षात् भगवान् हरि श्रीमन्नारायण स्वयं हैं ।
तुम इनके धोखे में मत आओ ।"
जब राजा बलि ने उनसे दान ग्रहण करने की प्रार्थना की, और उन्हें दान में कौन सी वस्तु चाहिए,
यह प्रश्न किया तो ब्राह्मण वेश में अवस्थित बटुक बोला :
"मुझे केवल साढ़े तीन पग भूमि चाहिए ।"
जब राजा बलि ने हठपूर्वक गुरु की चेतावनी को अनसुना कर दिया, तो भार्गव उस पात्र के जल-मार्ग में जाकर बैठ गए, (जहाँ से दान के संकल्प के लिए शास्त्रोक्त रीति से जल हथेली पर छोड़ा जाता है ।) ताकि जल न छोड़ा जा सके और राजा का संकल्प तथा दान पूर्ण न हो सके । तब बटुकवेशधारी वामन बोले :
"राजन् ! लगता है जल-पात्र की नली (चञ्चु / बिल) में कुछ कचरा आ जाने से जल का मार्ग अवरुद्ध हो गया है । तुम इस सींक से उस बाधा को दूर कर दो ।"
तब राजा बलि ने उस सींक से चञ्चु में स्थित बाधा को हटाने का यत्न किया ।
चूँकि वहाँ आचार्य भृगु बैठे हुए थे और उस सींक से उनका दक्षिण नेत्र बिंध गया (विद्ध हो गया), इसलिए वे बिलबिलाकर उस बिल से बाहर आ गए ।
(तब से हमारे कुल तथा सम्प्रदाय में कृष्ण यजुर्वेद की परंपरा चल पड़ी ।)
आत्मतया ! (हातिम ताई !) तत्पश्चात् संकल्प पूरा हो जाने पर राजा ने बटुकवेशधारी बटुकेश्वर वामन से कहा कि वे साढ़े तीन पग चलें, - जितनी भूमि उनके पग के तले आ जाए, उसे दान में ग्रहण कर लें । तब वामन ने एक पग में मृत्युलोक को, दूसरे में स्वर्ग को तथा तीसरे में अंतरिक्ष को माप लिया और राजा से पूछा :
"आधा पग कहाँ रखूँ ?"
"प्रभो ! अब तो मेरा मस्तक (अहंकार) ही वह शेष स्थान है जिस पर आप अपना पावन चरण रखकर मुझे धन्य करें ।"
इस प्रकार आधे पग में, अर्थात् बाँए (तीसरे) पग में अन्तरिक्ष को माप चुके तीसरे पग पर खड़े वामन ने दाहिने घुटने (आधा पग) से बलि के मस्तक को दबाकर उसे पाताल भेज दिया अर्थात् पाताल का राज्य प्रदान किया ।
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तब हातिम ताई अत्यन्त चकित हुआ । उसने आचार्य से प्रार्थना की कि इस कथा का गूढ तात्पर्य भी उसे समझाएँ ।
उसके इस निवेदन पर आचार्य (भृगु) पुनः बोले :
"प्रकृति से उत्पन्न शरीर ही नारायण का पहला पग है जिस पर सबसे पहले अहंकार अपना आधिपत्य और स्वामित्व मान लेता है । यह मान्यता ही मन है । अहंकार के विकास और विस्तार के साथ वह बलवान् (बली) होकर मन रूपी साम्राज्य का स्वामी बन बैठता है और अपने आपको एक स्वतंत्र एकछत्र राजा घोषित करता है ।
तीसरे पग में वह मन से संयुक्त अहंकार / मन; - अन्तरिक्ष (मन के गूढ रहस्य) में विचरता रहता है । चूँकि अन्तरिक्ष असीम और अनन्त है इसलिए वह उसका अतिक्रमण नहीं कर पाता ।
पहले पग की भूमि (जन्म), दूसरे पग की भूमि (शरीर) का अतिक्रमण तो मन / अहंकार अनायास ही कर लेता है किन्तु मन से पूर्व (जो तत्व है उस तत्व) का अतिक्रमण करना उसके लिए संभव नहीं ।
वह भूमि नारायण की है । वह भूमि नारायण को समर्पित कर दिए जाने के बाद भी मन / अहंकार दान के उद्धत मस्तक गर्व से भरा खड़ा रहता है । जब उस गर्व को वामन अपने दाहिने घुटने से कुचलकर नष्टप्राय कर देता है, तब वह मन / अहंकार पाताल में जाकर छिप जाता है किन्तु फिर भी नष्ट नहीं होता क्योंकि वह आत्मा का अंश है, जबकि नारायण सम्पूर्ण आत्मतत्व है ।
कठोलिक परंपरा में इसे ही जानने की दूसरी प्रक्रिया है जिसकी शिक्षा कठोनिषद् और तैत्तिरीय उपनिषद् आदि से प्राप्त होती है ।
कापालिक परंपरा में इतनी कठिनता नहीं है ।
कापालिक परंपरा प्रवृत्ति-मार्ग है, कठोलिक परंपरा निवृत्ति मार्ग है ।
प्रवृत्ति मार्ग से वृत्ति परमेश्वर में लीन हो जाती है, निवृत्ति-मार्ग में अन्ततः अहंकार शेष रह जाता है जो परमेश्वर की कृपा से ही विलीन होता है ।
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इति श्री भृगु-संहिता
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(कल्पित)
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आत्मतया तदा गुरोः भृगोः वा इत्युक्तवान् ।
प्रभो ब्रूहि कथां बलेः वामनस्य ममश्रुणुवे ॥
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तब आत्मतया (हातिम ताई) ने आचार्य भृगु से कहा :
"हे प्रभो ! मुझसे कृपया राजा बलि तथा वामन की कथा कहें । मैं आपके मुख से इस कथा का श्रवण करना चाहता हूँ ।"
ऋषि भृगु ने तब कहना प्रारंभ किया :
पुराकल्प में किसी समय दैत्यराज बलि ने अत्यन्त पराक्रम से तीनों लोकों को युद्ध में परास्त कर सम्पूर्ण पृथ्वी सहित सर्वस्व दान कर दिया ।
किन्तु दान देने के गर्व से उसका अहंकार और भी अत्यन्त दृढ तथा प्रबल हो उठा ।
तब भगवान् नारायण ब्राह्मण बटुक (वामन) वेश धारण कर उसके समक्ष आ खड़े हुए ।
उस समय हमारे पूर्वकुल में हुए आचार्य भृगु जो उस काल में राजा बलि के राजपुरोहित एवं भी राजगुरु भी थे,
ने बलि को चेताते हुए कहा :
"यह बटुक ब्राह्मण कोई और नहीं, ब्राह्मण के वेश में साक्षात् भगवान् हरि श्रीमन्नारायण स्वयं हैं ।
तुम इनके धोखे में मत आओ ।"
जब राजा बलि ने उनसे दान ग्रहण करने की प्रार्थना की, और उन्हें दान में कौन सी वस्तु चाहिए,
यह प्रश्न किया तो ब्राह्मण वेश में अवस्थित बटुक बोला :
"मुझे केवल साढ़े तीन पग भूमि चाहिए ।"
जब राजा बलि ने हठपूर्वक गुरु की चेतावनी को अनसुना कर दिया, तो भार्गव उस पात्र के जल-मार्ग में जाकर बैठ गए, (जहाँ से दान के संकल्प के लिए शास्त्रोक्त रीति से जल हथेली पर छोड़ा जाता है ।) ताकि जल न छोड़ा जा सके और राजा का संकल्प तथा दान पूर्ण न हो सके । तब बटुकवेशधारी वामन बोले :
"राजन् ! लगता है जल-पात्र की नली (चञ्चु / बिल) में कुछ कचरा आ जाने से जल का मार्ग अवरुद्ध हो गया है । तुम इस सींक से उस बाधा को दूर कर दो ।"
तब राजा बलि ने उस सींक से चञ्चु में स्थित बाधा को हटाने का यत्न किया ।
चूँकि वहाँ आचार्य भृगु बैठे हुए थे और उस सींक से उनका दक्षिण नेत्र बिंध गया (विद्ध हो गया), इसलिए वे बिलबिलाकर उस बिल से बाहर आ गए ।
(तब से हमारे कुल तथा सम्प्रदाय में कृष्ण यजुर्वेद की परंपरा चल पड़ी ।)
आत्मतया ! (हातिम ताई !) तत्पश्चात् संकल्प पूरा हो जाने पर राजा ने बटुकवेशधारी बटुकेश्वर वामन से कहा कि वे साढ़े तीन पग चलें, - जितनी भूमि उनके पग के तले आ जाए, उसे दान में ग्रहण कर लें । तब वामन ने एक पग में मृत्युलोक को, दूसरे में स्वर्ग को तथा तीसरे में अंतरिक्ष को माप लिया और राजा से पूछा :
"आधा पग कहाँ रखूँ ?"
"प्रभो ! अब तो मेरा मस्तक (अहंकार) ही वह शेष स्थान है जिस पर आप अपना पावन चरण रखकर मुझे धन्य करें ।"
इस प्रकार आधे पग में, अर्थात् बाँए (तीसरे) पग में अन्तरिक्ष को माप चुके तीसरे पग पर खड़े वामन ने दाहिने घुटने (आधा पग) से बलि के मस्तक को दबाकर उसे पाताल भेज दिया अर्थात् पाताल का राज्य प्रदान किया ।
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तब हातिम ताई अत्यन्त चकित हुआ । उसने आचार्य से प्रार्थना की कि इस कथा का गूढ तात्पर्य भी उसे समझाएँ ।
उसके इस निवेदन पर आचार्य (भृगु) पुनः बोले :
"प्रकृति से उत्पन्न शरीर ही नारायण का पहला पग है जिस पर सबसे पहले अहंकार अपना आधिपत्य और स्वामित्व मान लेता है । यह मान्यता ही मन है । अहंकार के विकास और विस्तार के साथ वह बलवान् (बली) होकर मन रूपी साम्राज्य का स्वामी बन बैठता है और अपने आपको एक स्वतंत्र एकछत्र राजा घोषित करता है ।
तीसरे पग में वह मन से संयुक्त अहंकार / मन; - अन्तरिक्ष (मन के गूढ रहस्य) में विचरता रहता है । चूँकि अन्तरिक्ष असीम और अनन्त है इसलिए वह उसका अतिक्रमण नहीं कर पाता ।
पहले पग की भूमि (जन्म), दूसरे पग की भूमि (शरीर) का अतिक्रमण तो मन / अहंकार अनायास ही कर लेता है किन्तु मन से पूर्व (जो तत्व है उस तत्व) का अतिक्रमण करना उसके लिए संभव नहीं ।
वह भूमि नारायण की है । वह भूमि नारायण को समर्पित कर दिए जाने के बाद भी मन / अहंकार दान के उद्धत मस्तक गर्व से भरा खड़ा रहता है । जब उस गर्व को वामन अपने दाहिने घुटने से कुचलकर नष्टप्राय कर देता है, तब वह मन / अहंकार पाताल में जाकर छिप जाता है किन्तु फिर भी नष्ट नहीं होता क्योंकि वह आत्मा का अंश है, जबकि नारायण सम्पूर्ण आत्मतत्व है ।
कठोलिक परंपरा में इसे ही जानने की दूसरी प्रक्रिया है जिसकी शिक्षा कठोनिषद् और तैत्तिरीय उपनिषद् आदि से प्राप्त होती है ।
कापालिक परंपरा में इतनी कठिनता नहीं है ।
कापालिक परंपरा प्रवृत्ति-मार्ग है, कठोलिक परंपरा निवृत्ति मार्ग है ।
प्रवृत्ति मार्ग से वृत्ति परमेश्वर में लीन हो जाती है, निवृत्ति-मार्ग में अन्ततः अहंकार शेष रह जाता है जो परमेश्वर की कृपा से ही विलीन होता है ।
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इति श्री भृगु-संहिता
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(कल्पित)
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[इस पोस्ट को लिखते समय ध्यान आया की इसी तिथि (24 जुलाई 1997) को पूज्य पिताजी का देहावसान हुआ था। इसलिए यह पोस्ट उन्हीं की स्मृति को समर्पित है। ]
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